Deprecated: Function get_magic_quotes_gpc() is deprecated in /home4/dharmrcw/public_html/wp-includes/load.php on line 926

Deprecated: Function get_magic_quotes_gpc() is deprecated in /home4/dharmrcw/public_html/wp-includes/formatting.php on line 4826

Deprecated: Function get_magic_quotes_gpc() is deprecated in /home4/dharmrcw/public_html/wp-includes/formatting.php on line 4826

Deprecated: Function get_magic_quotes_gpc() is deprecated in /home4/dharmrcw/public_html/wp-includes/formatting.php on line 4826
 ‘अन्नदाता’ के पेट पर लात कब तक? | dharmpath.com

Monday , 26 May 2025

ब्रेकिंग न्यूज़
Home » धर्मंपथ » ‘अन्नदाता’ के पेट पर लात कब तक?

‘अन्नदाता’ के पेट पर लात कब तक?

एक प्रचलित कहावत है कि ‘किसी के पेट पर लात मत मारो भले ही उसकी पीठ पर लात मार दो।’ मगर इस देश में आज से नहीं, सदियों से, गुलामी से लेकर आजादी तक, पाषाण युग से लेकर आज वैज्ञानिक युग तक, बस एक ही काम हो रहा है और वह काम यह है कि हम अपने अन्नदाता, अपने पालनहार, किसान के पेट पर लात मारते ही चले जा रहे हैं।

एक प्रचलित कहावत है कि ‘किसी के पेट पर लात मत मारो भले ही उसकी पीठ पर लात मार दो।’ मगर इस देश में आज से नहीं, सदियों से, गुलामी से लेकर आजादी तक, पाषाण युग से लेकर आज वैज्ञानिक युग तक, बस एक ही काम हो रहा है और वह काम यह है कि हम अपने अन्नदाता, अपने पालनहार, किसान के पेट पर लात मारते ही चले जा रहे हैं।

आखिर इस अन्नदाता का दोष क्या है? यही न कि वह अपने हाथ से इस देश की 100 करोड़ आबादी को निवाला खिला रहा है। जिस पालनहार की पूजा होनी चाहिए, इबादत होनी चाहिए, उसका स्वागत सम्मान होना चाहिए, उस किसान के पेट पर लात मारी जा रही है। आखिर कब तक चलेगा यह दौर? और क्यों चलेगा?

सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी पेट पर लात खाने वाला यह किसान यदि जग गया, यदि कहीं संगठित हो गया तो परिणाम क्या होगा? क्या कभी सोचा है किसी ने? नहीं सोचा है तो अब सोच लो, अभी भी समय है, अपने अन्नदाता के सब्र का बांध टूटा नहीं है, यदि सब्र का बांध टूट गया, तो निश्चित ही प्रलय होगी। इसके अलावा और कोई दृश्य दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा है।

जिस जमीन पर किसान खेती कर रहा है, उसका लगान सरकार तय करती है। जिस बीज को किसान बो रहा है, उसकी कीमत बीज कंपनी तय करती है, जिस खाद को किसान प्रयोग कर रहा है, उसकी कीमत खाद कंपनी तय करती है, जिस ट्रैक्टर से किसान खेत जोत रहा है, उस ट्रैक्टर की कीमत ट्रैक्टर कंपनी तय करती है, उसमें पड़ने वाले डीजल की कीमत सरकार तय करती है, ट्यूबवेल, बिजली की कीमत बिजली विभाग तय करता है, खेती में काम आने वाले अन्य उपकरणों जैसे फावड़ा, कुदाल, थ्रेसर, चारा मशीन, ट्रैक्टर ट्राली आदि उन सबकी कीमत निर्माता कंपनी तय करती है। मगर विडंबना यह है कि किसान की फसलों की कीमत कोई और तय करता है। यह अधिकार किसान को क्यों नही है? वह इस अधिकार से वंचित क्यों है?

जो किसान दूसरों के मनमानी तरीके से तय कीमतों के अनुसार बीज, खाद, पानी का भुगतान कर अपनी खून पसीने की गाढ़ी कमाई से करता है, उस किसान को अपनी फसल की कीमत स्वयं निर्धारित करने का अधिकार क्यों नहीं है?

