अमेरिकी नीति पर सांसद की एक पगड़ी भारी पड़ गई। अमेरिकी दूतावास अपनी शर्तो पर भाजपा सासंद वीरेंद्र सिंह मस्त को नहीं डिगा पाया। सांसद को अमेरिकी शर्त इतनी बुरी लगी कि उन्होंने अमेरिका जाने से से इनकार कर दिया।
अमेरिकी नीति पर सांसद की एक पगड़ी भारी पड़ गई। अमेरिकी दूतावास अपनी शर्तो पर भाजपा सासंद वीरेंद्र सिंह मस्त को नहीं डिगा पाया। सांसद को अमेरिकी शर्त इतनी बुरी लगी कि उन्होंने अमेरिका जाने से से इनकार कर दिया।
भारतीय मीडिया में सांसद की यह दिलेरी खूब सूर्खियां बना है। निश्चित तौर पर सांसद के फैसले को कहीं से भी गलत नहीं ठहराया जा सकता। दुनिया के सभी संप्रभु देशों में अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता के साथ जीने का अधिकार है। अगर अमेरिका अपनी सुरक्षा नीति से समझौता नहीं करेगा तो फिर हम क्यों करें।
अमेरिकी सुरक्षा नीति हमेशा विवादों में रही है। भारतीय राष्ट्राध्यक्षों, राजनयिकों और फिल्मी हस्तियों के साथ सुरक्षा के नाम पर जिस तरह व्यवहार किया गया, वह कहीं से भी उचित नहीं कहा जा सकता। लेकिन अमेरिका अपनी सुरक्षा नीति की आड़ में इस रंगभेदी और नस्लभेदी नीति को पालता-पोषता आ रहा है। उसकी एक समझी सोची रणनीति है।
दुनिया को धार्मिक स्वतंत्रता की सीख देने वाला अमेरिका खुद रंग और नस्लभेद पर घिरा है। धार्मिक अधिकारों को लेकर उस पर चौतरफा हमला होता रहा है। अभी फिल्म अभिनेता शाहरुख खान के साथ सुरक्षा की नाम पर जिस तरह का व्यवहार किया गया, वह किसी से छुपा नहीं है। अब सांसद की भगवा पगड़ी पर उसकी नीति कटघरे में हैं।
अमेरिका और ओबामा जी को बताना चाहिए पगड़ी हमारी संस्कृति है। अहम सवाल है कि अमेरिकी दूतावास ने सांसद की पगड़ी पर प्रतिबंध क्यों लगाया। अमेरिका में क्या पगड़ी और वेशभूषा को लेकर कोई संवैधानिक बिल पास है? क्या इस प्रतिबंध को कानूनी मान्यता प्राप्त है या सिर्फ सुरक्षा कारणों से प्रतिबंध लगाया जाता है? पगड़ी से उसे कौन सा खतरा उत्पन्न होता है?
पगड़ी की वजह से अब तक वहां कितनी घटनाएं घट चुकी हैं। क्या उसके पास इसका कोई लेखाजोखा उपलब्ध है या सिर्फ गैर मुल्क के लोगों को नीचा दिखाने की उसकी यह सोची-समझी रणनीति है। धार्मिक स्वतंत्रता की आड़ में भारत को उपदेश देने वाले अमेरिका में मंदिरों पर हमले होते हैं। सिखों पर पगड़ी को लेकर नस्लभेदी टिप्पणी और प्रतिबंध लगाए जाते हैं।
धार्मिक अधिकारों को लेकर वह दोहरी नीति अपनाता है। अमेरिकी सिख समुदाय पगड़ी को लेकर आंदोलन चला रहा है। वहां की सेना में भी पगड़ी और लंबे बाल रखने पर अब तक प्रतिबंध रहा। लेकिन अमेरिकी सेना में शामिल एक सिख जवान के संघर्ष ने आखिरकार अमेरिकी सेना को अपने फैसले बदलने को मजबूर कर दिया।
सेना में कार्यरत कैप्टन सिमरत पाल सिंह ने दस साल पूर्व अमेरिकी सेना में भर्ती हुआ। वहां के सैन्य नियमों के तहत सिर से पगड़ी हटाने के साथ लंबे बाल कटवाने पड़े थे, लेकिन साल भर पूर्व उन्होंने यह लड़ाई जीती और तीन सिख सैनिकों को दाढ़ी और बाल के साथ पगड़ी की रखने की इजात मिल गई। लेकिन लड़ाकू सैनिकों पर यह नियम लागू नहीं है। अमेरिकी नीति के खिलाफ वहां भी लोग लामबंद होने लगे हैं। धार्मिक स्वतंत्रता का मसला अब राजनीतिक बनने लगा है।
भारतीय मूल की अमेरिकी सांसद के साथ 40 सांसदों ने बास्केटबॉल मैचों में सिख खिलाड़ियों पर लगे पगड़ी प्रतिबंध को हटाने की अतंर्राष्ट्रीय बास्केटबॉल महासंघ से मांग की है। सांसदों ने कहा है कि सिख खिलाड़ियों के साथ भेदभाव की नीति खत्म होनी चाहिए।
पगड़ी पर प्रतिबंध लगाने के पीछे महासंघ का तर्क है कि खेल के दौरान पगड़ी से एक दूसरे खिलाड़ियों को चोट आ जाती है, जबकि सांसदों ने इसे सिरे से खारिज कर दिया है। सांसदों ने तर्क दिया है कि दुनिया भर में सिख समुदाय के खिलाड़ी खेलों में भाग लेते हैं और लोग रहते हैं, लेकिन इस तरह की कोई घटना नहीं हुई।
