हम वैचारिक संस्कृति की विपन्नता की ओर बढ़ रहे हैं। हमारे संस्कारों और सभ्यता पर सवाल उठने लगा है। हम हिंदुस्तान को आसमां से देखकर बेहद खुश हो रहे हैं। आंग्लिक शब्दावली से हम भारत को ‘इंडिया’ बनाने पर तुले हैं। संभवत: यही हमारी सबसे बड़ी भूल है। हमारी धरातलीय तस्वीर कुछ और है।
हम वैचारिक संस्कृति की विपन्नता की ओर बढ़ रहे हैं। हमारे संस्कारों और सभ्यता पर सवाल उठने लगा है। हम हिंदुस्तान को आसमां से देखकर बेहद खुश हो रहे हैं। आंग्लिक शब्दावली से हम भारत को ‘इंडिया’ बनाने पर तुले हैं। संभवत: यही हमारी सबसे बड़ी भूल है। हमारी धरातलीय तस्वीर कुछ और है।
हम एक चौराहे पर खड़े हैं, जहां हमारे विचारों की मर्दानगी नहीं, मुर्दानगी है। अपसंस्कृतिवाद प्रभावी तौर पर अपना जाल बिछा रहा है। हमारे लिए कितनी शर्म की बात है, लेकिन हमारे बेशर्मी का पैमाने क्या है, अभी तक हम नहीं जान पाए हैं। इस कारण ऐसी कुरीतियां बढ़ रही हैं।
देश शारदीय नवरात्र में मग्न है। हम देवी की आराधना में व्यस्त हैं। दशहरा पर हम रावण जलाएंगे और असत्य पर सत्य की विजय का गुणगान करेंगे। लेकिन यह सब क्या है? हजारों साल से हम महिषासुर और रावण का वध करते चले आ रहे हैं, लेकिन उसकी अपसंकृतियों की संस्कार हमारे पर और तेजी से हमला कर रहा है। हम हर साल शक्ति स्वरूपा की आराधना कर महिषासुर रूपी कुरीतियों का सर्वनाश करते हैं और सभी के मंगल की कामना करते हैं। लेकिन इसके बावजूद हमारी यहां पैचाशिक प्रवृत्तियों का नाश नहीं हो रहा है।
दादरी के बाद दिल्ली में मासूम बच्चियों के साथ दुष्कर्म को लेकर बावेला खड़ा हुआ है। यह कैसी बिडंबना है कि हम उन्हीं देविस्वरूपा कन्याओं के साथ इस तरह का घृणित नर पैचाशिक कार्य करने को बेताब हैं आखिर क्यों? जिस नवरात्र में हम कन्याओं का पूजन करते हैं, उन्हें अपने सिर आंखांे पर बिठाते हैं। उन्हीं के साथ यह जघन्यता क्यों और कैसे। अपने आप में यह विचारणीय बिंदु हैं। इन महिषासुरों का वध कब और कौन करेगा।
दिल्ली देश की राजधानी है और यह सुरक्षा के लिहाज से सबसे प्रोटक्टेड क्षेत्र है। देश का सबसे बड़ा सुरक्षा तंत्र यहां रहता है। यहीं संसद चलती है। देश के अहम मसलों पर गरमा गरम बहस होती है। राजनेता अपने तर्को और कुतर्को पर अपनी राय गढ़ते हैं। यहां पीएम से लेकर सीएम सभी रहते हैं। इसके बाद भी हमारी दिल्ली क्यों असुरक्षित है। दिल्ली क्यों दुष्कर्म प्रदेश कहलाने लगी हैं।
महिलाएं, बेटियां, ऑफिस में काम करने वाले जॉबर्स, छात्राएं क्यों सुरक्षित नहीं हैं। दिल्ली की सड़कें उन्हें डरावनी क्यों लगती हैं। कैब टैक्सी, बस में चलना और लिफ्ट लेना भी अब आसान नहीं। सवाल हजारों, पर जवाब शून्य।
भारत की छवि दुनिया में दुष्कर्मी प्रदेश के रूप में क्यों उभर रही है। संयुक्त राष्ट्र पश्चिम बंगाल की सिलसी पंचायत में हुए प्रेमिका से सामूहिक दुष्कर्म और बदायूंकांड को क्यों नोटिस ले रहा है। हम वैचारिक शून्यता की ओर क्यों बढ़ रहे हैं। सकारात्म व्यवस्था पर राजनीति हावी हो चली है। हमने सोचना छोड़ दिया है। हम समस्याओं को बंवडर बना राजनीति करना चाहते हैं।
दादरी पर आखिर इतना कोहराम क्यों मचा है? दादरी की घटना निश्चित तौर पर हमारे इंसानियत और सहिष्णु संस्कति की आत्मा पर चोट करता है, लेकिन हम जिस आइने में इसे देखने की कोशिश की है। यह हमारे लिए उचित नहीं है। दादरी पर देश का साहित्यिक वर्ग उबल रहा है।
