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 मदरसा शिक्षा पर बेतलब की राजनीति | dharmpath.com

Tuesday , 3 June 2025

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मदरसा शिक्षा पर बेतलब की राजनीति

महाराष्ट्र सरकार की ओर से मदरसा शिक्षा पर आया एक अहम फैसला व्यापक विमर्श का विषय है। सरकार का यह निर्णय बेहद संवेदनशील है। इस लिहाज से नहीं कि यह राजनीतिक फैसला है। यह बदलते भारत की एक कड़ी है। राज्य सरकार के इस निर्णय को राजनीति के पानी से गूंथना बेईमानी होगी और देश की एक पीढ़ी और कौम के साथ नाइंसाफी होगी।

महाराष्ट्र सरकार की ओर से मदरसा शिक्षा पर आया एक अहम फैसला व्यापक विमर्श का विषय है। सरकार का यह निर्णय बेहद संवेदनशील है। इस लिहाज से नहीं कि यह राजनीतिक फैसला है। यह बदलते भारत की एक कड़ी है। राज्य सरकार के इस निर्णय को राजनीति के पानी से गूंथना बेईमानी होगी और देश की एक पीढ़ी और कौम के साथ नाइंसाफी होगी।

देवेंद्र फड़नवीस सरकार के फैसले से राजनीतिक भूचाल मचना स्वाभाविक है, क्योंकि हमारे देश में राजनीति भी एक खेती बन गई है। जब सियासी जमीन खिसकने का अंदेशा होगा तो कांव-कांव तो होनी है।

सरकार के विचार में जिन मदरसा स्कूलों में औपचारिक शिक्षा के बजाय केवल धार्मिक शिक्षा दी जाती है, उन्हें स्कूल की श्रेणी से बाहर रखा जाएगा, यानी उन्हें सरकार और उसकी शिक्षा नीति के दायरे में नहीं रखा जाएगा।

सरकार के इस फैसले पर बवाल मचना लाजमी था, क्योंकि भाजपा को हिंदूवादी व्यवस्था की पोषक माना जाता है। फिर इस पर कांग्रेस और अल्पसंख्यक संगठनों की चुप्पी संभव नहीं थी। लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि हमारे देश में राजनीति सिर्फ खुद और दल के लिए की जाती है। यहां देश और उसका विकास गौण हो जाता है।

देश में धर्म और धार्मिक शिक्षा को लेकर ववाल उठते रहे हैं। खास तौर पर भाजपा शासित राज्यों और उसके फैसलों को लेकर। अभी योग दिवस पर भी बाबेला मचा था। हलांकि अभी तक इन फैसलों को किसी पर थोपा नहीं गया है। लेकिन इस पर राजनीति खूब होती है।

देश में किसी भी व्यक्ति, समुदाय, संप्रदाय, जाति, धर्म को लोगों को अपने रिती-रिवाज और रस्मों के साथ धर्म की पूरी स्वतंत्रता है। स्कूली शिक्षा को निश्चित तौर पर धर्म से परे रखना चाहिए। औपचारिक और धार्मिक शिक्षा में बड़ा अंतर है। हम धार्मिक शिक्षा के बलबूते आधुनिक युग में हम प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते हैं।

देशभर में हिंदू धर्म हो या इस्लाम, सभी के अपने धार्मिक शिक्षा केंद्र हैं। हमारे यहां काशी, मथुरा, अयोध्या और दक्षिण भारत में धार्मिक शिक्षा के कई केंद्र हैं। इसके अलावा दारुल उलूम जैसी संस्थाएं धार्मिक शिक्षा का केंद्र हैं।

जमीनी हकीकत है कि धार्मिक और औपचारिक शिक्षा के बीच कोई संबंध नहीं है। शिक्षा को लेकर राजनीति करना बेईमानी होगी। राज्य में 1890 मदसे पंजीकृत हैं, जिसमें 550 ने औपचारिक चार विषय अंग्रेज, गणित, विज्ञान की अनुमति दी है। फिर इस पर राजनीति करने की जरूरत क्या है।

मदरसा शिक्षा पर सिर्फ इसलिए राजनीति नहीं की जानी चाहिए कि यह फैसला एक भाजपा शासित राज्य महाराष्ट्र से आया है। इस पर गहता और गंभीरता से विचार करना समय की मांग है।

मुस्लिम परिवारों की आर्थिक और शैक्षिक स्थिति बेहद खराब हैं। आखिर यह स्थिति क्यों और कैसे है? यह अपने आप में बड़ा सवाल है। यह दौर धर्म के खूंटे से बंधने का नहीं है। दुनिया का कोई भी धर्म हमें दकियानूसी विचारों में नहीं बांधता। धर्म मानवता और विकासवादी विचारधारा की पूरी छूट देता है।

आज हम मंगलयान की दुनिया में प्रवेश करना चाहते हैं। हम ब्रहमांड और उसके रहस्यों को खोजना चाहते हैं। फिर यह मिशन हमारा कैसे कामयाब होगा। भारत निर्माण और मेक-इन-इंडिया का सपना कैसे पूरा होगा। स्वरोजगारोन्मुखी शिक्षा की ओर कदम कैसे बढ़ेगा?

