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बिहार में वामपंथ की दस्तक

November 16, 2015 10:04 am by: Category: सम्पादकीय Comments Off on बिहार में वामपंथ की दस्तक A+ / A-
bihar electionबिहार विधानसभा का इस बार का चुनाव सामान्य चुनाव नहीं था। भाजपा को दिल्ली विधानसभा चुनाव में बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा था। इसलिए नरेन्द्र मोदी सरकार की प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी। स्वयं मोदी की विश्वसनीयता और लोकप्रियता को बचाये रखने के लिए जरूरी था कि भाजपा गठबंधन बिहार विधानसभा के चुनाव में हर हालत में कामयाब हों। इसमें उन्होंने अपनी सारी ताकत झोंक दी। प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के इस तरह कमान अपने हाथों में ले लेने से न सिर्फ राष्ट्रीय महत्व का बल्कि मोदी बनाम नीतीश कुमार बन गया जिसमें एक तरफ मोदी के ‘विकास’ का मॉडल था तो उसके बरक्स नतीश कुमार का ‘सुशासन’। 
 
इस तरह चुनाव दो गठबंधनों के बीच केन्द्रित हो गया। जबरदस्त ध्रुवीकरण हुआ। ऐसा करने में प्रचार माध्यमों की भी बड़ी भूमिका रही। बिहार चुनाव में बसपा, ओवैसी की एमआईएम, समाजवादी पार्टी के अतिरिक्त छ वामपंथी दलों का भी मोर्चा चुनाव मैदान में था। वामपंथी मोर्चा ने न्याय, लोकतंत्र और जनोन्मुखी विकास का एक वैकल्पिक एजेण्डा भी पेश किया था। लेकिन मीडिया में इनके लिए कोई जगह नहीं थी। ये सभी प्रचार से बाहर थे। विभिन्न दलों के मतों को देखा जाय तो जहां महागठबंधन को 44 प्रतिशत, एनडीए को 38 प्रतिशत मत मिले वहीं अतिरिक्त मतों का प्रतिशत 18 रहा। इसमें 2.5 प्रतिशत नोटा का मत था। 
 

बिहार में वामपंथियों ने अपनी स्थिति में सुधार किया है और राज्य में तीसरी ताकत के रूप में उभरे हैं। इस राज्य में आज वामपंथ बहुत कमजोर नजर आता है लेकिन इसका अतीत शानदार रहा है। इसने मजदूरों, किसानों, गरीबगुरबा के हकों की लड़ाइयों का नेतृत्व किया। इनकी चुनावी ताकत भाजपा के पुराने संस्करण भारतीय जनसंघ से बीस थी। उस वक्त भाकपा मुख्य वामपंथी दल की हैसियत रखता था। 1967 में न सिर्फ वामपंथियों को विधानसभा में 28 सीटें मिली थीं बल्कि बिहार में महामाया बाबू के नेतृत्व में बनी पहली गैरकांग्रेसी संविद सरकार में भाकपा के दो मंत्री सुनील मुखर्जी और चन्द्रशेखर सिंह शामिल हुए थे। इसी तरह 1969 के मध्यावधि चुनाव में वामपंथी दलों को 29 तथा 1972 में 35 सीटें मिली थीं। लेकिन ये अतीत की बाते हैं। इसके बाद की कहानी वामपंथियों के पतन की है। भाकपा द्वारा इमरजेंसी व इंदिरा गांधी का समर्थन व जे पी आंदोलन का विरोध तथा बाद में मंडल-कमंडल के दौर में भाजपा को सत्ता से दूर रखने के प्रयास में लालू-मुलायम यहां तक कि कांग्रेस के साथ अवसरवादी समझौते ने वामपंथियों की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का पहुंचाया। बड़े पैमाने पर इनके जनाधार का क्षरण हुआ। यही समय है जब भाकपा माले जैसा रेडिकल व संघर्षशील वामपंथी दल का उदय हुआ जो सामंतवाद विरोधी किसान आंदोलन की जमीन पर खड़े होकर वाम की स्वतंत्र दावेदारी के साथ सामने आया।

