आज देश आरक्षण यानी रिजर्वेशन के मसले पर जल रहा है। जाट बहुल राज्य हरियाणा इसकी जद में है। यह आग उसकी सीमा से आगे निकल कर उत्तर प्रदेश और राजधानी दिल्ली तक पहुंच चुकी है। आंदोलन पूरी तरह हिंसक हो गया, सरकारी संपत्तियों को भारी नुकसान पहुंचाया गया है। राज्य में रेल और बसों का यातयात ठप हो गया। रेल विभाग को कई सौ करोड़ का नुकसान हो चुका है। आम जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया।
आज देश आरक्षण यानी रिजर्वेशन के मसले पर जल रहा है। जाट बहुल राज्य हरियाणा इसकी जद में है। यह आग उसकी सीमा से आगे निकल कर उत्तर प्रदेश और राजधानी दिल्ली तक पहुंच चुकी है। आंदोलन पूरी तरह हिंसक हो गया, सरकारी संपत्तियों को भारी नुकसान पहुंचाया गया है। राज्य में रेल और बसों का यातयात ठप हो गया। रेल विभाग को कई सौ करोड़ का नुकसान हो चुका है। आम जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया।
दिल्ली में जहां पानी की किल्लत हो चली है, वहीं स्कूल-कालेज बंद करने पड़े। हरियाणा में अब तक 20 लोगों जान गई हैं। हालात बेहद बुरे हैं, दिल्ली और खट्टर सरकार के अलवा सेना भी नाकाम दिखती है। नौकरियों में आरक्षण को लेकर आरक्षण की मांग हालांकि काफी पुरानी पड़ चुकी है।
कभी गुर्जर तो कभी जाट के अलावा ओबीसी और एससी जातियां मुखर होती रही हैं। पिछले दिनों तो गुजरात में हार्दिक पटेल ने केंद्र और राज्य की भाजपा सरकार को हिला कर रख दिया। राजनीतिज्ञों के लिए यह मांग सियासी जुमला बन गई है। इससे सामाजिक समानता और समरसता के बजाय विषमता बढ़ रही है। जिन तबकों को इसका लाभ मिलना चाहिए था नहीं मिल सका है, जिसका नतीजा है कि सामाजिक असमानता बढ़ रही है।
ऊंची जातियों को अब यह कबूल नहीं है, उन्हें डर है कि वे पिछड़ रही हैं। पढ़ने-लिखने के बाद भी उनके बच्चों को सरकारी नौकरी नहीं मिल रही है, जिससे वे पीछे जा रहे हैं। देश में आज भी सरकारी नौकरी प्रतिष्ठा का प्रतीक और आरामदेह मानी जाती है। लेकिन आरक्षण के कारण अब यह मुश्किल होती जा रही है। इसी कारण अगड़ी जातियां आरक्षण की मांग कर रही हैं।
जाट, गुर्जर और पटेल आंदोलन उसी का नतीजा है। देश में यह मुद्दा सालों से चला आ रहा है। आजादी से पहले ही नौकरियों और शिक्षा में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण देने की शुरुआत हुई थी। आजादी के पहले प्रेसिडेंसी रीजन और रियासतों के एक बड़े हिस्से में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की शुरुआत हुई थी। महाराष्ट्र में कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति साहूजी महाराज ने 1901 में पिछड़े वर्ग से गरीबी दूर करने और राज्य प्रशासन में उन्हें उनकी हिस्सेदारी के लिए आरक्षण की शुरुआत की थी।
सन् 1989 में पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने देश में मंडल कमीशन की सिफारिश को लागू किया, लेकिन यह सामान्य जातियों को काफी नागवार गुजरा, देशभर में हिंसक आंदोलन हुए। छात्रों ने आत्मदाह भी किया। उसी दौरान से आरक्षण राजनीतिक झुनझुना बन गया।
राजनीतिक दलों की ओर से पिछड़ी और दलित जातियों को आरक्षण की आड़ में लामबंद कर सत्ता की बागडोर संभाली गई। लेकिन आज इसका गलत इस्तेमाल किया जा रहा है। जिन जातियों के लिए आरक्षण लागू है, उनमें सामजिक रुप से कमजोर लोगों को इसका लाभ नहीं मिल रहा है। उस जाति का मलाईदार तबका ही उसका लाभ ले रहा है, जिससे सामान्य जातियां भी इसकी हिमायत करने लगी हैं।
राजनीतिक दल सवर्णो के लिए भी आरक्षण का समर्थन करने लगे हैं। यूपी में दलित नेतृत्व वाली बीएसपी भी सवर्णो के लिए दस फीसदी आरक्षण का समर्थन करती है। देश के लिए अब यह बेहद पेचीदा हो चला है। राजनीति से जुड़ने से यह और दुरूह हो गया है।
