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68 गणतंत्र बाद भी सिसकता भारत

August 15, 2015 8:01 pm by: Category: ब्लॉग से Comments Off on 68 गणतंत्र बाद भी सिसकता भारत A+ / A-

68आजादी के अड़सठ साल बाद भी भारत अनेक ऐसी समस्याओं से जूझ रहा है जिनसे वह औपनिवेशिक शासन से छुटकारा मिलने के समय जूझ रहा था. अनेक ऐसी समस्याएं भी हैं जो आजादी के बाद पैदा हुई हैं और गंभीर से गंभीरतम होती जा रही हैं.

भारत को आजादी के साथ-साथ उपमहाद्वीप का बंटवारा भी मिला था जिसके मूल में हिन्दू-मुस्लिम समस्या का न सुलझ पाना था. सांप्रदायिक समस्या के कारण पाकिस्तान का निर्माण हुआ और उसी के कारण आज भी भारत सांप्रदायिकता को झेल रहा है. देश के भीतर इसका प्रतिफलन हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष और दंगों के रूप में होता है और देश के बाहर पाकिस्तान के साथ लगातार बने रहने वाले तनाव के रूप में.

आजादी के बाद स्वाधीन देश के संविधान का निर्माण किया गया जिसके तहत वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनाव और संसदीय लोकतंत्र की प्रणाली को स्वीकार किया गया. हालांकि यह भी बहुत श्रेय की बात है कि भारत में अधिकांश चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से हुए हैं, लेकिन इसके साथ ही यह भी सही है कि लोकतंत्र एक मूल्य के रूप में भारतीय समाज का अंग नहीं बन पाया है क्योंकि समाज आज भी जातियों में बंटा हुआ है और जातिव्यवस्था मूलतः समानताविरोधी है और ऊंच-नीच के पूर्वाग्रहों पर आधारित है. जातिवाद इन वर्षों में कम होने के बजाय बढ़ता ही गया है, उसी तरह से जैसे सांप्रदायिकता. यूं देखा जाए तो जातिवाद और सांप्रदायिकता की जड़ें एक ही मिट्टी में मजबूती पकड़ती हैं. आज भारत के सामने ये दो बहुत गंभीर समस्याएं हैं जिनका कोई तात्कालिक या दीर्घकालिक समाधान नजर नहीं आ रहा.

हालांकि आजादी मिलने के बाद के वर्षों में भारत ने बहुत अधिक आर्थिक और तकनीकी तरक्की की है, लेकिन आज भी उसकी गिनती विकसित देशों में नहीं की जाती. आर्थिक विकास का फल सभी को समान रूप से नहीं मिल पाया है, नतीजतन अमीर और गरीब के बीच की खाई और अधिक चौड़ी हुई है और धन कुछेक हाथों में केन्द्रित होता गया है. शिक्षा के क्षेत्र में उन्नति तो हुई है और भारत के कुछ शिक्षा संस्थान दुनिया भर में अपने उच्च स्तर के लिए जाने जाते हैं, लेकिन इसके साथ ही यह भी सही है कि प्राथमिक और माध्यमिक स्तर की शिक्षा की उपेक्षा की गई है. इस उपेक्षा के कारण शैक्षिक संरचना की नींव कमजोर रह गई है. इसी तरह सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में लगातार कमी आई है और इनमें हुए संकुचन के कारण इलाज कराना गरीब तो क्या, मध्यवर्ग के बूते के भी बाहर होता जा रहा है.
भ्रष्टाचार में भी लगातार वृद्धि होती गई है और इस समय वह पूरी तरह से बेकाबू हो चुका है. भ्रष्टाचार सरकार के उच्चतम स्तर से लेकर निम्नतम स्तर तक व्याप्त है. समाज का भी कोई क्षेत्र इससे अछूता नहीं बच सका है. बाजार सामाजिक और राजनीतिक जीवन का नियामक तत्व बन कर उभरा है और उपभोक्तावाद नया मंत्र बन गया है. राजनीति अब देशसेवा का माध्यम न होकर एक बहुत मुनाफा पैदा करने वाले उद्योग में बदल गई है. इसी के साथ राजनीतिक संवाद की जगह अब राजनीतिक संघर्ष ने ले ली है जिसके कारण लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं अवरुद्ध होती जा रही हैं.
लेकिन इसके साथ ही यह भी सही है कि इन अड़सठ सालों में भारत ने विश्व समुदाय के बीच एक आत्मनिर्भर, सक्षम और स्वाभिमानी देश के रूप में अपनी जगह बनाई है. सभी समस्याओं के बावजूद अपने लोकतंत्र के कारण वह तीसरी दुनिया के अन्य देशों के लिए एक मिसाल बना रहा है. उसकी आर्थिक प्रगति और विकास दर भी अन्य विकासशील देशों के लिए प्रेरक तत्व बने हुए हैं. स्वाधीनता दिवस के अवसर पर एक आम भारतीय भविष्य की चिंता करने के साथ ही वर्तमान पर गर्व भी कर सकता है.

ब्लॉग-कुलदीप कुमार 

सम्पादन-अनिल

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