प्रशासन ने हालांकि मांस मंडी को शहर से बाहर कर भी दिया है, पर दुकानदार अपनी जमी-जमाई दुकानें छोड़कर नहीं जाना चाहते हैं।
स्थानीय निवासी पुष्पेन्द्र गुप्ता (35) ने कहा, “दुकानों का कचरा सड़कों पर फेंक दिया जाता है, जिसके कारण लोगों को काफी परेशानी होती है।” उन्होंने इन दुकानों को तीज-त्योहार के दौरान बंद करने की भी मांग की।
मंडी के विरोध में तेजेंद्र पाटकर (38) कहते हैं कि उनके दो भाइयों को इस गंदगी के कारण ब्लड फ्लू की बीमारी हुई थी। भूख हड़ताल पर बैठे नीरज रावत भी इन दुकानों को स्थानान्तरित करने की मांग करते हैं।
आंदोलनकारियों का यह भी कहना है कि नगर पालिका ने नगर प्रशासन को मंडी की 13 पंजीकृत दुकानों को नगर से बाहर स्थापित करने का आदेश दे दिया है, पर नगर प्रशासन की ओर से इस दिशा में कोई काम नहीं हो रहा है।
दरअसल, शहर से दूर बनी 13 दुकानों में कोई दुकानदार नहीं जाना चाहता है। यहां मांस की दुकान चला रहे रईस अली (45) कहते हैं, “मंडी में मांस की कुल 120 दुकानें हैं, जबकि हमें कुल 13 दुकानें दी गई हैं। हमारी मांस मंडी में मांस, मछली और बीफ सब मिलता है। अब इतना सब कुछ कैसे इन 13 दुकानों में बिक सकता है?”
मंडी के दुकानदारों में भी कुछ तो नई जगह जाना चाहते हैं, पर बिना जरूरी सुविधाओं के नहीं। लेकिन कुछ लोग उन दुकानों में नहीं जाना चाहते, क्योंकि वे सोचते हैं कि नई दुकानें मरघट के पास हैं, इस कारण ग्राहक वहां जाना पसंद नहीं करेगा। दुकानदार नई जगह में सुरक्षा के लिहाज से भी नहीं जा रहे हैं, क्योंकि वह सुनसान जगह पर है।
मांस दुकानदार संदीप कुशवाहा (24) गुस्से में कहते हैं, “मैं अपने घर को चलाने वाला अकेला इंसान हूं। दुकान हटने से मुझे बहुत नुकसान होगा।”
इस मुद्दे के सांप्रदायिक रंग लेने की बात पर वह कहते हैं, “दुकान चलाने वाले सिर्फ मुसलमान नहीं हैं, बल्कि हिन्दू भी हैं।”
संतराम वर्मा (38) भी इस मामूली बात को सांप्रदायिक रंग देने की बात कहते हैं। वह इस मुद्दे को ‘ग्रीन महोबा, क्लीन महोबा’ का नारा देने की बात बताते हैं, जो इस हड़ताल का नारा है। पर क्या इन मांस विक्रेताओं को शहर से हटाने मात्र से महोबा साफ हो जाएगा? यह सवाल सभी व्यापारी उठा रहे हैं।
इस मामले में महोबा के एसडीएम प्रबुद्ध कुमार का कहना है, “अभी जितनी दुकानें उपलब्ध हैं, दुकानदार उनमें जाएं, फिर बाकी दुकानें भी बनाई जाएंगी।”