रायपुर, 14 सितंबर – छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाके बस्तर में पाए जाने वाली कंदीय फसल तिखूर से देश-विदेश में सौंदर्य उत्पाद और बेबी फूड बनाए जा रहे हैं।
उत्पादन को लेकर केंद्रीय कंदीय फसल शोध संस्थान के क्षेत्रीय केंद्र की ओर से सूबे के नारायणपुर जिले में कंदीय फसल को बढ़ावा देने के लिए किसानों को चार साल से तकनीकी मार्गदर्शन दिया जा रहा है। इसे सबसे पुरानी फसल भी कहा जाता है। सूबे में इसका ज्यादातर उपयोग उपवास के दौरान फलाहार के लिए किया जाता है।
शोध संस्थान के केंद्र प्रमुख एवं मुख्य वैज्ञानिक डॉ. आर.एस. मिश्रा और वैज्ञानिक डॉ. एम. नेदून्चेझियन इस सिलसिले में इन दिनों बस्तर प्रवास पर हैं। वे रामकृष्ण मिशन आश्रम के सहयोग से किसानों को कंदीय फसल उत्पादन की जानकारी दे रहे हैं।
डॉ. मिश्रा ने बताया कि बस्तर के नारायणपुर जिले के अलावा शेष हिस्सों में तिखूर का अच्छा उत्पादन होता है। ये जंगल में मिलता है लेकिन यदि इसकी खेती की जाए तो 10 गुना ज्यादा उत्पादन किया जा सकता है। स्थानीय हाट-बाजारों से तिखूर बड़े व्यापारियों तक जाता है। इसके बाद ये देश के उद्योगों के अलावा गुजरात एवं मुंबई के बंदरगाहों के माध्यम से विदेश पहुंचता है।
उन्होंने बताया कि तिखूर (क्यूरक्यूमा ऑन्जस्टिफोरा) मुख्य रूप से ओडिशा के छग एवं बिहार में मिलता है। इन इलाकों से केवल तिखूर ही नहीं बल्कि जिमी कंद, कोचई, शकरकंद, मिश्रीकंद, सिमलीकंद, रतालू एवं केंऊकांदा भी मिलते हैं। इनसे मिलने वाले स्टार्च से सौंदर्य उत्पाद और बेबी फूड बनाए जाते हैं। इस वजह से इनकी मांग ज्यादा है।
इसके अलावा दवा उद्योगों में भी इनकी अच्छी मांग है। इनसे मिलने वाले स्टार्च से कैप्सूल का आवरण तैयार होता है। स्टार्च पानी में घुलनशील होता है और इसका स्वास्थ्य पर विपरीत असर नहीं पड़ता है। इनके उत्पादन को लेकर सर्वे करने की तैयारी भी की जा रही है।
बस्तर भ्रमण पर पहुंचे कंद विज्ञानियों ने बताया कि जगदलपुर से सिमलीकांदा करीब 100 ट्रक सालभर में ले जाया जाता है। इसे आंध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी जिले के पेद्दापुरम की फैक्ट्रियों में ले जाकर साबूदाना बनाया जाता है। शोध केंद्र के वैज्ञानिक चार साल से यहां कंदीय फसल को बढ़ावा देने किसानों के बीच काम कर रहे हैं।
आदिवासी उपयोजना के तहत 50 फीसदी से अधिक आबादी वाले जिलों में ये काम किया जा रहा है। हर साल एक गांव में कंद की फसल के लिए किसानों को तैयार किया जाता है और फिर अगले साल दूसरे गांवों में काम किया जाता है।
केंद्र के मुख्य वैज्ञानिक डॉ. मिश्रा के मुताबिक, मानव सभ्यता का जब विकास हुआ तो सबसे पहले कंद की ही खेती की गई। इसके बाद दूसरी फसलों की खेती शुरू हुई। कंद में भरपूर मात्रा में कार्बोहाइड्रेट होता है जो शरीर को ऊर्जा देता है। इसमें कई पौष्टिक तत्व होते हैं। जंगल में कंद-मूल आसानी से मिल जाते हैं। अब इसे ही बेहतर तरीके से उत्पादित करने के लिए छत्तीसगढ़ में कार्य चलाया जा रहा है।