अरुणा शानबाग यानी दर्द और इंसानी दरिंदगी का एक इतिहास खत्म हो चला। अब उनकी जिंदगी से जुड़ी घटना एक कहानी में तब्दील हो गयी है। इंसानी सोच और हमारी व्यवस्था ने अरुणा को इन 42 सालों में जो चोट पहुंचायी। यह पीड़ा उसके साथ हुए हादसे से भी बड़ा था। वह कौन और क्या थी। उससे जानने में हमारी एक पूरी पीढ़ी पैदा होने के बाद अपनी जिंदगी की सीढ़ियां चढ़ अधेड़ उम्र की दहलीज पर जा पहुंची लेकिन उसकी कहानी से रुबरु नहीं हो सकी। यह हमारे लिए और चिंता और चिंतन का सवाल हैं।
अरुणा शानबाग यानी दर्द और इंसानी दरिंदगी का एक इतिहास खत्म हो चला। अब उनकी जिंदगी से जुड़ी घटना एक कहानी में तब्दील हो गयी है। इंसानी सोच और हमारी व्यवस्था ने अरुणा को इन 42 सालों में जो चोट पहुंचायी। यह पीड़ा उसके साथ हुए हादसे से भी बड़ा था। वह कौन और क्या थी। उससे जानने में हमारी एक पूरी पीढ़ी पैदा होने के बाद अपनी जिंदगी की सीढ़ियां चढ़ अधेड़ उम्र की दहलीज पर जा पहुंची लेकिन उसकी कहानी से रुबरु नहीं हो सकी। यह हमारे लिए और चिंता और चिंतन का सवाल हैं।
अरुणा और मणिपुर की इरोम चानू शर्मिला का संघर्ष एक जैसा है। उन्हें भी सशस्त्र बल अधिकार अधिनियम 1958 को लेकर कई सालों तक एक कमरे में गुजारना पड़ा। वह भूख हड़ताल पर थी। बाद में उन्हें 14 सालों बाद 2014 में निचली अदालत के आदेश पर रिहा किया गया। लेकिन मानवाधिकार को लेकर उनका संघर्ष जारी है। तीनों हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था कानूनी ढील और उसकी खामियों की शिकार हैं।
कानून ने किसकी कितनी मदद की है। यह अपने आप में जगजाहिर है। अरुणा तो जिंदगी से लड़ती इस दुनिया से अलविदा हो गयी लेकिन खुद को न्याय नहीं दिला पायी। उसका संघर्ष इतना मजबूत नहीं था कि वह अपनी आवाज को दिल्ली तक पहुंचा सकती लेकिन इरोम का संघर्ष जारी है। अब उन्हें जीत मिलती है कि नहीं यह वक्त बताएगा। निर्भया को भी अभी तक न्याय नहीं मिल पाया है।
हालांकि 42 सालों के संघर्ष बाद अरुणा देश के कानून और इंसाफ को भले न झकझोर सकी हो लेकिन उसकी छोटी बेटी या बहन निर्भया ने कोमा में पड़े रहने की स्थिति में उसकी जिम्मेदारी निभायी। वह इस दुनिया से भले अलविदा हो गयी। लेकिन महिलाओं की आबरु लूटने वालों के लिए कानून की सख्त जंजीर बना गयी। हालांकि उसे भी अभी न्याय के लिए भटकना पड़ा है। उसकी आत्मा और इंसाफ पाने के लिए भटक रही है। उसका संघर्ष कितना कामयाब होता है। अभी इसकी परीक्षा होनी है।
देश का कानून तो अरुणा के दरिंदे को सजा नहीं दिला सका। ठीक ऐसा ही कुछ निर्भया मामले में भी होता दिखता है। दो साल से अधिक का वक्त गुजरने के बाद भी दरिंदों को उनके गुनाहों की सजा नहीं मिल सकी है लेकिन ईश्वर ने छह आरोपियों में दो को स्वयं सजा दे डाली है। उन्होंने खुद फांसी लगा अपनी जिंदगी खत्म कर ली है।