यह विवाद 2014 में उस समय आया, जब फीबा की भेदभाव नीति के कारण दो सिख खिलाड़ियों को पगड़ी के कारण खेल से प्रतिबंधित कर दिया गया था। अमेरिका खुद को बेहद बौद्धिक और तकनीकों से संपन्न देश होने का दावा करता है, लेकिन धार्मिक स्वतंत्रता को लेकर उसकी विचारधारा आज भी सामंती और नस्लभेदी है।
पगड़ी पर अमेरिकी नीति चाहे जो भी हो, लेकिन भारत में पगड़ी धार्मिक संस्कृति और उसकी मान मयार्दा से जुड़ी है। वह चाहे सिखों की पगड़ी हो या फिर राजस्थानी। भारत वंशियों को अपनी संस्कृति और पगड़ी पर गर्व है। भारत में पकड़ी सर्दी, धूप और धूल और गर्द से सुरक्षित रखने के साथ रीति और रिवाज और अस्मिता से जुड़ी है। पगड़ी यहां के लोगों के इज्जत से जुड़ी है।
यह सिर्फ एक प्रतीक नहीं, प्रतिबिंब है। देश का किसान सिर पर पगड़ी बांधता है। पगड़ी उसकी निजता से जुड़ा व्यक्तिगत धार्मिक और मौलिक अधिकार के साथ वैज्ञानिक तथ्य से भी जुड़ी है। अमेरिका को अपनी पगड़ी नीति में बदलाव लाना चाहिए। भारत सरकार को इस कड़ा एतराज जताना चाहिए। अमेरिका का यह प्रतिबंध नस्लभेदी नीति का पोषण करता है।
अमेरिका में रंगभेद को लेकर लंबे समय से संघर्ष जारी है। वहां अफ्रीकी मूल के लोगों और गोरों के बीच खूनी संघर्ष सालों से चला आ रहा है। गोरे और काले की जंग जारी है। धार्मिक स्वतंत्रता को लेकर अमेरिका दोहरी नीति अपनाता रहा है। उसकी यह नीति एक कूटनीतिक हिस्सा है। दुनिया भर में वह सुरक्षा नीति की आड़ में अपने को अलग रखने की चोंचलेबाजी करता है।
भाजपा सांसद वीरेंद्र सिंह मस्त की भगवा पगड़ी पर प्रतिबंध को लेकर तीखी प्रतिक्रिया हो रही है। भाजपा सांसद की गिनती देश के सबसे बड़े किसान के रूप की जाती है। खेती और उसमें नए प्रयोग के लिए सांसद और उनके परिवार को कई पुरस्कार और सम्मान मिल चुके हैं।
सांसद स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं। कुछ दिन पहले अमेरिकी दूतावास ने सांसद से मिल कर अमेरिका में आगेर्नेनिक यानी जैविक खेती को बढ़वा देने के लिए एक सेमिनार में भाग लेने का आग्रह किया था, जिसमें सांसद को आर्गेनिक फार्मिग पर विचार रखने के लिए 26 अगस्त को जाना था। दस दिन का यह आयोजन था।
भदोही में गंगा के कछार में सांसद की तरफ से 100 बीघे जमीन पर आगेर्नेकि खेती कराई जाती है। उनकी तरफ से खेती में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग नहीं किया जाता है, लेकिन जब सांसद अमेरिकी दूतावास वीजा लेने पहुंचे तो एक अजीब फरमान सुनकर उनका पारा चढ़ गया।
सांसद को कहा गया कि आप भगवा पगड़ी में अमेरिका नहीं जा सकते। इसके लिए आपको पगड़ी उतारनी होगी। इस पर सांसद ने अमेरिका जाने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा, “पगड़ी हमारे मान और सम्मान से जुड़ी है। हम इससे कोई समझौता नहीं कर सकते।”
सांसद के इनकार के बाद अमेरिकी दूतावास में खलबली मच गई। सांसद हमेशा सिर पर भगवा पगड़ी बांधते हैं। वह संसद में हों या दूसरी जगह, पगड़ी उनकी निजी पहचान है। अमेरिका को पगड़ी शायद हिंदुत्ववाद की पोषक लगी, इसी के चलते यह प्रतिबंध लगाया गया। वह हिंदुत्व और उसकी विचारधारा के खिलाफ कई बार आवाज उठा चुका है।
सांसद की पगड़ी पर अमेरिकी प्रतिबंध एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। प्रधानमंत्री मोदी जी को अपने ‘केम छो’ वाले दोस्त ओबामा जी से इस पर कड़ा एतराज जताना चाहिए और अमेरिका में लगे पगड़ी पर प्रतिबंध हमेशा के लिए खत्म करवाना चाहिए। अगर भारत ऐसा करने में सफल हो जाता है तो ओबामा और मोदी की दोस्ती के लिए यह सबसे बड़ी ‘डिप्लोमैसी डिल’ होगी। (आईएएनएस/आईपीएन)
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)