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प्राथमिक शिक्षा में सुधार की जरूरत

शिक्षा समाज की आत्मा है। आत्मा दूषित न हो इस बात का ध्यान समाज के प्रत्येक व्यक्ति को करना है। शिक्षण संस्थाओं को मंदिर/मस्जिद समतुल्य समझने की आवश्यकता है। वर्ष 1976 से पूर्व भारत में शिक्षा पूर्णरूप से राज्यों के अधीन थी। समय, सोच, आवश्यकता बदलती गई तो शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन आवश्यक हो गया।

शिक्षा समाज की आत्मा है। आत्मा दूषित न हो इस बात का ध्यान समाज के प्रत्येक व्यक्ति को करना है। शिक्षण संस्थाओं को मंदिर/मस्जिद समतुल्य समझने की आवश्यकता है। वर्ष 1976 से पूर्व भारत में शिक्षा पूर्णरूप से राज्यों के अधीन थी। समय, सोच, आवश्यकता बदलती गई तो शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन आवश्यक हो गया।

वस्तुत: व्यक्ति जीवन र्पयत शिक्षा प्राप्त करता है, लेकिन बालपन में प्राप्त शिक्षा इंसान के अंतिम स्वास तक रहती है। इसी वजह से देश में स्वतंत्रता की आवाज बुलंद करने वालों ने शिक्षा को महत्वपूर्ण एवं आवश्यक बताया।

गांधीजी ने कहा था कि सच्ची शिक्षा, हाथ पैर, आंख, कान, नाक आदि शारीरिक अंगों के ठीक अभ्यास एवं शिक्षण से ही संभव है। बालकृष्ण गोखले ने ब्रिटिश शासन से 1910 में नि:शुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की मांग की थी। 1937 में गांधी जी ने जाकिर हुसैन के साथ मिलकर ‘नई तालीम’ की अवधारणा प्रस्तुत की थी।

वर्ष 1935 में शिक्षा प्रसार विभाग का गठन किया गया। अंतत: 1966 में कोठारी आयोग के गठन के साथ समान शिक्षा की वकालत हुई। लेकिन आयोग के दिशा निर्देशों की अवहेलना हुई। सरकार शिक्षा संबंधी जिम्मेदारी से बचना चाहती थी। परिणाम स्वरूप देश में कान्वेंट स्कूलों की भरमार हो गई।

यहां बच्चों का दाखिला उसके प्रतिभा के बजाय माता-पिता की आर्थिक स्थिति के आधार पर दिया जाने लगा। परिणामस्वरूप शिक्षा उच्च वर्गो के लिए आरक्षित हो गई। गांव के किसान का बच्चा गांव की प्राइमरी पाठशालाओं तक सीमित रह गया, जिसे सरकार अनमने भाव से पंचवर्षीय योजनाओं के अंर्तगत चला रही है। गांव के बच्चे हिंदी अथवा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षा ग्रहण करते हैं, यह भी उनके लिए अभिशाप बन गया है।

एक उदाहरण से आप समझ सकते हैं। वर्ष 2008 में आईएएस की परीक्षा में 11320 उम्मीदवार मुख्य परीक्षा में बैठे थे। इनमें 5117 हिंदी माध्यम के 5822 अंग्रेजी माध्यम के बाकी अन्य भाषा के। ग्रामीण परिवेश के हिंदी माध्यम के बच्चे अपनी क्षमता का अच्छा प्रदर्शन कर रहे थे। लेकिन वर्ष 2013 की परीक्षाएं 16 हजार छात्रों में हिंदी माध्यम के मात्र 100 बच्चे रह गए।

इस प्रकार गांव में शिक्षा प्राप्त करना देश के नौनिहालों के लिए अभिशाप बन गया, क्योंकि अंग्रेजी भाषा अनिवार्य कर दी गई थी। अब आप जरा सोचिए सरकार ही दोहरे मापदण्डों को लागू करने पर आमादा है तो आप क्या कर सकते है। भारत में शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया गया, लेकिन शिक्षा संरचना में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सका, अपितु गरीब व अमीर के बीच दूरी और बढ़ गई।

जब प्राथमिक विद्यालय गांव स्तर पर थे तो नवोदय विद्यालय, कस्तूरबा गांधी विद्यालय, ग्रामीण मशरूम रूपी कानवेंट स्कूल, सीबीएससी प्राइमरी स्कूल आईसीएससी प्राइमरी स्कूल अन्य कई प्रकार के स्कूलों की आवश्यकता समझ से परे है। सभी बोर्डो के सिलेबस अलग हैं, शिक्षक का स्तर अलग है, सुविधाएं अलग हैं।

सरकारी बजट प्रावधान अलग है। फिर सामाजिक समानता का खोखला नारा क्यों दिया जाता है। शिक्षा की स्थिति चिंताजनक है। लगभग 80 लाख बच्चे 6-14 वर्ष की आयु वर्ग में शामिल हैं जो स्कूल नहीं जा पाते हैं। लाखों छात्र स्कूल छोड़ देते हैं।