मौत के पहले अरुणा को उतने लोग नहीं जानते थे, शायद जितने मौत के बाद। मुंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल यानी केईएम में 42 सालों तक जिंदा लाश बनी थी। वह अपने साथ हुए हादसे के बाद कोमा में चली गयी। इस दरम्यान मीडिया में उसकी जिंदगी की दास्तां कभी सुर्खिया नहीं बनी। लेकिन जब दुनिया से इंसानी हैवानियत की पीड़ा के साथ अरुणा अलविदा हो गयी तो उनकी कहानी मीडिया की सुर्खियां बनी।
यह सवाल कितने अफसोस और चिंता की बात है। हमारी मीडिया और व्यवस्था के लिए यह विमर्श का सवाल है। हम विजन नहीं बना पा रहे हैं। मीडिया किसी घटना को टीआपी के तौर पर अपनाती हैं। उस पर गंभीर विमर्श नहीं छेड़ती है। अरुणा की जिंदगी से जुड़ी अनकही कहानी को पहले कभी इतनी जिंदादिली से नहीं चलाया गया।
सवाल यह भी था कि तब समाज इतना जागरुक नहीं था। संचार क्रांति में मीडिया की भूमिका इतनी ताकतवर नहीं थी। जिसके कारण इस घटना को उतनी तवज्जों नहीं मिल सकी जितनी की मिलनी चाहिए। लेकिन जब मीडिया मजबूत और शक्तिशाली है उसके बाद भी उसने अरुणा को लेकर सरकार पर दबाब बनाने का काम नहीं किया। हालांकि महिलाओं में अपने अधिकारों को लेकर जागरुकता आयी। कम से कम निर्भया कांड के बाद अरुणा की सुध लेनी चाहिए थी। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ।
देश की एक पीढ़ी तब नवजात थी जब अरुणा के साथ यह दरिंदगी हुई थी लेकिन आज वह उम्र का चालीस से अधिक साल गुजार चुकी है। लेकिन इस बीच उसे अरुणा की जिंदगी से जुड़े अहम पहलुओं की जानकारी नहीं हो पाई। अरुणा शाबनाग मुंबई के परेल स्थित केईएम अस्पताल में नर्स थी। वह दक्षिण भारत के राज्य कर्नाटक की रहने वाली थी। जिस समय उसने नर्स की ड्यूटी ज्वाइन किया था। उस सयम उसकी उम्र 23 साल से अधिक थी।
उसी अरुणा के साथ अस्पताल में सोहनलाल वार्डब्वाय की नौकरी करता था लेकिन वह वक्त पर काम पर नहीं पहुंचता था। जिससे अक्सर अरुणा उसे डांटती फटकारती थी। यह बात सोहन को बुरी लगती थी। इसके लिए उसने अरुणा से बदला लेने का प्लान तैयार किया।
27 नवम्बर 1973 की शाम 5:30 बजे जब अरुणा काम खत्म करने के बाद चेजिंग रुम में कपड़ा बदले गयी। उसी दौरान सोहनलाल अपने प्लान के मुताबित चेजिंग रूम में घुस गया और अरुणा को थप्पड़ मार कर बेहोश कर दिया। उसके बाद अपना बदला चुकाने के लिए उसके साथ अनैतिक कार्य किया। कुत्ते बांधने वाली चेन से अरुणा का गला कस दिया। जिससे अरुणा के दिमाग में रक्तसंचार और आक्सीजन ठप होने से वह कोमा में चली गयी। इसके बाद फिर वह कभी अपनी मूल जिंदगी में नहीं लौटी।
अरुणा के इस हाल को देख परिजनों ने उसकी सेवा से इनकार कर दिया। बाद में केईएम की नर्सो ने खुद उनकी देखभाल की जिम्मेदारी संभाली और उन्हें केईएम अस्पताल के वार्ड नम्बर चार में एक सुरक्षित कमरे में रखा गया। लेकिन जिंदगी की जंग आखिर वह हार गयी और सोमवार की सुबह आठ बजे इस दुनिया को हमेशा के लिए छोड़ गयी।
अरुणा केवल एक नर्स नहीं थी। नर्स त्याग, समर्पण, दया और ममता की प्रतिमूर्ति होती हैं। सेवा और भाव की जितनी प्रबलता इनमें रहती है। उतनी शायद किसी में हो। लेकिन हमारी न्याय व्यवस्था अरुणा के गुनाहगार को सजा नहीं दिला पायी।
