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 बस्तर के दशहरे में रावण दहन नहीं | dharmpath.com

Friday , 2 May 2025

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बस्तर के दशहरे में रावण दहन नहीं

रायपुर, 22 अक्टूबर (आईएएनएस/वीएनएस)। छत्तीसगढ़ के बस्तर में विश्व का सर्वाधिक लंबे समय तक चलने वाले दशहरे में रावण के पुतले का दहन नहीं किया जाता, बल्कि 13 दिनों तक बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी सहित अन्य देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना की जाती है।

रायपुर, 22 अक्टूबर (आईएएनएस/वीएनएस)। छत्तीसगढ़ के बस्तर में विश्व का सर्वाधिक लंबे समय तक चलने वाले दशहरे में रावण के पुतले का दहन नहीं किया जाता, बल्कि 13 दिनों तक बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी सहित अन्य देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना की जाती है।

बस्तर में 75 दिनों तक चलने वाले दशहरे में शामिल होने के लिए बड़ी संख्या में विदेशी पर्यटक भी जगदलपुर पहुंच गए हैं। बस्तर के दशहरे की तैयारी तीन महीने पहले से ही शुरू हो जाती है। वहीं माना जाता है कि यहां का दशहरा 500 वर्षो से अधिक समय से परंपरानुसार मनाया जा रहा है।

डेरा गड़ाई होती है दूसरी महत्वपूर्ण पूजा :

छत्तीसगढ़ के बस्तर के ऐतिहासिक विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा में दूसरी महत्वपूर्ण पूजा विधान डेरी गड़ाई पिछले महीने हुई थी। इस विधान के बाद दशहरा में चलने वाले रथ का निर्माण बस्तर के आदिवासियों द्वारा शुरू कर गया। डेरी गड़ाई के अवसर पर दंतेश्वरी मंदिर के प्रधान पुजारी बस्तर दशहरा समिति के अध्यक्ष बस्तर सांसद दिनेश कश्यप तथा सदस्यों सहित बड़ी संख्या में लोग उपस्थित थे।

बस्तर दशहरे के लिए निर्माण किया गया फूल रथ, चार चक्कों का तथा विजय रथ आठ चक्कों का बनाया जाता है। बस्तर दशहरा के संबंध में जगदलपुर के नरेंद्र पाणिग्राही ने बताया कि स्थानीय सिरहासार भवन में ग्राम बिरिंगपाल से लाई गई साल की टहनियों को गड्ढे में पूजा विधान के साथ गाड़ने की प्रक्रिया को डेरी गड़ाई कहा जाता है।

रथ खींचने का अधिकार सिर्फ

माड़िया लोगों को :

विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा के लिए इन दिनों किलेपाल परगना के 34 गांवों में खासा उत्साह है। बताया जाता है कि रथ खींचने का अधिकार केवल किलेपाल के माड़िया लोगों को ही है। रथ खींचने के लिए जाति का कोई बंधन नहीं है। माड़िया मुरियाए कला हो या धाकड़, हर गांव से परिवार के एक सदस्य को रथ खींचने जगदलपुर आना ही पड़ता है। इसकी अवहेलना करने पर परिवार के आर्थिक स्थिति को देखते ही जुर्माना भी लगाया जाता है।

बताया जाता है कि बस्तर दशहरा में किलेपाल परगना से दो से ढाई हजार ग्रामीण रथ खींचने पहुंचते हंै, इसके लिए पहले घर-घर से चावल नगदी तथा रथ खींचने के लिए सियाड़ी के पेड़ से बनी रस्सी एकत्रित की जाती थी।

हो चुका काछनगादी पूजा विधान :

जगदलपुर के ऐतिहासिक बस्तर दशहरा पर्व का काछनगादी पूजा विधान 12 अक्टूबर की रात संपन्न हुआ। जहां बेल कांटों के झूले पर बैठी काछनदेवी ने दशहरा पर्व मनाने एवं फूल रथ संचालन करने की अनुमति दे दी। काछनगादी पूजा विधान के बाद गोल बाजार में जाकर रैला देवी की विधिवत पूजा-अर्चना की गई।

रावण दहन नहीं किया जाता :

बस्तरा का दशहरा एक अनूठा पर्व है, जिसमें रावण के पुतले का दहन नहीं किया जाता, बल्कि 13 दिनों तक बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी सहित अन्य देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना की जाती है। 75 दिनों की इस लंबी अवधि में प्रमुख रूप से काछन गादी, पाट जात्राए जोगी बिठाई, मावली जात्रा, भीतर रैनी, बाहर रैनी तथा मुरिया दरबार मुख्य रस्में होती हैं।

आकर्षण का केंद्र दोमंजिला विशाल रथ :

बस्तरा दशहरा का आकर्षण होता है लकड़ी से निर्मित विशाल दोमंजिला रथ। बताया जाता है कि बिना किसी आधुनिक तकनीक या औजारों की सहायता से एक निश्चित समयावधि में आदिवासी इस रथ का निर्माण करते हैं। फिर रथ को आकर्षण ढंग से सजाया जाता है। रथ पर मां दंतेश्वरी का छत्र सवार होता है। स्थानीय निवासियों का कहना है कि जब तक राजशाही जिंदा थी, राजा स्वयं सवार होते थे।

भीतर और बाहर रैनी बाकी :

बस्तर में 22 अक्टूृबर को जोगी बिठाई, कुंवारी पूजा और मावली परघाव की रस्म पूरी हो गई, अब 23 अक्टूृबर को भीतर रैनी और रथ परिचालन और चोरी होगी। दूसरे दिन 24 अक्टूबर को बाहर रैनी पर कुम्हड़ाकोट में विशेष पूजा और शाम को रथ वापसी होगी। 25 को काछन जात्रा और मुरिया दरबार लगेगा। 26 अक्टूबर को कुटुंब जात्रा के साथ देवी-देवताओं की विदाई होगी। इसके अगले दिन 27 अक्टूबर को दंतेवाड़ा के माईजी की डोली की विदाई के साथ पर्व का समापन होगा।

जहां होती है रावण के पुतले की पिटाई :

बस्तर संभाग के फरसगांव जनपद के ग्राम भूमका के लोग रावण दहन नहीं करते, बल्कि उसके पुतले की पिटाई करते हैं। फरसगांव में यह परंपरा कई वर्षो से चली आ रही है। यह परंपरा कब शुरू हुई, इसके बारे में ग्रामीणों को कुछ भी पता नहीं है। इसके पीछे मान्यता भले ही ग्रामीणों की कुछ भी हो, लेकिन अहंकारी रावण का अहंकार नष्ट करने की परंपरा इस गांव में सबसे अलग है। वे लोग मिट्टी से बने रावण के पुतले को पीट-पीटकर नष्ट करते हैं।

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