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हिन्दू धर्म : एक जीवन दर्शन, ना कि एक विचारधारा

January 30, 2015 9:07 pm by: Category: ब्लॉग से Comments Off on हिन्दू धर्म : एक जीवन दर्शन, ना कि एक विचारधारा A+ / A-

भारतीय परम्परा और संस्कृति में शाश्वत जीवन मूल्यों को हीं ‘सनातन धर्म’ कहते हैं। कालान्तर में टिप्पणीकारों न इसे हीं ‘हिन्दू धर्म एवं दर्शन’ के नाम से संबोधित किया। आधुनिक काल में विचारधाराओं पर आधारित लिखित इतिहास में ‘हिन्दू’ एवं ‘धर्म’ के बारे में जनमानस में विकृत सोच पैदा की गयी। यदपि भारतीय चिंतन में धर्म, विचारधारा (Ideology) का नहीं अपितु जीवन दर्शन (Life Philosophy) का विषय है फिर भी जनमानस में इसे विचारधारा के रूप में हीं प्रस्तुत और प्रसारित किया गया। सभ्यता के इतिहास में शायद हीं किसी शब्द के साथ इतना छेड़-छाड़ किया गया हो जितना की “हिन्दू और धर्म” के साथ किया गया है। परिणामतः लोगों में अपनी हीं संस्कृति के प्रति भ्रम पैदा हुआ। कहना न होगा, यहीं भारतीय वैदिक समाज में हींन भावना पैदा करने, एवम विघटन का एक प्रमुख कारण रहा।

   

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 पुनः आधुनिक इतिहास साक्षी है कि कालक्रम में बाहरी आक्रान्ताओं के द्वारा भारतवर्ष का लूटपाट,धन का दोहन, तथा इस्लामिक एवं यवन सत्ता तंत्र ने भारतवर्ष का जितना नुकशान नहीं पहुँचाया उससे कहीं अधिक नुकशान विचारधाराओं पर आधारित  विद्यालयों एवम् विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाने वाला पाठ्यक्रम और उससे बनने  वाली मनोदशा  ने पहुंचाया।         

विचारधारा का हीं दुष्परिणाम है-आज पश्चिम बंगाल में आतंकवाद का मोड्यूल। एक समय राष्ट्रवाद, संस्कृति, कला तथा साहित्य के क्षेत्र में देश का गौरव बढ़ाने वाला राज्य हिंसा,लूट-पाट, तथा कुव्यवस्था का प्रतीक है। करीब -करीब यहीं हाल पुरे देश का है। सत्ता लोलुप दलों एवं नेतावों ने इसे पुरे देश में फैलाया। कहना न होगा कि गाँधी जी द्वारा खिलाफत आन्दोलन के विचारधारा को समर्थन देने से यह रोग स्थायी हो गया और साथ हीं राजनीति में तुष्टिकरण की भी शुरुवात हुई। देखते-हीं-देखते नेतावों के द्वारा इसका उपयोग जाति-वर्ग में भी किया जाने लगा।

  पुनः,आधुनिक कालखंड में भारतीयता को ‘तोड़-मरोड़’ कर प्रस्तुत करने के उत्तर्दायित्व जिस ‘विचारधारा’ ने किया उसे  सम्मिलित रूप से “वामपंथ” या साम्यवाद और मार्क्सवाद कहते हैं। जैसे-जैसे  वामपंथ नामक यह महामारी देश में फैलना शुरू हुआ,नाक्सलवाद,माओवाद,आतंकवाद,समाज एवं परिवार का विघटन तथा धर्मांतरण आदि जोरों से शुरू हो गया। वर्तमान NDA सरकार के स्वच्छ भारत अभियान का एक हिस्सा इस गन्दगी की सफाई भी होनी चाहिए।                                                         