गैर सरकारी संगठन प्रथम की वार्षिक रिपोर्ट पर ध्यान दिया जाए तो 2014 तक 5 प्रतिशत के करीब छात्राएं स्कूल नहीं जा पातीं। शिक्षा की गुणवत्ता पर अब विशेष ध्यान दिया जा रहा है, लेकिन ग्रामीण शिक्षा के स्तर पर सुविधाओं की अनेक विसंगतियां दिखाई पड़ती हैं।

भारत के 522 जिलों 14000 गांवों, 3 लाख परिवारों व लगभग 7 लाख बच्चों के सर्वेक्षण पर आधारित रिपोर्ट के अनुसार, राष्ट्रीय स्तर पर बच्चों की पढ़ने की क्षमता में कोई अंतर नहीं आया है। कक्षा पांच के छात्र को अपेक्षित ज्ञान नहीं हो पा रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण शिक्षकों को शिक्षा के अलावा अन्य कार्यो में लगाना माना जा रहा है।

भारत सरकार ने प्राथमिक शिक्षा के बजट को काफी बढ़ाया है। 2011-12 वित्तीय वर्ष में शिक्षा को 52057 हजार करोड़ राशि दिया गया, जिसमें 21000 हजार करोड़ प्राथमिक शिक्षा को मिला। इसके बाद से ही 2011 तक शिक्षा के क्षेत्र में धन की कभी नहीं है, लेकिन आज भी प्राथमिक विद्यालय बदहाली की स्थिति में है।

उत्तर प्रदेश के प्राथमिक विद्यालयों में बिजली, पंखा, शौचालय, पीने का साफ पानी छात्रों को ब्लैक बोर्ड, चाक, डस्टर तक सरकारों द्वारा उपलब्ध नहीं कराया जा सका है। सारी योजनाएं भ्रष्टाचार की गिरफ्त में दम तोड़ देती हैं।

विद्यालय में रखे सामानों को असामाजिक तत्वों द्वारा लूट लिया जाता है और इसका दोष अध्यापकों पर लगाकर उन्हें दंडित किया जाता है, उनसे वसूली होती है। अध्यापकों द्वारा किचन, टॉयलेट बनवाने, अतिरिक्त क्लास रूम बनवाने के लिए पुताई कराने के लिए धन अवमुक्त किया जाता है। उन पर दबाव डालकर घटिया काम कराया जाता है, जिसका कमीशन ग्राम प्रधान से लेकर अधिकारी तक जाता है। लेकिन दंड सिर्फ अध्यापकों को मिलता है और उनका वेतन रोका जाता है व उनके खिलाफ आपराधिक दंड का प्रावधान किया जाता है।

ऐसे में शिक्षक का मन शिक्षा प्रदान करने में कैसे लगेगा। वे स्वयं के बचाव में अपनी पूरी ऊर्जा लगा देते हैं। छात्रों से उसका संपर्क नाम मात्र का रह जाता है।

सरकारों को इस बात पर चिंतन-मंथन करना चाहिए कि शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए किस प्रकार के उपाय किए जाएं कि छात्र-शिक्षक अनुपात में ज्यादा अंतर न हो, छात्रों को ग्रामीण स्तर पर समस्त आधुनिक सुविधाओं का लाभ निर्वाध गति से प्राप्त हो।

शिक्षक अपने दायित्व का पालन सहजता, लगन, निष्ठा एवं ईमानदारी से करें, इसके लिए वातावरण तैयार करना सरकारों के लिए जरूरी है। आए दिन राजधानियों में अपने हक और अधिकार के लिए शिक्षक सड़क पर उतरता है। व्यवस्था संचालको को गंभीरता से शिक्षक समस्याओं का समाधान निकलना होगा। जरा सोच के देखिए, समाज में किन चीजों की आवश्यकता ज्यादा है।

आपको अच्छा डाक्टर चाहिए, अच्छा इंजीनियर, अच्छा वकील, अच्छा अध्यापक, अच्छा लेक्च रर, बिजली मिस्त्री, राजमिस्त्री, सब कुछ अच्छा चाहिए। इनकी पैदावार नहीं होती। न ही ये फैक्ट्री में बनाए जा सकते हैं। इनको तो विद्यालयों में पढ़ाकर, सिखाकर ही बनाया जा सकता है। ऐसे में सरकार व समाज के सभी वर्गो को शिक्षा के स्तर में, शिक्षण स्तर में एवं विद्यालय को मंदिर एवं मस्जिद के समान महत्व दिए जाने की आवश्यकता है।

“यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति।

सर्वभूतेषु आत्मान: ततो न विजुगुप्तसे।।”

इसका अर्थ है, भारत के नियंता उठो, अपने राजलाभ का परित्याग करो, सार्वत्रिक शिक्षा विमर्श करो और शिक्षा को राष्ट्रहित के रूप में देखो और उसी अनुसार आचरण करो। इसी में राष्ट्रहित है और राष्ट्रहित ही निज हित है। (आईएएनएस/आईपीएन)

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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