42 सालों तक अरुणा अस्पताल के बेड पर जिंदगी और मौत की सांसे गिनती रही और गुनाहगार सोहनलाल लचीले कानूनों का फायदा उठाते हुए सात साल के बाद बरी हो गया। आज भी दिल्ली के किसी अस्पताल में नाम बदल कर काम कर रहा है। हमारी न्याय व्यस्था उसे न्याय नहीं दिला सकी। लेकिन चैन से मरने भी नहीं दिया। वह व्हीलचेयर पर नहीं बैठ पाती थी।
उसके कोमा में जाने के बाद अस्पताल की नर्सो ने सेवा की जो मिसाल कायम की वह अतुलनीय है। अपनों ने अरुणा को ठुकरा दिया था लेकिन साथ काम करने वाली बहनों ने अंतिम सांस तक उसके साथ अपने को खपाती रही। अस्पताल की नर्सो की ओर से उसका 67वां जन्म दिवस मनाने की तैयारी भी थी लेकिन ईश्वर को उसकी और पीड़ा बर्दाश्त नहीं हुई।
अरुणा की करीबी दोस्त पिंकी बिरमानी ने सुप्रीम कोर्ट में उसकी असहनीय पीड़ा देख देश की सर्वोच्च अदालत के जरिए इच्छा मृत्यु की याचिका दायर की थी। अदालत से जहरीला इंजेक्शन देने की अपील की गयी थी। हलांकि एक बार अदालत ने पिंकी की अपील पर मेडिकल बोर्ड गठित करने का आदेश भी पारित कर दिया लेकिन 2011 में याचिका को खारिज कर दिया। जबकि अरुणा का दोषी 1980 में ही लचीले कानूनों का फायदा उठा दोष मुक्त हो गया था। उस समय देश में दुष्कर्म और यौन शोषण को लेकर कठोर कानून नहीं थे।
मुंबई पुलिस ने उस पर डकैती और लूट एवं मारपीट की धाराओं में मुकदमा दर्ज किया था। जिसमें वह खुद को दोषमुक्त करने में कामयाब रहा। केईएम नर्स संघ के विरोध के बाद भी अस्पताल प्रशासन ने शव को परिजनों को सौंप दिया। जबकि नर्सो की मांग जायज थी कि जब बुरे वक्त में अरुणा के साथ कोई करीबी नहीं दिखा फिर शव से अपनापन दिखाने की क्या जरुरत है।
निश्चित तौर पर अस्पताल के डीन अविनाश सुपे का यह फैसला नर्सो के सेवा और समर्पण को चोटिल करने वाला है। डीन को इस फैसले पर गंभीरता से विचार करना चाहिए था इसके बाद कोई फैसला लेना चाहिए था। क्योंकि अरुणा केईएम की नर्सो के लिए एक प्रतीक थी। उसका संघर्ष उसके लिए आदर्श था। वह उनकी दिनचर्या का अंग बन गयी थी। पूरे स्टॉफ को अरुणा से आत्मिक लगाव हो गया था। अरुणा के साथ काम करने वाली नर्सो के लिए जिंदा लाश होते हुए भी वह एक प्रेरणा थी। वह भले अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर पा रही थी लेकिन उसकी शारीरिक हरकतों और हावभाव को उसके साथ काम करने वाली बहनें अच्छे तरह समझती होंगी।
अरुणा, निर्भया हमारे बीच नहीं है। लेकिन उन्होंने अपने जीवन संघर्ष और बलिदान से हमारे समाज को मूक होते हुए भी एक आवाज दी हैं। इनके संघर्षो की अकथनीय गाथा ने हमारे कानून की किताबों में संशोधन कराया है। हमारे लिए अरुणा आदर्श है। हमारी अपेक्षा यही होगी की उसका बलिदान देश की व्यवस्था में एक नया इतिहास लिखे और कोई दूसरी अरुणा अपनी जिंदगी की बहुमूल्य सांसें कोमा में न गंवाए। अरुणा के जीवन संघर्षो से सबक लेते हुए अगर जरूरी हो तो संविधान में संशोधन किया जाना चाहिए।
(आईएएनएस/आईपीएन)
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त उनके निजी विचार हैं।)