मनुष्य विचारों का पुंज होता है और सर्व प्रथम मनुष्य के चित्त में विचार ही उभरता है। वही विचार घनीभूत होकर संस्कार बनते है और मनुष्य के कर्म रूप में परिणीति हो कर व्यष्टि और समष्टि सबके हित का कारक बनते है। यदि विचारों की परिपक्वता अपूर्ण रह गई तो परिणाम विपरीत होने लगतेहै। भारतीय महर्षियों ने विचारों की अनन्त उचाई छूने का प्रयास किया और इस विचार यात्रा में पाया गया कि सबसे उत्तम धर्म वही होगा जिसमें मनुष्यों के खिलने की समग्र संभावनाओं के द्वार खुले हो जिसे जो होना है वह हो और दूसरे के होने में बाधक न हो वल्कि साधक हो। इस प्रकार के सः अस्तित्व की विचार सारणी इस धरा-धाम पर सबकी संभावनाओं के द्वार खोलती है। और इस प्रक्रिया में टकराहट की कल्पना भी नही सः अस्तित्व सहज धर्म बन जाता है और सूत्रवद्धता सबके मूल में स्थापित हो जाती है।
ऋषियों की यह चिंतन शैली भारत के जन मन में घुल हुआ है,भारत की मानसिकता इसी प्रकार के समग्र सोच पर विकसित है। परोपकार ,अहिंसा ,करुणा ,क्षमा,दया ,आर्जव ,मृदुता,प्रतिभा इत्यादि अनेको प्रकार के फल इसी चिंतन वृक्ष पर सदियों से सदाबहार रूप में लदे रहते है। लम्बे गुलामी के कारण हमारी चिंतन धारा में भी गतिरोध पैदा हुआ और उस जीवन वृक्ष से नवीन सपने ढहता गया। इस दौरान एक अपूर्ण विचार भी हम पर थोपने का प्रयास हुआ. सामान्यतः ऐसा होता ही है बिजेता चाहे जितना भी पतित विचार या जीवन शैली का हो अपनी उन चिंजो को विजितों पर लादता ही है उसी में कुछ चाटुकार वृति के लोग विजेताओं के इस नए धर्म का गला फाडू स्वागत करने लगते है पश्चिम के चिंतको में एक अत्यंत ही प्रमुख नाम रेन्डेकार्ट ने यहाँ तक घोषणा कर दिया कि ईश्वर मर गया है विश्व में ईश्वर नाम को कोई चीज ही नहीं है। फेडरिकमित्से,कारलायल आदि विचारकों ने खण्डसह सोच को प्राथमिकता दी उनके कारण यह चिंतन ही पैदा नहीं हो पाया कि प्रकृति में कही एक सूत्रता भी है इस विचार ने अपनी पूरी ऊर्जा यह बताने में लगा दिया की व्यक्ति और समाज दो है। साधन और साध्य दो है। सृष्टि और परमेष्ठी दो है। देश और राष्ट्र दो है। राष्ट्र और विश्व दो है इत्यादि। इन द्वंदों के बीच वो यह भी कहते गए कि इनके लक्ष्य पूर्ति में विरोधाभाष भी है। इस तरह के अपूर्ण चिंतन शैली का भयंकर परिणाम यह हुआ की हीगेल नाम के विचारक ने यह विचार दिया की आगे बढे हुए लोग अनैतिक हो जाते है जो पीछे वालों की नैक्तिक्ता पर पलते है इसी प्रकार की अपूर्ण शैली पर कार्ल मार्क्स ने बुजुर्वा और सर्वहारा शब्द गढ़े। उन्मादी मानसिकता के इस सोच ने विश्व में राष्ट्र ,परिवार ,ग़ाँव ,देश इत्यादि संस्थाओ और भावनात्मक सम्वन्धों को मिटा कर एक नई रेखा खीचंनी शुरू की लगभग ६० वर्षो के भीतर अधिक से अधिक धरती को अपनी छतरी के नीचें ढका लेकिन क्या परिणाम हुआ ये सारे के सारे देश टूट गए वहा का समाज जीवन नष्ट भ्रस्ट हो गया वे लोग अब पेरोस्ट्राइका और ग्लासमोस्ट की छाँव खोज रहे है।
एक दूसरी विचार शैली ने पूंजीवाद का एक ऐसा नँगा रूप खड़ा कर दिया की वहा हर व्यक्ति एक दूसरे को ग्राहक समझने लगा हर आदमी अपने मॉल बढ़िया बता कर हर दूसरे को बेचा रहा है भले ही उसकी कोई सार्थकता न हो। इस भयंकर परिस्थिति में यह सोचने का विषय है कि मनुष्य केवल व्यापारिक सम्बन्धो के कारण जी रह है या मनुष्य का बल पूंजी है ? क्या मनुष्य केवल रोटी है ? जब इसकी जड़ो की ओर हम जाते है तो दिखाई देता है कि यह ओरिजिन ऑफ़ स्पेसिज तथा स्पेंसर वे तीन जीवन दिखाई देते है जिसमे कहा गया है कि सर्वाइकल ऑफ फिटेस्ट ,एक्सपोलाइटेशन ऑफ़ नेचर और स्ट्रिगल फार एजिस्टेंस ही मूल है यह बितण्डावाद इतना गहरा हो गया है की पूरा विश्व ही त्राहिमाम कर रहा है। युग पुरुष महामनीषी पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने सन १९६२ में श्री बद्रीशाह कुलधारिया की एक पुस्तक दैशिकशास्त्र पढ़ा पंडित जी ने दैशिकशास्त्र के जीवन मूल्यों के गुण सूत्र तो लाखो साल पुरानी परम्परा से चली आरहे श्री बद्रीशाह के अमृत वर्षा ने जीवन मूल्यों को फलने फूलने का अवसर दिया उसी शुभअवसर का अमृत फल एकात्म मानव दर्शन है।
लेखक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के शोधार्थी हैं