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Tuesday , 6 May 2025

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हां, मैं नारी हूं! कौन कहता है अबला हूं..

प्रभुनाथ शुक्ल

प्रभुनाथ शुक्ल

आधुनिक भारतीय समाज में स्त्रियों की सुरक्षा अधिक चिंता और बहस का केंद्रबिंदु बन गया है। यह सवाल संसद से लेकर सड़क तक तैर रहा है। नारी मर्यादा को उघाड़ने वाली कुछ वारदातों ने हमारी संस्कृति को दुनिया के सामने नंगा किया है। महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा को लेकर भारत दुनिया के निशाने पर है।

दिल्ली निर्भया कांड हो, उबर कैब कांड या फिर बदायूं जैसे अपराध पर संयुक्त राष्ट्र भी चिंता जता चुका है। बदायूं कांड विदेशी मीडिया की सुर्खियां बन चुका है। अब विदेशी मीडिया भारत में घटती इस तरह की घटनाओं में अपना बाजार तलाश रहा है। स्वतंत्र फिल्मकार लेज्ली उडविन की ओर से दिल्ली सामूहिक दुष्कर्म कांड पर तैयार की गई डॉक्यूमेंट्री ‘इंडियाज डॉटर’ इसका उदाहरण है।

निर्भया कांड के बाद देश में इस तरह की घटनाओं में और इजाफा हुआ है। इससे यह साबित होता है कि नारी सुरक्षा के मुद्दे पर बड़ी-बड़ी कानूनी किताबें तैयार कर इस पर हम तब तक प्रतिबंध नहीं लगा सकते, जब तक हमारा नजरिया नहीं बदलेगा।

देश की राजधानी दिल्ली दुष्कर्म प्रदेश में तब्दील हो गया है। महिलाओं के साथ सबसे ज्यादा दुष्कर्म दिल्ली, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में होता है। नोएडा से पिछले दिनों एक निजी कंपनी की महिला इंजीनियर अपहरण सुर्खियों में रहा। इस घटना को लेकर दिल्ली पुलिस काफी परेशान दिखी। बाद में महिला सुरक्षित घर लौटी।

दिल्ली की एक और महिला परिवारिक प्रताड़ना से उब कर घर छोड़ने को मजबूर हो गई, लेकिन पुलिस की सक्रियता से उसे बरामद किया गया। दुनियाभर में 8 मार्च महिला अधिकारों और उपलब्धियों को लेकर जाना जाता है।

अमेरिका में पहली बार यह दिवस 1909 में 28 फरवरी को मनाया गया था। कोपनहेगन में इसे 1910 में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का सम्मान दिया गया, लेकिन बाद में जुलियन और ग्रेगेरियन कैलेंडर के तुलनात्मक अध्ययन के बाद पूरी दुनिया में इसे 8 मार्च को मनाया जाने लगा।

अपने अधिकारों को लेकर महिलाओं के भीतर उठी ज्वाला को इतिहास की तरीखों में सजा दिया गया। यह वैश्विक पुरुष सत्ता पर महिलाओं को स्त्री अधिकारों की सबसे बड़ी जीत थी। रूसी महिलाओं ने 1917 में मताधिकार के अधिकारों को लेकर बड़ा आंदोलन किया। इसका परिणाम रहा कि राष्ट्रपति जॉर्ज को सत्ता छोड़नी पड़ी। बाद में बनी सरकार ने महिलाओं को मताधिकार का अधिकार दिया।

पूरी दुनिया में स्त्री अधिकारों का संरक्षण और उनकी स्वतंत्रता का सवाल अहम बन गया है, लेकिन भारतीय संदर्भो में यह सबसे चिंता का विषय है। हालांकि भारत के वैदिक समाज में स्त्रियों को जिस तरह का सम्मान प्राप्त था, उसकी मिसाल कहीं नहीं मिलती है। लेकिन आज के संदर्भ में केवल यह धर्मग्रंथों और मंचीयता तक ठहर गया है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े चौंकाने वाले हैं।

देशभर में हर रोज 93 महिलाओं से दुष्कर्म होता है। जबकि दिल्ली में यह हर दिन चार के रेश्यो पर पहुंच जाता है। वर्ष 2012 में देशभर में 24,923 महिलाओं से दुष्कर्म की घटनाएं हुईं, जबकि एक साल यानी 2013 में यह बढ़कर 33,707 पर पहुंच गया। निर्भया कांड के बाद बलात्कार की स्थितियों और वृद्धि हुई है इससे बड़ी हमारे लिए शर्मनाक बात और क्या हो सकती है?

