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 बुंदेली नृत्य में मिलती वीरता की झलक (फोटो सहित) | dharmpath.com

Tuesday , 3 June 2025

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बुंदेली नृत्य में मिलती वीरता की झलक (फोटो सहित)

झांसी की रानी और आल्हा-ऊदल की भूमि वाले बुंदेलखंड का इतिहास जहां शूरवीरता की कहानियों से भरा पड़ा है, वहीं इसका सांस्कृतिक पहलू भी बेजोड़ है। बुंदेलखंड की लोक संस्कृति भारतीय कला का वह हिस्सा है, जिसके हर पहलू से मिट्टी की सोंधी महक आती है। इन नृत्यों को पेश करने वाले लोक कलाकार जहां देश-विदेश में अपनी कला की धाक जमा चुके हैं, वहीं अपनी ही जमीन बुंदेलखंड में इसका वजूद बनाए रखने के लिए इन्हें संघर्ष करना पड़ रहा है।

झांसी की रानी और आल्हा-ऊदल की भूमि वाले बुंदेलखंड का इतिहास जहां शूरवीरता की कहानियों से भरा पड़ा है, वहीं इसका सांस्कृतिक पहलू भी बेजोड़ है। बुंदेलखंड की लोक संस्कृति भारतीय कला का वह हिस्सा है, जिसके हर पहलू से मिट्टी की सोंधी महक आती है। इन नृत्यों को पेश करने वाले लोक कलाकार जहां देश-विदेश में अपनी कला की धाक जमा चुके हैं, वहीं अपनी ही जमीन बुंदेलखंड में इसका वजूद बनाए रखने के लिए इन्हें संघर्ष करना पड़ रहा है।

बुंदेलखंड के नृत्यों की विशेषता और उसके ऐतिहासिक व सांस्कृतिक पहलू पर नजर डालें तो शौर्य, पराक्रम और वैभव की दास्तान लिखने वाले बुंदेले जितना रण के मैदान में दुश्मनों को धूल चखाने में माहिर थे, उतना ही संस्कृति के दीवाने। यहां तक कि युद्ध के दौरान अपनी सेना की हौसलाअफजाई के लिए भी लोक कला से जुड़े संगीत और नृत्यों का सहारा लिया जाता था और जीत का जश्न भी पारंपरिक लोक उत्सवों के जरिए मनाया जाता था।

देश-विदेश में बुंदेलखंड के नृत्यों का प्रदर्शन कर चुके और युवा पीढ़ी को इस विरासत को सौंपने वाले मुरारी लाल पाण्डेय कहते हैं, “राई नृत्य बुंदेलखंड की इसी समृद्धशाली लोक कला का बेजोड़ नमूना है। ये नृत्य राजाओं की युद्ध की जीत के बाद जहां बेड़नियां करती थीं। वहीं इसमें बुंदेली संस्कृति और पर्दा प्रथा की साफ झलक मिलती है। लोक मर्यादा के चलते लंबा घूंघट डाले इन महिलाओं का चेहरा जहां कोई देख नहीं सकता है वहीं इस राई नृत्य की खासियत इसका पारंपरिक पहनावा और गहने भी हैं।”

बुंदेली शैली के इस नृत्य को देखकर जहां 1978 में तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी, प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और गृह मंत्री चैधरी चरण सिंह भी इसकी तारीफ करते नहीं थके थे, वहीं पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और सोनिया गांधी तो त्रिमूर्ति भवन में इस कलाकारों के साथ जमकर थिरके भी थे।

बुंदेलखंड के लोक नृत्यांे में एक और अहम नृत्य है- ‘सैरा’। इस नृत्य के बारे में कहा जाता है कि पांडव अपने अज्ञातवास के दौरान बुंदेलखंड के सहरिया आदिवासियों के संपर्क में आए थे। जहां से यह नृत्य बुंदेलखंड की संस्कृति में समाहित हुआ।