 
बिहार के इस चुनाव में पहली बार ऐसा हुआ जब 6 वामपंथी दल भाकपा, माकपा, भाकपा माले, एसयूसीआई, फारवर्ड ब्लॉक और आरएसपी एक मोर्चे के रूप में मैदान में थे। इस मोर्चे ने राज्य की सभी 243 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे। दोनों गठबंधनों के विरुद्ध प्रचार चलाया। पिछली विधान सभा में वामपंथी दलों का मात्र एक प्रत्याशी विजयी हुआ था, वहीं इस बार तीन प्रत्याशी विजयी हुए। ये सभी भाकपा माले के हैं। पूर्वी बिहार के बलरामपुर से महबूब आलम, मध्य बिहार के तेरारी से सुदामा प्रसाद तथा पश्चिम बिहार के दरौली से सत्यदेव राम जीते हैं। मिथिलांचल को छोड़कर बिहार के सभी क्षेत्रों से वामपंथ का प्रतिनिधित्व हुआ। कई सीटों पर वामपंथियों को दूसरा या तीसरा स्थान भी मिला। करीब 14 लाख के आस पास इस मोर्चे को मत मिला जो कुल मतों का चार प्रतिशत से अधिक है। राज्य में तीसरी राजनीतिक शक्ति के रूप में वामपंथ का उभार हुआ। रामविलास पासवान, जीतन राम मांझी और उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी से कहीं अधिक सीटें माले को मिली। जहां बिहार का चुनाव दो गठबंधनों के बीच गहरे रूप से ध्रुवीकृत हो गया, प्रचार माध्यम भी इससे बाहर नहीं देख पा रहे थे, सारी मर्यादा को ताक पर रखकर गलाकाट प्रचार और संसाधनों की होड़ मची थी तथा मतदाताओं का मानस भी इसी के अनुरूप ढ़ाला गया, ऐसे में वामपथी मोर्चे का प्रदर्शन न सिर्फ बड़े महत्व का है बल्कि इस मायने में ऐतिहासिक भी कि इसने वामपंथियों को एकताबद्ध किया। इससे वामपंथी कतारों में नया उत्साह भी देखा गया। जिस तरह बिहार में दोनों सत्ता गठबंधनों के विरुद्ध वामपंथियों की एकता बनी  इससे यह सोचा जा सकता है कि वामपंथी दल अपनी अतीत की गलतियों से सबक लेना शुरू किया है। अब उनके इस प्रदर्शन का मूल्यांकन कैसे हो ? इसे किस रूप में देखा जाय ? क्या यह वामपंथ का बिहार में पुनर्जीवन का संकेत है ?
 
बिहार चुनाव के जो फैसले आये, उसका खूब स्वागत हुआ। कहा गया कि यह मोदी सरकार के कामकाज और उसकी नीतियों के संदर्भ में जनादेश है। यह सही भी है कि फैसला नीतीश के ‘सुशासन‘ के पक्ष में कम मोदी सरकार के विरुद्ध ज्यादा है। मोदी के सत्तरह महीने के शासन काल में आम आदमी की परेशानियां बेइंतहा बढ़ी। जिन ‘अच्छे दिनों’ का वायदा किया गया था, वह तो नहीं आया, उल्टे समाज में सौहाद्र व सहिष्णुता को खत्म करने वाली हिन्दुत्ववादी ताकतें जरूर बेलगाम हुईं। इस दौरान माहौल को विषाक्त बनाने वाली खूब बयानबाजी हुई। दादरी जैसी घटनाएं अंजाम दी गईं। ‘विकास’ का राग अलापने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की चुप्पी या मौन समर्थन ने इनकी आक्रामकता को बढ़ाने का ही काम किया। पूरे चुनाव गाय, बीफ, आरक्षण जैसे मुद्दे छाये रहे। 
 
भाजपा ने जो किया, वह उसका चरित्र है। बिहार में उसकी मुख्य ताकत यहां की सामंती शक्तियां, समाज में उनके वर्चस्व, सांप्रदायिक सोच और दकियानुसी परंपराओं में निहित है। लेकिन ‘सुशासन‘ का दंभ भरने वाले नतीश बाबू का चरित्र ? पूरे चुनाव जातीयता व सांप्रदायिकता की हवा बहती रही। ‘अगड़े-पिछड़े’, ‘दलित-महादलित’, हिन्दू-मुस्लिम’, ‘मंडल-कमंडल’ का कार्ड जमकर खेला गया। ये नीतीश कुमार ही हैं जो भाजपा की हमजोली बनकर 17 सालों तक दिल्ली व बिहार में सत्ता का सुख भोगा। बिहार में सत्ता में आते ही रणवीर सेना पर अंकुश लगाने वाले अमीर दास आयोग को भंग कर दिया। भूमि सुधार के लिए बने डी बंद्योपाध्याय आयोग की सिफारिशों को ठण्डे बस्ते में डाल दिया। यह नीतीश बाबू का ‘न्याय’ रहा कि वह सही तरीके से साक्ष्य नहीं जुटा पाया जिसके कारण बाथे, बथानी टोला जैसे जनसंहार को अंजाम देने वाले अपराधी अदालत से छूट गये।  
 