दिल्ली में 2012 में जहां दुष्कर्म के 585 मामले दर्ज हुए, वहीं 2013 में यह बढ़कर 1441 पर पहुंच गया। देश में दिल्ली, मुंबई, पुणे और जयपुर महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित महानगर साबित हुए। मुंबई मंे 391 जयपुर में 192 और पुणे में 171 दुष्कर्म के मामले दर्ज हुए।

मध्यप्रदेश 2013 में 4,335 घटनाआंे के बाद देश में सबसे टॉप पर रहा, जबकि इसी साल राजस्थान में 3050 महाराष्ट्र में 3063 जबकि यूपी में 3050 शीलभंग की घटनाएं हुईं।

इसी साल तमिलनाडू में 923 घटनाएं रिपार्ट की गईं। यहां दुष्कर्म का औसत 3 हर दिन है। देश में घटी दुष्कर्म की 31,807 वारदातों में 94 फीसदी लोग परिवार से संबंधित लोग थे, जबकि 10,782 घटनाओं को पड़ोसियों ने अंजाम दिया।

इसके अलावा 18,171 में जाने पहचाने लोग शामिल थे। 2315 ऐसी घटनाएं हुईं, जिसका संबंध परिवारीक करीबियों से था। जबकि 539 में बेहद करीबी शामिल थे। 15,556 दुष्कर्म की घटनाओं में 18 से 30 की उम्र के लोग शामिल थे, जबकि 8,877 में 14 से 18 वर्ष के मध्य लोग शामिल थे। दुष्कर्म एक मनोविकार है। देश में आज भी 70 फीसदी महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ’ की मुहिम चला रहे हैं, लेकिन 10 लाख बेटियों की हत्या हर साल मां के गर्भ में कर दी जाती है। दहेज की बलिवेदी पर हर 77 मिनट में एक महिला की हत्या कर दी जाती है। जबकि 29 मिनट में एक स्त्री की मयार्दा का चीरहरण होता है।

नारी अधिकारों पर मंचीय हल्ला मचाने वाले लोग लाख कोशिश के बाद भी संसद में 33 फीसदी आरक्षण नहीं दिला पाए। महिला अधिकारवादियों के लिए यह शर्म की बात है।

राजनीति में महिलाओं का शक्तीकरण नहीं दिखता है। राजनीति में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ 3 फीसदी है। लोकसभा में केवल 11 फीसदी महिलाएं हैं, जबकि राज्यसभा में 16 फीसदी से अधिक।

देश की सवा सौ अरब में आधी आबादी की हिस्सेदारी 61 करोड़ 50 लाख है। 65 फीसदी से अधिक महिलाएं साक्षर हैं। इसके बाद भी समाज में महिलाओं को बराबरी का हक हासिल नहीं है। यह हमारी सोच का सबसे घटिया नजरिया है, जबकि महिलाएं हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। 29 फीसदी महिलाओं का इस्तेमाल कार्यबल में हो रहा है। वहीं सॉफ्टवेयर उद्योग में 30 फीसदी महिलाएं लगी हैं।

हमारी कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागरीदारी पुरुषों से अधिक है। यहां 55 फीसदी महिलाएं अन्नोत्पादन में अपने श्रम पर राष्ट्रीय भागीदारी निभा रही हैं। लेकिन लैंगिग असमानता बड़ा सवाल है। देश में प्रति 1,000 पुरुषों पर इनकी संख्या 943 है। महिलाओं की स्थिति आज भी चिंतनीय बनी है।

हमारा समाज महिलाओं की स्वतंत्रता को पचा नहीं पा रहा है। स्त्रियों के मसले पर आधुनिक और रुढ़िवादी परंपराओं के बीच सीधा टकराव दिखता है। पुरुष इसे खुद के अधिकारों के अतिक्रमण के रूप में देखता है, जबकि युवा समाज अपनी सोच में बदलाव ला रहा है। वह जाति, धर्म और रूढ़िवादिता से आगे जाना चाहता है, लेकिन उसके इस बदलाव में पुरानी सोच और हमारे समाज की संरचना सबसे बड़ी बाधा बनी है।

