शिरडी के सांई बाबा एक आध्यात्मिक गुरु है। सांई बाबा समूचे भारत के हिन्दू-मुस्लिम श्रद्धालुओं तथा अमेरिका और कैरेबियन जैसे दूरदराज़ के क्षेत्रों में रहने वाले कुछ समुदायों के प्रिय थे।
सांई बाबा का जन्म 28 सितंबर 1836 में हुआ था। सांई बाबा नाम की उत्पत्ति सांई शब्द से हुई है, जो मुसलमानों द्वारा प्रयुक्त फ़ारसी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है पूज्य व्यक्ति और बाबा, पिता के लिए एक हिन्दी शब्द। हालांकि इस बात पर आम सहमति है कि सांई बाबा का जन्म 1836 में हुआ था, लेकिन उनके आरंभिक वषरें के बारे में रहस्य बना हुआ है। अधिकांश विवरणों के अनुसार, वह एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे और बाद में एक सूफी फकीर द्वारा गोद लिए गए। बाद में चलकर उन्होंने स्वयं को एक हिन्दू गुरु का शिष्य बताया। लगभग 1858 में साईं बाबा पश्चिम भारतीय राच्य महाराष्ट्र के एक गांव शिरडी पहुंचे और 1918 में मृत्यु होने तक वहीं रहे।
शुरुआत में शिरडी के ग्रामीणों ने पागल बताकर उनकी अवमानना की, लेकिन शताब्दी के अंत उनके सम्मोहक उपदेशों और चमत्कारों से आकर्षित होकर हिंदुओं और मुसलमानों की एक बड़ी संख्या उनकी अनुयायी बन गई। उनके चमत्कार अक्सर मनोकामना पूरी करने वाले रोगियों के इलाज़ से संबंधित होते थे। वह मुस्लिम टोपी पहनते थे और जीवन में अधिंकाश समय तक वह शिरडी की एक निर्जन मस्जिद में रहे, जहां कुछ सूफी परंपराओं के पुराने रिवाज़ों के अनुसार वह धूनी रमाते थे।
मस्जिद का नाम उन्होंने द्वारकामाई रखा था, जो निश्चित्त रूप से एक हिन्दू नाम था। कहा जाता है कि उन्हें पुराणों, भगवदगीता और हिन्दू दर्शन की विभिन्न शाखाओं का अच्छा ज्ञान था।
सांई की शिक्षा-
मानवता ही सबसे बड़ा धर्म है!
जातिगत भेद भुला कर प्रेम पूर्वक रहना।
गरीबो और लाचार की मदद करना सबसे बड़ी पूजा है!
माता-पिता, बुजुर्गो, गुरुजनों, बड़ों का सम्मान करना चाहिए!
सांई के उपदेश-
साईं बाबा के उपदेश अक्सर विरोधाभासी दृष्टांत के रूप में होते थे और उसमें हिंदुओं और मुसलमानों को जकड़ने वाली कट्टर औपचारिकता के प्रति तिरस्कार तथा साथ ही ग़रीबों और रोगियों के प्रति सहानुभूति परिलक्षित होती थी। शिरडी एक प्रमुख तीर्थस्थल है तथा उपासनी बाबा और मेहर बाबा जैसी आध्यात्मिक हस्तियां सांई बाबा के उपदेशों को मान्यता देती हैं।
सांई बाबा की मृत्यु 15 अक्टूबर 1918 को में शिरडी में हुई थी।