देश में 1908 में अंग्रेजों ने प्रशासन में सभी लोगों की समान भागीदारी के लिए आरक्षण शुरू किया था। इसके अलावा 1921 में मद्रास प्रेसिडेंसी ने सरकारी आदेश जारी कर अगड़ी जाति के इतर 44 फीसदी जबकि ब्राह्मण, मुसलमान, भारतीय ईसाई के लिए 16-16 फीसदी और अनुसूचित जातियों के लिए 8 फीसदी आरक्षण दिया।
सन् 1942 में बाबा साहब अंबेडकर ने सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग उठाई, लेकिन इसका गलत उपयोग किया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश में कहा गया है कि किसी भी दशा में यह 50 फीसदी से अधिक नहीं होगा, लेकिन महाराष्ट्र में शिक्षा और सरकारी नौकरियों में मराठा समुदाय को 16 प्रतिशत और मुसलमानों को 5 प्रतिशत अतिरिक्त आरक्षण दिया गया है।
दक्षिणी राज्य तमिलनाडु में सबसे अधिक 69 फीसदी आरक्षण लागू किया गया है। राजस्थान में भी यह अनुपात अधिक है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार के उस फैसले पर रोक लगा रखी है, जिसमें मराठों और मुसलमानों के अलवा जाट समुदाय को भी इसका लाभ दिया गया था। आज स्थित यहां तक पहुंच गई है कि कोई इसकी समीक्षा को तैयार नहीं दिखता है।
आपको याद होगा संघ प्रमुख मोहन भागवत ने सिर्फ आरक्षण की समीक्षा की बात कही थी, जिस पर बवाल मच गया। प्रतिपक्ष ने इसे बिहार चुनाव में मसला बना लिया। यह मुद्दा पिछड़ी जातियों को लाम बंद करने का काम किया। कहा गया कि भाजपा कि हार में यह भी अहम रहा। जबकि प्रधानमंत्री ने यहां तक कह दिया था कि ‘मेरे जीते जी इसमें बदलाव नहीं होगा।’ हालांकि गृहमंत्री राजनाथ सिंह से जाट नेताओं से हुई बातचीत में आरक्षण दिए जाने का भरोसा दिया गया है, लेकिन यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि आरक्षण का स्वरूप क्या हो?
भागवत के बयान के मायने चाहे जो निकाले गए हों, लेकिन उसका संदर्भ सीधे उसकी नीतियों से था। सरकारी नौकरी में यह सुविधा समान भागीदारी के लिए दस सालों तक के लिए दी गई थी, लेकिन क्या कारण रहे की साठ सालों में भी यह खाई नहीं पट पाई।
इसका सीधा जवाब है कि समाज के जिन तबकों को इसका लाभ दिया गया था। उसकी मलाईदार परत ने ही इसका लाभ लिया, जबकि सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर उसी जाति में पिछड़े लोगों को इसका लाभ न मिल पाया और न मिल रहा है और न कोई उम्मीद ही दिखती है, क्योंकि जब भी इसके समीक्षा कि बात चलेगी ओबीसी, एससी और एसटी जाति का सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक रूप से संपन्न तबका शोर शराबा शुरू कर देगा। वह आरक्षण खत्म होने की दुहाई देने लगेगा, जिससे ऐसे लोगों के बहकावे में आकर जातीय लामबंदी होने लगेगी। इसे सवर्णो की साजिश करार दिया जाने लगेगा।
देश को एक राजनीतिक मुद्दा मिल जाएगा, जिसका कारण है कि आरक्षण की समीक्षा और बदलाव की बात नहीं हजम होगी, क्योंकि उस बदलाव में इनका पत्ता साफ हो जाएगा। इस कारण फिलहाल यह संभव नहीं दिखता।
सवाल लाजिमी है कि क्या अगड़ी जातियों में कमजोर लोग नहीं हैं? यहां भी उन परिवारों की कमी नहीं है जिनकी सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक स्थिति बेहद खराब है। इसलिए क्या सिर्फ सवर्ण होने भर से उन्हें लाभ नहीं मिलना चहिए?
अब वक्त बदल चुका है। ऐसी स्थिति में आरक्षण नीतियों में भी बदलाव की जरूरत है। आरक्षण जातिगत आधार के बजाय सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक आधार पर होना चहिए, जिससे समाज के सभी समुदाय की भागीदारी सुनिश्चत की जाए, जिससे विकास में सबकी साझीदारी बने और देश हिंसा से मुक्त हो और सब का विकास हो। इस पर राजनीति बंद होनी चाहिए, क्योंकि देश बदलाव चाहता है। (आईएएनएस/आईपीएन)
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)