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हिंदी….मन की या बेमन की

September 8, 2015 12:59 pm by: Category: ब्लॉग से Comments Off on हिंदी….मन की या बेमन की A+ / A-

दसवां विश्व हिंदी सम्मेलन अब इतने करीब आ गया है कि दिन गिनने के लिए उंगलियों की भी जरूरत नहीं है…करोड़ों रूपए खर्च कर हो रहे इस महा आयोजन के जरिए महिमामंडित होने के सिवा इस सम्मेलन से और क्या हासिल होगा ? महिमामंडित कौन होंगे ? आयोजक….आयोजन कराने वाले…या फिर इसका श्रेय लेने वाले…! जवाब तलाशना बेमानी है….चर्चा है कि मध्यप्रदेश के विदिशा संसदीय क्षेत्र से लोकसभा सदस्य विदेश मंत्री सुषमा स्वराज दक्षिण भाषी महानगर हैदराबाद में होने वाले इस आयोजन को भोपाल खींच लाईं। वजह! उनके निर्वाचन क्षेत्र विदिशा का भोपाल से सटा होना है।

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यदि विदिशा में इतनी तादाद में आ रहे विदेशी और देशी मेहमानों के आवागमन और रात्रि विश्राम का बंदोबस्त होता तो यकीनन यह महासम्मेलन सम्राट अशोक की ससुराल भेलसा यानी विदिशा में ही हो रहा होता। मजबूरी या मुसीबत में पड़ोसी ही काम आता है सो भोपाल ने यह भार उठा लिया। मन से या बेमन से! आखिर मामला मध्यप्रदेश से ताल्लुक रख रहीं नेता की पसंद का था इसीलिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी तमाम संसाधन झोंक दिए दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन को यादगार बनाने में।
यह सम्मेलन यादगार भी सिर्फ इसी मायने में है। क्योंकि मध्यप्रदेश की सरकारी और भारतीय जनता पार्टी की इवेंट मैनेजमेंट टीम (जी हां, यह शब्द भी प्रदेश की हिंदी में शामिल हो चुका है…आयोजनकर्ताओं के लिए)  को बड़े आयोजन सुरूचिपूर्ण ढंग से संपादित करने का तगड़ा अनुभव जो प्राप्त हो चुका है, बीते दस-बारह सालों में। खैर बात हिंदी की…इस आयोजन का उद्घाटन करने 10 सितंबर को भोपाल आ रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सम्मेलन से महज पांच दिन पहले बौद्ध गया में अंग्रेजी में गर्वीला भाषण दिया। ये वही मोदी हैं जिन्होंने विदेशी धरती पर जाकर संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी में भाषण देकर वाहवाही लूटी थी। आयोजन समिति की अध्यक्ष सुषमा स्वराज को भी हिंदी के अलावा अंग्रेजी में भाषण देने में आपत्ति नहीं होती। वित्त मंत्री अरूण जेटली को तो हिंदी की तुलना में अंग्रेजी ज्यादा अनुकूलता देती है। बात मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की…उन्हें हिंदी रास आती है…पर, उनके अफसर अंग्रेजी को ज्यादा महत्व देते हैं। यही वजह है कि हिंदी सम्मेलन से पहले भी ठीक उसी प्रकार के “हिंदी सेवा” के निर्देश जारी किये गये जैसे हर साल ‘हिंदी पखवाड़ा’ से पहले होते हैं। वेबसाइट को हिंदी में भी बनाएं। दुकान के बोर्ड और सड़क संकेतक को हिंदी में भी लिखें आदि इत्यादि….। पर क्या इतने से ही हिंदी सेवा हो जायेगी।