जहां तक बिहार के औद्योगिक विकास की बात है, इस क्षेत्र में कोई बड़ा निवेश नहीं हो रहा है। जो उद्योग हैं, वे बंद पड़े हैं। कृषि ही नहीं उद्योग भी रुग्णता का शिकार है। इसकी वजह से बड़े पैमाने पर बिहार के श्रम का पलायन तथा दूसरे राज्यों में उनका निर्मम शोषण हो रहा है। इस संबंध में भाजपा हो या नीतीश कुमार कृषि हो या औद्योगिक क्षेत्र इनका आर्थिक मॉडल मनमोहन-चिदम्बरम मॉडल ही है। यह मॉडल रोजगारोन्मुखी नहीं है। बिहार को ऐसे मॉडल की जरूरत है जो रोजगार के अवसर सृजित करे और श्रम के पलायन को रोके। वहीं, भाजपा व नीतीश जिस विकास के मॉडल के हिमायती हैं, वह अन्ततः कॉरपोरेट पूंजी की लूट और श्रम के शोषण को बढ़ावा देता है।
 
सवाल है कि क्या जातीयता और सांप्रदायिकता की विभाजनकारी राजनीति के आधार पर बिहार का विकास संभव है ? छोटे मोटे सुधारात्मक कार्यों को अंजाम देना ही सुशासन है ? अखिरकार विकास और सुशासन की नीतियां समाज के किन लोगों को आधार बनाकर बनाई जायेंगी ? करोड़ों मेहनतकशों, हाशिए पर खड़े या लगातार हाशिए पर धकेले जा रहे लोगों की जिन्दगी में खुशहाली लाए बगैर क्या बिहार के विकास का दावा किया जा सकता है ? बिहार में वामपंथ इन्हीं सवालों से रू ब रू है। उसका दृढ़ मत है कि बिहार के स्वाभिमान की रक्षा तथा पिछड़ेपन से मुक्ति के लिए दोनों शासक गठबंधनों से छुटकारा पाना होगा और जनोन्मुख विकास के वैकल्पिक रास्ते पर आगे बढ़ना होगा। संयुक्त वाम दलों ने 21-सूत्रीय ‘बिहार के जनपक्षीय विकास का वैकल्पिक एजेण्डा’ पेश किया। इसमें भूमि सुधार से लेकर बिहार की शोषित-पीडित आबादी, गांव व शहर के मजदूर, बटाईदारों और किसानों, छात्र-नौजवानों और महिलाओं तथा शिक्षकों-कर्मचारियों, वकीलों-डाक्टरों – यानी, सभी मेहनतकशों के हितों और अधिकारों की रक्षा शामिल है। 
 
यह वामपंथ के लिए मात्र चुनावी एजेण्डा नहीं रहा है बल्कि यह वे मुद्दे हैं जिन्हें लेकर वामपंथी दल  संघर्ष चलाते रहे हैं। यही करण है कि मतों के भारी धु्रवीकरण और मीडिया की घोर उपेक्षा के बावजूद संघर्ष के इलाकों में लोग वामपंथ के साथ खड़े हुए। उनमें अपना विश्वास जताया। इन्हें मिलने वाला एक एक मत दोनों शासक गठबंधनों के विरुद्ध है। जैसा कि भाकपा माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्या का कथन है कि इस चुनाव में हमने जो मुद्दे उठाये हैं, वे नये नहीं हैं। इन मुद्दों को लेकर हम संघर्ष करते आये है और आगे भी संड़कों पर हमारा संघर्ष जारी रहेगा और विधानसभा के अन्दर हम संघर्षशील वाम विपक्ष की भूमिका में होंगे। निसन्देह संघर्ष की इसी जमीन पर खड़े होकर वामपंथ ने बिहार चुनाव में दस्तक दी है। संघर्ष की यह जमीन जितनी मजबूत होगी, वामपंथ भी उतना ही मजबूत होगा। बिहार में ऐसा पहली बार हुआ जब वामपंथी दल एकताबद्ध हुए, उन्होंने अपना ढ़ुलमुलपन का रवैया छोड़ा, लालू-नीतीश से उनका मोहभंग हुआ और बिहार की राजनीति में एक नये बिहार के सपने के साथ अपनी स्वतंत्र दावेदारी पेश की। इससे एक नये विकल्प की संभावना उभरी है। इस बार के चुनाव में बिहार की जमीन से उठी इस आवाज को जरूर सुना जाना चाहिए।  
Picture 004 (1)कौशल किशोर
फ – 3144, राजाजीपुरम, लखनऊ – 226017
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