पुरस्कारों, सम्मानों के लौटाने की राजनीति शुरू हो गई है। समालोचक, आलोचक, कथाकार सभी अपने सम्मान को वापस कर रहे हैं। अब तक तीन दर्जन साहित्यकारों की ओर से अपने अनके सम्मान लौटाए जा चुके हैं। अच्छे दिनों पर हमला बोला जा रहा है। इससे देश की छवि को भारी धक्का लग रहा है। हम महज सम्मान को वापस कर चुप्पी साध लें और फिर यह अपेक्षा करें की देश में किसी साहित्यकार की हत्या न हो, दादरी जैसी घटना न हो यह संभव नहीं है।
इसके लिए हमें प्रतिकार की नीति बनानी होगी। इस पर बहस चलानी होगी। इस पर साहित्य सृजन कर कालजयी रचनाएं लिखनी होंगी। सिर्फ प्रतिकार से हम कुछ हासिल नहीं कर सकते हैं।
तानाशाह हिटलर ने कहा था कि अगर किसी देश का समूल नाश करना हो तो पहले उसके साहित्य को नष्ट करो। साहित्य समाज का आइना है, साहित्यकार हमारी वैचारिक पूंजी हैं। जब कलम ही नतमस्तक हो जाएगी रचनाधर्मिता और वैचारिकता का नई कोंपले कहां उसे उगेंगी।
हम मोदी जी को कोस कर हम किसी समस्या का समाधान नहीं निकाल सकते हैं। सवाल उठता है कि दादरी के पहले देश में ऐसी बड़ी घटनाएं हुईं। आखिर ऐसी घटनाएं क्यों हुईं। उस समय उन्होंने पुरस्कार नहीं लौटाए। फिर ऐसी घटनाएं क्यों हुईं। साहित्यकारों के इस कदम से समाज में सवाल उठ रहे हैं।
सोशल मीडिया हमलावर है। हमें बहस का खुला आसमान मिला है। साहित्यकारों को इस चुनौती को स्वीकार कर एक रचनाधर्मी वैचारिकता के महौल का निर्माण करना होगा। हम पंथ की आड़ में किसी को गुनाहगार और निर्दोष साबित नहीं कर सकते हैं। निश्चित तौर पर जो घटनाएं देश में हो रही हैं। वह गलत और घृणित हैं।
साहित्यकारों की ओर से जिस तरह का महौल बनाया गया है। इससे हमारी धर्म निरपेक्ष छवि पर वैश्विक असर पड़ेगा। हमें राजनीति और सत्ता की चिंता किए बिना समाज और देश की चिंता करने की जरूरत है। बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन ने बेहद सहज सवाल उठाया है। उन्हें जब बंग्लादेश से निकाला गया तो साहित्यकार जगत क्यों चुप था? जब सलमान रश्दी को मौत का फतवा जारी किया गया उस समय हमारे साहित्यकार कहां थे?
तसलीमा के भारत आने पर फतवों की बछौर लग गई। उस समय मौन व्रत धारण क्यों किया गया? हमारे पड़ोसी बांग्लादेश में ब्लॉगरों की हत्या की गई। इस्लामिक कट्टरपंथियों ने अभिव्यक्ति की आजादी का कत्ल किया। देश में निर्भया जैसी घटना हुई।
मुजफ्फरनगर जैसे सांप्रदायिक दंगे हुए दर्जनों बेगुनाहों की जान गई। फिर हमारे साहित्यकारों ने इस तरह का प्रतिकार क्यों नहीं किया? कन्नड़ विद्वान कलबुर्गी की हत्या और कुलकर्णी प्रकरण पर इतनी संवेदनशीलता क्यों आई। उनका जमीर कहां से जागा? दिल्ली में मासूम बालिकाओं से हुए दुष्कर्म पर वे द्रवित क्यों नहीं हुए? राजनीति के ओछे बयानों पर उनका धौर्य क्यों टूटा? तमाम ऐसे सवाल हैं जिनका कोई जबाब नहीं है।
यह वक्त राजनीतिक प्रतिकार का नहीं, रचनाधर्मिता का है। स्वयं को परखने और अपने को नापने का है। हम सिर्फ सरकार और सत्ता पर हमले कर समाज का चरित्र नहीं बदल सकते हैं। हमें अब आसमानी आंदोलन के बजाय धरातलीय स्थिति पर विचार करना होगा और महिषासुर को मार रावण को जलाना होगा, जिससे बार-बार हमें यह प्रवृत्ति न दुहरानी पड़े।