नई दिल्ली, 16 सितंबर (आईएएनएस)। वरिष्ठ कथाकार ममता कालिया ने कहा कि लेखिकाएं सिर्फ महिलाओं की स्थिति पर ही नहीं, बल्किपुरुषों के संघर्ष को भी अपने लेखन में बयां कर रही हैं, जो अच्छी बात है।
उन्होंने यह बात साहित्य अकादेमी के सभागार में दैनिक जागरण की मुहिम ‘हिंदी हैं हम’ के अंतर्गत शुरू किए गए नए मासिक कार्यक्रम ‘सान्निध्य’ के ‘स्त्री लेखन स्वप्न और संघर्ष’ सत्र के दौरान कही।
शनिवार को आयोजित कार्यक्रम के दो सत्रों में कवियों, कथाकारों, स्तंभकारों और रंगकर्मियों का अच्छा खासा जुटना हुआ। पहले सत्र ‘समकालीन कविता के स्वर’ में हेमंत कुकरेती, प्रो. जितेंद्र श्रीवास्तव, लीना मल्होत्रा और उमाशंकर चौधरी ने अपने-अपने काव्य संग्रहों से चुनिंदा कविताओं का पाठ किया।
दूसरे सत्र ‘स्त्री लेखन स्वप्न और संघर्ष’ में वरिष्ठ लेखिका ममता कालिया, वंदना राग, ज्योति चावला और प्रज्ञा ने हिस्सा लिया। इस सत्र में ‘स्त्री लेखन’ विषय पर सार्थक विमर्श हुआ।
पहले सत्र ‘समकालीन कविता के स्वर’ का संचालन प्रो.जितेंद्र श्रीवास्तव ने किया। सत्र में सबसे पहले लीना मल्होत्रा ने कविता पाठ किया। उनकी पंक्ति ‘क्यों नहीं रखकर गई तुम घर पर देह, क्या दफ्तर के लिए दिमाग काफी नहीं था?’ को काफी सराहना मिली।
वहीं, उमाशंकर चौधरी की कविताओं में दर्द, वेदना और पलायन का पुट था-‘एक दिन घर से निकलूंगा और लौटकर नहीं आऊंगा। पत्नी राह देखती रहेगी, बच्चे नींद भरी आंखों के बावजूद पिता से किस्से सुनने का इंतजार करेंगे।’
इसके बाद हेमंत कुकरेती ने बेरोजगार के दर्द को उभारा-‘दो घंटे पचास मिनट बाद जब उस कम बोलने वाले बेकाम लड़के को अंदर बुलाता है वह असरदार आदमी/उस लड़के का रोम रोम खुश दिखता है। करे क्या, उसे सौ मुख और हजार जीभों से कहना तो चाहिए था-अरे कमीने, लेकिन ऐसा होता कहां सर?’
प्रो. जितेंद्र श्रीवास्तव ने अपनी कविता में कहा, “गांव, खेत, पेड़-पौधे सब..आज उन खेतों ने मुझे पहचानने से इनकार कर दिया, जिनके मालिक थे मेरे दादा उनके बाद मेरे पिता।”
सान्निध्य के दूसरे सत्र की अध्यक्षता ममता कालिया ने किया और संचालन बलराम ने किया। इस सत्र में प्रज्ञा ने स्वप्न, स्त्री और लेखन के यथार्थ को सामने रखते हुए कहा, “एक स्त्री का सबसे बड़ा स्वप्न उसकी मुक्ति है, क्योंकि देश का संविधान और समाज का संविधान मेल नहीं खाता। यही हाल धर्मो का है, जो महिलाओं की आजादी को अमरबेल सरीखे जकड़न से जकड़ती जाती है।”
ज्योति चावला ने कहा, “स्वप्न स्त्री-पुरुष दोनों को देखने चाहिए, तभी एक पुरुष स्त्री की स्वप्नों की अहमियत जान पाएगा, क्योंकि हमारे देश में स्त्री के स्वप्न पुरुष समाज द्वारा ही बुने जाते हैं, साथ ही हमें भाषा के स्तर पर भी महिलाओं के लिए एक नई भाषा गढ़ने की जरूरत है।”
वंदना राग ने निराशा जताते हुए कहा, “40 साल बाद भी विषय में बदलाव नहीं आया है। अब भी स्त्री संघर्ष और आजादी की बात हो रही है। पहचान महिला साहित्यकार के तौर पर कराई जाती है, मात्र एक साहित्यकार के तौर पर नहीं।
अंत में ममता कालिया ने कहा कि एक पक्ष यह भी है कि महिला लेखकों के विषय महिला मात्र नहीं हैं। लेखिकाएं दैनिक जीवन में पुरुषों के संघर्षो को भी अपने लेखन में शामिल कर रही हैं।
‘सान्निध्य’ मुहिम एक साथ देश के 16 शहरों में हर महीने के दूसरे शनिवार को आयोजित होगा।