नारी अधिकारों को लेकर समाज में द्वंद्व चल रहा है। संसद में सिर्फ कानून बनाकर हम नारी अधिकारों की रक्षा नहीं कर सकते। इसके लिए स्त्री को खुद आगे आना होगा।

आखिर स्त्री अधिकारों और स्वतंत्रता के मध्य का जो अंतर है उसे कैसे पटा जाए? हम समाज में नारी के लिए किस हद की स्वतंत्रता की बात करते हैं? बॉलीवुड और टॉलीवुड की स्वतंत्रता चाहिए या भारतीय संदर्भों में धरातलीय, अभी तक इसका पैमाना हम तय नहीं कर पाएं हैं।

शायद हमारे लिए यही सबसे खास बात है। हमारी समझ में स्त्री अधिकारों से अधिक उनकी स्वच्छंदता का सवाल है। भारतीय समाज में हर बार यह सवाल उठता है कि स्त्री अधिकारों की लक्ष्मण रेखा क्या हो ? हमारे विचार में बदले दौर में सबसे बड़ा सवाल यह है कि स्त्री की सुरक्षा कैसे हो? घर से लेकर सड़क तक वह कैसे स्वच्छंद हो। घर से निकली अकेली महिला कैसे सुरक्षित पहुंचे। हमें हर हाल में सोच में बदलाव लाना होगा। हम स्त्री स्वतंत्रता को मंचीय बना और तारीखों में सहेज नहीं रख सकते हैं।

महिलाओं के प्रति हाल में हुई घटनाएं सबसे अधिक चिंता का सवाल खड़ी करती हैं। दिल्ली गैंगरेप के दोषियों को दो साल बाद भी सजा नहीं मिल पायी है। हालांकि महिलाओं को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए देश की सरकारों की तरफ से कई कानून बनाए गए हैं, लेकिन बदलाव के लिए लंबा सफर तय करना पड़ेगा।

महिलाओं के सर्वांगीण विकास के लिए महिला सुरक्षा, तकनीकी शिक्षा और रोजगार के अवसर पर खास ध्यान देने की जरूरत है। इसके साथ की ग्रामीण क्षेत्रों में उद्यमशीलता को बढ़ावा दिया जाए। सुरक्षा और रक्षा बलों में महिलाओं की संख्या बढ़ाई जाए।

सस्ते और सुलभ कर्ज उपलब्ध करा महिलाओं को स्वालंबी बनाया जाए। शिक्षा में समानता के साथ गर्भ में बेटियों की हत्या पर प्रतिबंध लगाया जाए।

बेटियों को लिए खास तरह की आर्थिक स्वालंबन योजनाएं चलाई जाएं, जिससे बेटियों की शादी और स्वावलंबन को लेकर समाज की चिंता को बदला जा सके। अब वह वक्त आ गया है, जब हम महिलाओं को उनकी सोच के मुताबिक खुला आकाश उपलब्ध कराएं। जहां वह खुली सोच के साथ पंछी बन उड़ान भर पाएं।

हमने स्त्री की जो एक सोच..अबला तेरी यही कहानी आंचल में दूध आंख में पानी .. बना रखी है। उससे बाहर आना होगा। तभी सच्चे अर्थों में महिला अधिकारों की रक्षा होगी। स्त्री अधिकारों को लेकर हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती उनकी सुरक्षा है।

महिलाओं के विकास में आज सबसे बड़ी बांधा उनकी सुरक्षा है। जब तक हमें उनके लिए खुला आसमान और खुली हवा उपलब्ध नहीं करते हैं तो हमारे लिए महिला स्वतंत्रता की बात बइमानी होगी। (आईएएनएस/आईपीएन)

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

हां, मैं नारी हूं! कौन कहता है अबला हूं.. Reviewed by on . प्रभुनाथ शुक्लप्रभुनाथ शुक्लआधुनिक भारतीय समाज में स्त्रियों की सुरक्षा अधिक चिंता और बहस का केंद्रबिंदु बन गया है। यह सवाल संसद से लेकर सड़क तक तैर रहा है। नार प्रभुनाथ शुक्लप्रभुनाथ शुक्लआधुनिक भारतीय समाज में स्त्रियों की सुरक्षा अधिक चिंता और बहस का केंद्रबिंदु बन गया है। यह सवाल संसद से लेकर सड़क तक तैर रहा है। नार Rating:
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