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झिझक छोड़ दी, बहू-बेटियां बनाती, बेचती हैं नेपकिन

June 13, 2015 7:39 pm by: Category: ब्लॉग से Comments Off on झिझक छोड़ दी, बहू-बेटियां बनाती, बेचती हैं नेपकिन A+ / A-

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माहवारी के दौरान कपड़े, राख, मिट्टी, सूखे पत्ते, कंडा और र्इंटों का उपयोग करने वाले मप्र के कुछ जिलों में अब महिलाओं की सोच तेजी से बदल रही है। उन्होंने झिझक छोड़ दी है। गांव की बहू-बेटियां अब खुलकर माहवारी पर बात कर रही हैं। उन्हें स्वच्छता के लाभ और गंदगी के नुकसान समझ आ गए हैं। मजबूरी कैसी भी हो लेकिन स्वच्छता से समझौता उन्हें मंजूर नहीं हैं। मासिक धर्म के दौरान इस्तेमाल के लिए वे खुद न सिर्फ सेनेटरी नेपकिन बना रही हैंबल्कि घर-घर जाकर महिलाओं को उपयोग के लिए प्रेरित भी कर रही हैं। इससे उन्हें रोजगार भी मिला है और आत्मविश्वास भी बढ़ा है।

यह सब हो रहा है मप्र के उन छह जिलों में जहां महिलाओं के स्व-सहायता समूह पिछले तीन सालों से सेनेटरी नेपकिन बनाने का काम कर रहे हैं। यह समूह वर्तमान में हर रोज 1500 पैकेट सेनेटरी नेपकिन का निर्माण कर रहे हैं। एक पैकेट में आठ नेपकिन होती हैं। यह नेपकिन बाजार में बिकने वाली बड़ी कंपनियों की नैपकिन से किसी भी तुलना में कम नहीं है। हेल्थी और हाईजीन के सभी पैमानों पर यह खरी है। इनकी कीमत भी बाजार में बिकने वाली नेपकिन से करीब 30 से 40 प्रतिशत कम है। रायसेन, छतरपुर, पन्ना, बड़वानी, श्योपुर और डिंडोरी में महिलाओं के समूह यह काम कर रहे हैं।
डीपीआईपी की बड़ी भूमिका
डीपीआईपी ने इन छह जिलों में महिलाओं के आर्थिक और सामाजिक उन्नयन के साथ इनकी सोच बदलने का काम भी किया है। महिला समूहों को पहले नेपकिन बनाने की ट्रेनिंग दी गई और बाद में इन्हीं महिलाओं में से कुछ को मास्टर ट्रेनर बनाकर दूसरे गांवों और समूहों में इस काम का विस्तार किया। स्वच्छता के साथ रोजगार के साधन उपलब्ध कराने के लिए समूह की महिलाओं को 10 से 12 हजार की अनुदान राशि उपलब्ध कराकर सेनेटरी नेपकिन बनाने का काम शुरू किया।
माय नेपकिन
स्व-सहायता समूहों ने आजीविका माय नेपकिन के नाम से अपना यह उत्पाद तैयार किया। डीपीआईपी की गरिमा बताती हैं कि इन छह जिलों में करीब 1500 पैकेट रोजाना नेपकिन तैयार होती है। यह नेपकिन आसपास के गांवोंं में ही बेची जाती है। इन समूहों का फिलहाल शहरी बाजारों पर फोकस नहीं है, क्योंकि गांव में ही इनकी काफी खपत हो रही है।
समूह सदस्यों ने मिटाई झिझक
महिलाओं के इन समूहों में गांव की बहू, बेटियां, भी शामिल हैं। ये महिलाएं गांव के घर-घर जाकर महिलाओं से माहवारी पर चर्चा करती हैं और उन्हें सेनेटरी नेपकिन के इस्तेमाल के लिए प्रेरित करती हैं।
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डीपीआईपी ने छह जिलों में महिलाओं के समूहों को सेनेटरी नेपकिन बनाने के लिए प्रोत्साहित किया था। इन महिलाओं को पहले प्रशिक्षण दिया और इन्हीं में से मास्टर ट्रेनर बनाए गए। अब यह समूह इन जिलों में तेजी से काम कर रहे हैं। नेपकिन बनाते हैं और गांवों में ही बेहद सस्ते दामों पर बेचते हैं। इनमें स्वच्छता की भावना भी जागी है और इनका आर्थिक सशक्तिकरण भी हुआ है। इन समूहों में से कई महिलाएं सलाना एक लाख से ज्यादा कमा रही हैं।
एलएम बेलबाल,  परियोजना समन्वयक, डीपीआईपी, मप्र
L.M. Belwal, Project Coordinator, DPIP. M.P. 
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देवास में भी अनूठी पहल
देवास जिले के एक गांव में स्व-सहायता समूह की महिलाओं ने मद्रास में जाकर सेनेटरी नेपकिन बनाने का प्रशिक्षण लिया। ग्राम में आकर सेनेटरी नैपकिन का उत्पादन प्रारंभ किया। इन्होंने ग्राम में ही सेनेटरी नैपकिन का उत्पादन केन्द्र शुरू किया।
भोपाल में भी हुई थी शुरूआत
वर्ष 2007 में भोपाल गैस पीड़ित महिलाओं के आर्थिक पुनर्वास के लिए सेनेटरी नैपकिन परियोजना शुरू की थी। इसके लिए भोपाल की 600 गैस पीड़ित महिलाओं का चयन कर उनके कुल 30 स्व सहायता समूह बनाये गए थे। ये महिलाएं सेनेटरी नेपकिन पेड बना रही थी जिसे भारती ट्रेड मार्क का नाम देकर टेंशन फ्री  ब्राण्ड के नाम से बाजार में बेचा जा रहा था। इसमें सरकारी सहायता राशि नहीं मिलने के कारण यह प्रोजेक्ट बंद हो गया।
डॉ अनिल सिरवैया (वरिष्ठ पत्रकार हैं )
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