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आज का भारतीय लोकतंत्र एवं आपातकाल

June 26, 2015 7:52 am by: Category: ब्लॉग से Comments Off on आज का भारतीय लोकतंत्र एवं आपातकाल A+ / A-

635381012049012773अभी एक सप्ताह पहले उन्हीं की भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठतम नेता लालकृष्ण आडवाणी ने आशंका व्यक्त की थी कि देश में लोकतंत्रविरोधी शक्तियां लोकतांत्रिक शक्तियों की तुलना में कहीं अधिक ताकतवर हैं और इमरजेंसी के दौर की वापसी की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता.

भारत विश्व का सबसे युवा देश है. उसकी आबादी एक अरब बीस करोड़ है और इस आबादी के लगभग 75 प्रतिशत लोगों की आयु चालीस साल से कम है. यानी इन्हें इमरजेंसी की कोई याद नहीं है. इस समय इमरजेंसी को याद करने वाले वे लोग हैं जिनकी आयु लगभग साठ साल या उससे अधिक है. इसका अर्थ यह हुआ कि देश की लगभग 75 प्रतिशत आबादी इस बात से बेखबर है कि इमरजेंसी का क्या मतलब है और इमरजेंसी के दौर में जीने का अनुभव कैसा होता है. यही नहीं, उसे उस प्रक्रिया की पहचान भी नहीं है जिससे गुजर कर देश में इमरजेंसी लगाने के लिए अनुकूल माहौल तैयार होता है. भारतीय लोकतंत्र के सामने यह एक बहुत बड़ी चुनौती है.

25 जून, 1975 की रात को इमरजेंसी लगने के पहले देश में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भ्रष्टाचारविरोधी आंदोलन चला था, बहुत कुछ वैसा ही जैसा पिछले दो सालों के दौरान अण्णा हजारे और अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में चला. देश की अर्थव्यवस्था भी संकट में थी. आज भी सरकारी दावों के बावजूद आर्थिक विकास की वह दर नहीं है जिसकी उम्मीद की जा रही थी और आम आदमी को महंगाई ने परेशान कर रखा है. रोजगार के नए अवसर पैदा करने का भारतीय जनता पार्टी का वादा अभी तक वादा ही बना हुआ है. युवाओं का मनोबल बढ़ाने वाली कोई बात नहीं हो रही. लोकतंत्रविरोधी ताकतों के मजबूत होने के लिए यह उर्वर भूमि है.

जिस तरह इंदिरा गांधी की सरकार विपक्ष के हमलों का सामना कर रही थी और चारों ओर से घिरती जा रही थी, उसी तरह नरेंद्र मोदी की सरकार इस समय तरह-तरह के आरोपों से घिरती जा रही है. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे इस समय गलतबयानी और भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रही हैं. मोदी का जादू फीका पड़ता जा रहा है. केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह कह रहे हैं कि चाहे कुछ भी हो जाये, इस सरकार का कोई भी मंत्री इस्तीफा नहीं देगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यूं तो हर चीज पर बोलने को तैयार रहते हैं, लेकिन अपनी सरकार के मंत्रियों के खिलाफ लग रहे आरोपों पर मौन रखे हुए हैं.

सरकार भूमि अधिग्रहण विधेयक राज्यसभा में पारित नहीं करा सकी, इसलिए उसने तीन बार अधिनियम जारी करके उसे संसद की अनुमति के बिना लागू किया हुआ है. यह इस बात का संकेत है कि वह संसद की राय को बहुत महत्व नहीं देती. खुद लोकसभा का चुनाव हारकर राज्यसभा की सदस्यता की बदौलत मंत्री बनने वाले वित्तमंत्री अरुण जेटली ने राज्यसभा की जरूरत पर ही सवाल उठा दिया है क्योंकि इसके कारण सीधे जनता द्वारा चुनी हुई लोकसभा द्वारा पारित विधेयक कानून की शक्ल नहीं ले पा रहा. ये सभी लोकतंत्र को कमजोर करने वाले संकेत हैं.

सिविल सोसाइटी और स्वेच्छिक संगठनों पर अंकुश लगाने के प्रयास चल रहे हैं. शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र को हिन्दुत्व की विशिष्ट विचारधारा द्वारा नियंत्रित और नियमित करने की कोशिशें भी जारी हैं. ऐसे में लोकतांत्रिक असहमति के लिए जगह सिकुड़ती जा रही है. शासन में पारदर्शिता की लगातार कमी होती जा रही है और प्रधानमंत्री कार्यालय यह तक बताने को तैयार नहीं है कि उद्योगपति अडानी प्रधानमंत्री मोदी से अब तक कितनी बार मिले हैं. राजनीतिक और धार्मिक असहिष्णुता बढ़ती जा रही है. देश के विभिन्न हिस्सों में स्वतंत्र पत्रकारों पर कातिलाना हमले हो रहे हैं. यह स्थिति लोकतंत्र के लिए बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती.

ब्लॉग-कुलदीप

सम्पादन-अनिल सिंह

 

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