देश की आईटी प्रतिभाओं का लाभ अमेरिका उठा रहा है। हम आईटी क्षेत्र में काफी लंबी उड़ाने भर चुके हैं। हमारा सबसे अधिक आयात खर्च पेट्रोलियम और आईटी पर है। हमारी युवा पीढ़ी दुनिया में अपनी तकनीकी और प्रतिभा का लोहा मनवा रही है। इस स्थिति में अगर हम शिक्षा को धार्मिक बंधनों से मुक्त नहीं करेंगे तो यह हमारी सबसे बड़ी भूल होगी और वक्त हमें माफ नहीं करेगा।

राज्य सरकार के फैसले में कोई बुराई नहीं दिखती। क्या हम सिर्फ धार्मिक शिक्षा देकर अपने बच्चों को आधुनिक दौड़ में शामिल कर सकते हैं? जहां पांच साल का बच्चा एंडायड मोबाइल और लैपटॉप चलाने की क्षमता रखता है, उस स्थिति में हम 19वीं सदी की बात कर ज्ञान और विकास की क्षमता का विनाश करना चाहते हैं। यह कहां तक उचित है? शिक्षा सबका मूल अधिकार है।

हमें ऐसी शिक्षा की जरूरत है, जिससे हमारी पीढ़ी अपने को आर्थिक स्वालंबी बना पाए। अपनी जरूरतों का पूरा खयाल रख पाए। हमें ऐसी शिक्षा से क्या मतलब, जिसका मूल उद्देय एक निश्चित सोच और चाहरदीवारी तक सीमित हो।

देश में धार्मिक शिक्षा के बजाय एकीकृत प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है। हम धार्मिक शिक्षा के बदौत आज के आधुनिक युग में प्रस्तिस्र्धा नहीं कर सकते। समाज में हमें ऐसी पीढ़ी का निर्माण करना है, जिसका अपना एक अलग वजूद हो। वैदिक और धार्मिक शिक्षा हमें खुला आसमान नहीं दिला सकती है। यह हमारे लिए सबसे विचारणीय बिंदु है। समय और जरूरत के मुताबिक अगर हम नहीं चलते हैं तो यह हमारे लिए बेहद चुनौती होगी।

दुनिया का चाहे कोई धर्म हो वह हमें नीति, नैतिकता और सदाचरण की शिक्षा दे सकता है। हम मदरसा और वैदिक शिक्षा से आगे नहीं बढ़ पाएंगे। हाल में आर्थिक और सामाजिक गणना की रिपोर्ट चौंकाने वाली है। देश की 35 फीसदी ग्रामीण आबादी आज भी अशिक्षित है। इस स्थिति में हम क्या सोचते हैं कि हम धार्मिक और परंपरागत शिक्षा से आधुनिक व्यवस्था में फिट बैठ सकते हैं, यह हमारी सबसे बड़ी भूल है।

धार्मिक मौलिकता सबका सबक अधिकार है। सबका शिक्षित होना और रोजगार पाना भी हमारी सरकारों का दायित्व है। शिक्षा किसी भी राष्ट और समाज की उन्नति के लिए अहम कड़ी है। शिक्षा पर हमें राजनीति बंद करनी चाहिए। संवेदनशील मसलों पर हम राजनीति कर राष्ट्रीय नुकसान करते हैं।

इस तरह का मसला बहस का केंद्र बनना चाहिए। राजनीति के लिए केवल विरोध उचित नहीं है। यह चिंता और चिंतन का विषय है। मदरसा शिक्षा पर महाराष्ट्र सरकार ने जो फैसला लिया है, उस पर ज्यादा बहस की जरूरत नहीं है।

सरकार ने मदरसों को बंद करने को कोई फरमान नहीं सुनाया है। बस औपचारिक विषय न पढ़ाने वाले मदरसे सरकारी सुविधा के हकदार नहीं होंगे। इसमें कोई बडी बात नहीं है। सरकार का फैसला गलत नहीं लगता है। रोजगार परक शिक्षा सब की जरूरत है। कांग्रेस को संवदनशील मसलों पर पर राजनीति से बाज आना चाहिए। जिन मदरसों ने औपचारिक विषय पढाने का फैसला किया है। वह उसी की सरकार में हुआ था। इस पर उसे विचार करना चाहिए। मदरसा शिक्षा पर राजनीति बंद होनी चाहिए। (आईएएनएस/आईपीएन)

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