आइये, अब भारतीय जीवन दर्शन में “हिन्दू” और “धर्म” अक्षर की विवेचना तथा ‘विचारधारा’ पर आधारित इसकी कुत्सित व्याख्या पर प्रकाश डालते हैं। वामपंथी इतिहासकारों ने तो हिन्दू और धर्म दोनों को अपनी प्रायोजित लेखनी में कुत्सित विवेचना की है। स्वतंत्रता के बाद व्यवस्था ने इन इतिहासकारों को  भारतीय राष्ट्रीय शैक्षिक संसथान  (NCERT) नामक संसथान बनाकर इसे मूर्त रूप दिया। प्राचीन भारत के इतिहास को लिखने वाले श्रीमती रोमिला थापर से लेकर स्व.श्री रामशरण शर्मा तक ने  वैदिक काल-खंड को मार्क्सवादी चश्मे से हीं व्याख्या किया है। श्री शर्मा ने तो उत्तर वैदिक काल,जिसका आधार उपनिषद् भी था, का बहुत हीं सतही व्याख्या किया है। इस महाशय ने यह बताया है कि “आत्मा”नामक कोई चीज नहीं है।आत्मा,  राजा का हीं समानार्थी  है। पुनः वे लिखते हैं कि दरअसल “आत्मा” की परिकल्पना ,एवं उसकी श्रेष्ठता, उपादेयता,को वैदिक ऋषियों ने इसलिए बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया है ताकि ‘राजा’ के महत्व को बनाये रखें। उनके अनुसार यह वो काल था जब राजा के खिलाफ वैश्य एवम् शूद्र विद्रोह करने लगे थे। परिणामस्वरूप ब्राह्मण तथा क्षत्रिय दोनों के सिहांसन हिलने लगा था। अतः इस परिस्थिति से निपटने के लिए ब्राह्मणों ने आत्मा की कपोल कल्पना की।          

  इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के उदभव एवं विकास की जो कहानी छात्र-छात्राओं को पढ़ाई जाती है,वह और भी निंदनीय है। भारतीय राष्ट्रीय शैक्षिक संसथान (NCERT)  द्वारा प्रकाशित इतिहास की पुस्तकों में भगवान् श्रीकृष्ण को एक चरवाहे से जनजाति नेता बनने, तदनन्तर भगवान बनने का चित्रण जैसा किया गया है। शास्त्रों का उदहारण देकर बताया गया है कि कैसे एक जनजाति नेता और चरवाहा  गुप्त साम्राज्य के द्वारा पोषित हिन्दुवाद के प्रचलन के साथ भगवान श्रीकृष्ण के रूप में प्रचलित हो जाता है। कहना न होगा कि इससे निश्चय हीं पढ़ने वालों के मन में अपनी धर्म और संस्कृति के प्रति घृणा का भाव होना तथा पश्चिमीकरण  के प्रति रुझान स्वाभाविक है। इन्हीं प्रायोजित इतिहस्कारों को मध्यकाल खंड के  शुरू तक   हिन्दू शब्द का प्रमाण नहीं मिलाता  है।                 

पुरातन शास्त्रों में, हिन्दू धर्म, सिन्धु धर्म तथा सनातन धर्म समान अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। वैदिक संहिताओं में ‘सिन्धु’ अक्षर के तीन अर्थ हैं-‘सिन्धु प्रदेश,’ ‘नदी एवं ‘महासागर।’  इस बहु-आयामी धर्म को वैदिक संहिता ऋग़वेद में  “एकं सद विप्रा बहुधा वदन्ति” के रूप में उदघोषित किया गया है। पुनः उत्तर वैदिक काल में लिखित, विश्व के प्रथम वैज्ञानिक ग्रन्थ पाणिनि द्वारा रचित अष्टाध्यायी ‘ में भी ‘हिन्दू’ अक्षर का विशद विश्लेषण है। हिन्दू अर्थात “हिंसाया दुयते या सः इति हिंदू” (जो हिंसा से दुखी होता हो वह हिन्दू है)।लेकिन प्रायोजित इतिहास लेखन के क्रम में वैदिक शब्दों का जब लौकिक अनुवाद किया गया तभी अर्थ का अनर्थ हो गया।