जब जूता बनाने वाली कंपनी अपने जूते की कीमत 399 रुपये 99 पैसे निर्धारित कर सकती है और उसमें से एक नया पैसा भी कम नहीं करती है, तो फिर किसान बेचारा भगवान भरोसे, खुदा भरोसे, गुरुनानक के भरोसे, प्रभु यीशु के भरोसे क्यों हैं? बाकी सब तो अपने-अपने भरोसे हैं। वे कीमत निर्धारित करते समय न भगवान से डरते हैं, न खुदा से डरते हैं, न गुरु नानक से डरते हैं और न ही प्रभु यीशु से डरते हैं।

वहीं दूसरी ओर, जिस फसल को किसान अपनी जान से भी अधिक सहेजकर रखता है, न दिन देखता है, न रात देखता है, न सर्दी देखता है, न गर्मी देखता है, न बरसात देखता है, न तूफान देखता है, न धूप देखता है, न छांव देखता है, घड़ी और घंटा देखने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है। दिन-रात, चौबीस घंटे, बीवी और बच्चों व परिवार के अन्य सदस्यों के साथ जुटा रहता है खेत खलिहान पर!

इतने अथक परिश्रम के बाद जब वह फसल को देखता है तो देखते ही देखते उसके सपने तार-तार हो जाते हैं। वातानुकूलित कक्षों में बैठने वाले किसान की मेहनत की कीमत तय करते हैं, उनकी नजर में एक गेहूं का दाना बोओ तो सौ गेहूं उगेंगे, ऐसी हवाई सोच रखने वाले गेहूं की कीमत क्या जाने? जानता तो वह है जो उसे पैदा करता है। तो फिर पैदावार करने वाले को कीमत निर्धारित करने का अधिकार क्यों नहीं? आखिर क्यों इस अधिकार से किसान को वंचित किया जा रहा है?

जब हमारा देश कृषि प्रधान देश है, अर्थात इस देश की अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर है। फिर भी कृषि को उद्योग का दर्जा क्यों नहीं दिया जा रहा है। वह इसलिए कि यदि कृषि को उद्योग का दर्जा दे दिया गया तो किसान को अपनी फसल की कीमत स्वयं निर्धारित करने का अधिकार होगा।

फिर इन आढ़तियों के पल्लेदारों व सरकार के पल्लेदारों का क्या होगा? उनके अरमान कैसे पूरे होंगे? उन अफसरानों का क्या होगा जिन्हें आज किसान के पसीने से बदबू आती है। किसान के अंदर प्रवेश करते ही उन्हें बाहर बैठने का हुक्म दे दिया जाता है।

बस यही कुछ ऐसे चंद पहलू हैं जो कृषि को उद्योग के दर्जा मिलने में बाधक हैं। ऊपर से तुर्रा यह कि कृषि को उद्योग का दर्जा मिलते ही आसमान फट पड़ेगा। किसान भूखों मरने लगेगा, क्योंकि किसान पर टैक्स का बोझ लद जाएगा। अब इन हवाई अफसरों से कौन पूछे कि भइया आज किसान किस टैक्स से मुक्त है? वह आज जितनी भी अपनी आवश्यकताओं की वस्तु खरीदता है, उन सभी पर वह टैक्स देता है। हां, एक टैक्स से बचने का किसान को दिवास्वप्न अवश्य दिखाया जा रहा है और वह है ‘इनकम टैक्स’ यानी कृषि इनकम टैक्स से मुक्त है।

अब इन नुमाइंदों से कौन पूछे कि जब किसान को इनकम होगी, तभी तो वह टैक्स देगा। न बदन पर कपड़ा है, न पैर में जूते हैं, कृषकाय शरीर लिए किसान बेचारा पहले से ही कर्ज के बोझ से दबा हुआ है। यही सिलसिला पीढ़ी दर पीढ़ी, सात पीढ़ियों से चला आ रहा है।

वह चाहे महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद का ‘सवा सेर गेहूं’ वाला किसान हो या फिर आज मुझ जैसे फटीचर लेखक हरिओम शर्मा का ‘ट्रैक्टर वाला किसान’ हो, मगर दोनों की कहानी एक ही है। तब भी किसान के पेट पर लात मारी जा रही थी और आज भी किसान के पेट पर लात मारी जा रही है।

मगर सब्र की भी एक सीमा होती है जनाब! कहीं इस अन्नदाता के सब्र का बांध टूट न जाये। यदि ऐसा हुआ तो फिर प्रलय के प्रकोप से इस देश को कोई नहीं बचा सकता है, स्वयं अन्नदाता भी नहीं। (आईपीएन/आईएएनएस)

‘अन्नदाता’ के पेट पर लात कब तक? Reviewed by on . एक प्रचलित कहावत है कि 'किसी के पेट पर लात मत मारो भले ही उसकी पीठ पर लात मार दो।' मगर इस देश में आज से नहीं, सदियों से, गुलामी से लेकर आजादी तक, पाषाण युग से ल एक प्रचलित कहावत है कि 'किसी के पेट पर लात मत मारो भले ही उसकी पीठ पर लात मार दो।' मगर इस देश में आज से नहीं, सदियों से, गुलामी से लेकर आजादी तक, पाषाण युग से ल Rating:
scroll to top