सूखे से कराहते बुंदेलखंड के लोग आज भी इंद्र देव को रिझाने के लिए मोरपंख लगाए इस नृत्य को करते हैं। नृत्य के समय नर्तकों के हाथ में मोर पंखुड़िया होती हैं और वे वृत्ताकार घेरे में घूमते हंै। नर्तक समूह के केंद्र में ढोलवादक बेहद तेज गति से ताल देकर नर्तकों को उत्प्रेरित करता है। इस नृत्य में बुंदेली लोकगीतों की प्रस्तुति भी की जाती है।

सैरा नृत्य राष्ट्रीय नृत्यों में शामिल भी है। वहीं सैरा नृत्य का एक अहम हिस्सा ‘मौनी सहरा’ भी है। इसके करने वाले मौन धारण करके 12 गांव को घेरते हुए नृत्य करते हुए टोलियों के रूप में निकलते हैं और जब तक सभी गांव घेर नहीं लिए जाते, तब तक पानी नहीं पीते।

बुंदेलखंड के चाहे राई नृत्य की बात करें, या फिर सैरा और मौनी सैरा, हर नृत्य में जहां प्रकृति से जुड़ा होने के कारण श्रंगार रस प्रधान होता है, वहीं इनमें गायी जाने वाली विधाएं ख्याल और फाग भी इसकी उपस्थिति को और अहम बनाती हैं। इन सबके बीच बुंदेली नृत्यों को सबसे ज्यादा वाहवाही जिन चीजों की बदौलत मिलती है, वह हैं यहां के पारंपरिक वाद्य यंत्र। इन वाद्य यन्त्रों को बजाने वाले कलाकार अब गिने चुने ही रह गए हैं, लेकिन अपनी उपेक्षा के कारण वह भी बेहद दुखी हैं।

वाद्य यंत्र कलाकार डमरू लाल कहते हैं, “बुंदेलखंड की ये मूल कला है लेकिन सरकार इस ओर ध्यान नहीं दे रही है, जिसमें सैरा को तो राष्ट्रीय नृत्य तक में शामिल किया गया है, लेकिन उपेक्षा के चलते हम कलाकारों की सुध लेने वाला कोई नहीं है जिससे हम लोग परेशान हैं। हम लोग पूरी कोशिश करते हैं कि हमारी यह संस्कृति रहे। यह सारा नृत्य साज के ऊपर निर्भर करता है। नगड़िया, ढ़ोलक पर लड़कियां नाचती हैं। जैसे-जैसे साझ की गति बढ़ती है उसी तरह से ये लोग भी अपनी गति बढ़ाते हुए नृत्य करती हैं।”

लेकिन इतने सबके बावजूद देश विदेश में बुंदेली कला की धूम मचाने वाले ये लोक कलाकार अपनी जमीन पर उपेक्षित हैं। इस विलुप्त होते लोक नृत्य को संरक्षित करने के लिए ये कलाकार आज संघर्ष कर रहे हैं। इन लोक नृत्यों के धीरे-धीरे अतीत की यादों में खोने का एक अहम कारण बुंदेलखंड में लंबे समय तक रही राजाशाही और जमींदारी प्रथा के दौरान इनका दोहन भी है। इसके अलावा बदले दौर में पाश्चात्य संस्कृति की आंधी में कहीं यह सुंदर कला दम न तोड़ दे, इसके लिए अपने टूटे-फूटे संसाधनों में ये लोक कलाकार अपनी कला को संरक्षित करने में लगे हुए हैं।

राई नृत्य कलाकार रेवती सिसोदिया बताती हैं, “ये नृत्य विलुप्त न हो जाएं इसके लिए हम प्रयास कर रहे हैं और इस नृत्य को सिखाते भी हैं।”

रेवती कहती हैं कि बुन्देलखण्ड में ये नृत्य हम खुशी के मौकों पर और त्योहारों पर करते हैं। इसमें जो विधाएं हैं, ख्याल, फाग ये गाये जाते हैं। इनमे रंगों का भी मिश्रण होता है और नगड़िया, शहनाई, मजीरा इस नृत्य में सहायक रहते हंै। इस नृत्य में बुंदेलखंड की खुशबू को महसूस किया जा सकता है। (आईएएनएस/आईपीएन)

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