   दूसरी ओर, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कहीं भी सामाजिक विज्ञान में हमें यह नहीं पढाया जाता कि  10,000 वर्षों के लिखित इतिहास में भारत ने विश्व के किसी भी देश पर आज तक आकर्मण नहीं किया है। किसी भी देश को उपनिवेश नहीं बनाया, न हीं किसी देश का आर्थिक शोषण किया।  कभी भी यह प्रचार नहीं किया कि केवल हमारा धर्म ही सत्य और श्रेष्ठ है,और जो इसे नहीं स्वीकार करेगा उसे जीने का अधिकार नहीं है। पुनः 17 वीं शताब्दी  के अंत तक  वैश्विक व्यापार  में  हमारा हिस्सा सर्वाधिक था। हम ज्ञान, विज्ञान, रक्षा, विज्ञान, चिकित्सा  आदि के क्षेत्र  में अगुवा थे। प्रकृति,मानव जीवन  रहस्य तथा योग और अध्यात्म का ज्ञान दुनिया को भारत की सबसे बड़ी देंन  कहने का तात्पर्य है कि आधुनिक  भारत में हमारी पीढ़ी  को बड़े  हीं  युक्तिसंगत तरीके से इससे अलग रखा गया। परिणामस्वरूप देश का आत्मस्वाभिमान गिरा और लोगों में उद्यमिता का  ह्रास हुआ

 एक विद्वान ने कहा है कि संस्कृत के हिन्दू अक्षर से हीं अंग्रेजी का ह्यूमन (Human) शब्द बना है। अतः इसप्रकार हिन्दू धर्म मानव धर्म का हीं पर्याय है। केवल हिन्दू धर्म में हीं सम्पूर्ण मानवता के हित, सुख एवं स्वास्थ्य आदि की प्रार्थना के साथ उदघोषणा की गयी हैं: “लोक समस्ता सुखिनो भवन्ति।” “सर्वे भवन्ति सुखिनः। “एकं सद विप्रा बहुदा वदन्ति।” तथा “उदार चरितानाम तू वसुधैव कुटुम्बकम।” आपको अन्यत्र किसी भी पंथ में ऐसा नहीं मिलेगा। हमारे ही बंधुजनों ने भारतीय दर्शन में “आत्मा” के अस्तित्व को नकारा पर आज जब पश्चिम के वैज्ञानिकों ने ‘गॉड पार्टिकल’ की बात कि तो हम उसे प्रमाणिक मानने लगे।                              

हद तो तब हो गयी जब भारतीय संविधान में उल्लिखित रिलिजन शब्द का अनुवाद “धर्म” किया गया। यह सनातन परंपरा के साथ बड़ा अन्याय हुआ। यहाँ रिलिजन का अर्थ–मत,संप्रदाय या पन्थ होना चाहिए था । इसीप्रकार सेकुलरिज्म का अनुवाद धर्मनिरपेक्षता हो गया। यहीं से देश के अधोगति प्रारंभ हो गया। इसी के साथ यह भी प्रसारित किया गया कि हिन्दू दर्शन में धर्म का संसथागत स्वरुप स्पष्ट नहीं है। बात-बात में ‘मनु स्मृति’ को कोट किया जाता है।

 इसी स्मृति’ के श्लोक हैं “अहिंसा सत्यमस्तेयम  शौचम इन्द्रियनिग्रह:।  एतं सामासिकं धर्मं चातुर्वंण अब्रवीन्मनुह।।  अतः भारतीय चिंतन में ‘धर्मनिरपेक्ष’ का अर्थ हुआ कि हमारी उपर्युक्त मूल्यों अर्थात सत्य, अहिंसा, अस्तेय (भ्रष्टाचार द्वारा सम्पति सृजन नहीं करना), शौच (मन,शरीर,विचार,शब्द एवं कर्त्तव्य के स्तर पर पवित्रता), और इंन्द्रियनिग्रह(इन्द्रियों पर नियन्त्रण) का हमारे जीवन में कोई स्थान नहीं है। अब जरा सोचिये, धर्म अर्थात नैतिक मूल्यों के अस्तित्व के अभाव में समाज व देश की स्थिति  क्या होगी? ये वही मूल्य हैं जो ऐतिहासिक कालक्रम में “हिन्दू” के रूप में जाना गया। इसप्रकार अंग्रेजी शब्द हिंदूइज्म धर्म का हीं पर्याय है। भगवान श्रीकृष्ण ने भी गीता के अंतिम अध्याय में कहा है कि “यतो धर्मस्तोतो जयः।” अर्थात जहाँ धर्म है वहीँ विजय है। आज देश में धर्म के अभाव के कारण हीं रामराज्य के ऊपर रावणराज्य ने स्थान ले लिया है। 

संजय कुमार के ब्लॉग से

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