हिंदी को अपनाना है तो दिल से अपनाएं।सच्चे मन से। दिखावे के लिए नहीं। आज हिंदी सम्मेलन के लिए जो संकेतक अंग्रेजी और हिंगलिश से बदल कर हिंदी में लगाये गए हैं। सम्मलेन खत्म होने के बाद उनके बरकरार रहने की चिंता करें। वर्ना सितम्बर खत्म होते होते हिंदी प्रेम भी मानसून की तरह लुप्त हो जाएगा। सारे बोर्ड फिर इंग्लिश में नजर आएंगे। सरकारी फाइलों की तरह, जिनकी भाषा कोई नहीं बदल पाया। अंग्रेजों ने हिंदी बोलने वालों पर राज करने के लिए सिविल सर्वेन्ट्स की फौज खड़ी की थी जो आज भी गुलामी की भाषा को अपना गौरव समझती है। अफसर पुत्र कान्वेंट में शिक्षित होता है और नेता पुत्र भी। इनके लिए अमल की भाषा अलग और वोटबैंक को हांकने की भाषा अलग होती है। जब इतना भेदभाव…इतना परहेज…तो कल्पना कीजिए भला किसका होगा। चीन, जापान से लेकर रूस तक तो दकियानूसी देश हैं जहां के डॉक्टर, इंजीनियर और अफसर उनकी अपनी भाषा में बनते हैं। भारत में तो इम्पोर्टेड लेंग्वेज के बिना कोई डॉक्टर नहीं बन सकता। देशी भाषा पढ़ कर यहां वैद्य, ओझा, हकीम ही तैयार हो सकता है। कोई वैज्ञानिक और विशेषज्ञ नहीं…भले ही ये धरती धनवंतरि और आर्यभट्ट की हो।
सरकारी राष्ट्रभाषा विभाग में उन लोगों को जगह मिलती है जो अपनी बोली और भाषा के साथ हिंदी बोलना, लिखना और पढ़ना सीख गए। ये वही लोग हैं जिन्हें सालाना हिंदी पखवाड़े के दौरान नवाजा जाता है क्योंकि वो हिंदी जानते हैं। मतलब! हिंदी आत्मसात करने की नहीं बल्कि प्रदर्शन की चीज है…विषय वस्तु है। आत्मसात करने की सरकारी और उच्चवर्गीय भाषा तो इंग्लिश ही है। सुना है ठेठ हिंदी भाषी क्षेत्र से चुने जाने वाले देश के एक सर्वोच्च नेता के घर दिन भर इंग्लिश बोलने की अनुमति थी। बस रात्रि के भोजन के समय हिंदी में बात करना अनिवार्य था।
खैर ये आयोजन मध्यप्रदेश के जिम्मे आया है तो शानदार आवभगत की जाए अतिथियों की। तीन दिन ही सही हिंदी में बोलने का अभ्यास तो कर ही लें। बाद में तो बनारसी पान भंडार और अंग्रेजी शराब दुकान ही हिंदी में रह जाएगा, क्योंकि इनके ज्यादातर ग्राहक हिंदीभाषी हैं, सम्मेलन में आने वाले गणमान्य विद्वानों की तरह हिंदी सेवी नहीं। जो आम बोलचाल में भी बरतानिया की गुलामी करते हैं। विदेशी भाषा ही उनका मान है। सम्मान है। देशी तो सिर्फ चमड़ी है उनकी। उनके लिए ही तात्या टोपे नगर टीटी नगर हो गया और महाराणा प्रताप नगर एमपी नगर। इन शहीदों को यदि भान होता कि जिनके लिए उन्होंने अपना जीवन न्यौछावर किया वे उनका नाम भी नहीं संभाल सके …वो इंडियन, हिंदी और  हिंद को क्या संभालेंगे। देव भाषा संस्कृत की भांति विलुप्तता में ही देवनागरी लिपि वाली हिंदी का सम्मान है तो यही सही। चलो इसी बहाने ही गाहे बगाहे हिंदी बोली जाती रहेगी। इसी बहाने लोग कभी कभार कहते रहेंगे हिंदी है हम….!
ब्लॉग-प्रभु पटेरिया जी के ब्लॉग ताजा मसाला से 
प्रभु जी पत्रकार हैं  prabhu pateriya
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