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उपराष्ट्रपति विवाद का समाधान

केंद्र सरकार के स्पष्टीकरण से उपराष्ट्रपति को लेकर उठा विवाद खत्म मान लिया जाना चाहिए। राजपथ पर आयोजित योग दिवस समारोह में उपराष्ट्रपति के न पहुंचने पर की गई टिप्पणी के कारण सरकार को सफाई देनी पड़ी थी। सरकार की ओर से कहा गया कि प्रोटोकॉल में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के बाद प्रधानमंत्री का स्थान आता है।

केंद्र सरकार के स्पष्टीकरण से उपराष्ट्रपति को लेकर उठा विवाद खत्म मान लिया जाना चाहिए। राजपथ पर आयोजित योग दिवस समारोह में उपराष्ट्रपति के न पहुंचने पर की गई टिप्पणी के कारण सरकार को सफाई देनी पड़ी थी। सरकार की ओर से कहा गया कि प्रोटोकॉल में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के बाद प्रधानमंत्री का स्थान आता है।

राजपथ समारोह में प्रधानमंत्री मुख्य अतिथि थे। इसलिए राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को यहां आमंत्रित ही नहीं किया गया था। यह फैसला उनकी गरिमा को ध्यान रखकर किया गया था। ऐसे में इस मसले पर कोई भी टिप्पणी अनावश्यक थी।

भाजपा महासचिव राम माधव ने टिप्पणी के लिए माफी मांगी। इतना ही नहीं, केंद्र सरकार ने भी न केवल इस प्रकरण पर सफाई पेश की, वरन् उपराष्ट्रपति से माफी भी मांगी है। इसके बाद तर्क-वितर्क का कोई औचित्य ही नहीं था। उपराष्ट्रपति के औपचारिक सम्मान को ध्यान में रखते हुए उन्हें राजपथ के सार्वजनिक कार्यक्रम में नहीं बुलाया गया था।

भाजपा महासचिव राम माधव योग को लेकर उपराष्ट्रपति पर टिप्पणी न करते तो बेहतर होता। लेकिन अच्छी बात यह है कि उन्होंने अपनी गलती मानी। टिप्पणी वापस ली। इसके बाद यह विवाद समाप्त हो जाना चाहिए था। अपने देश के प्रजातंत्र की यह स्वस्थ परंपरा है कि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का पार्टी लाइन से ऊपर रहकर सम्मान किया जाता है। इसका पालन होना चाहिए।

भाजपा के किसी भी नेता को योग दिवस पर कोई प्रश्न ही नहीं उठाना चाहिए, क्योंकि आमजन ने इसे भरपूर समर्थन देकर आशा से अधिक सफल बनाया है। इसके सामने यह प्रश्न बहुत महत्वहीन हो गए हैं कि योग दिवस समारोह में कौन शामिल हुआ, कौन नहीं आया, किसने विरोध किया।

इन बातों का अब कोई मतलब ही नहीं रहा। इस पर तो माथपच्ची उन लोगों को करना चाहिए जो चाहकर भी लोगों को योग समारोह में जाने से रोक नहीं सके थे। इसके लिए उन्हांेने तरह-तरह की टिप्पणी की थी। बेशक यह भाजपा का कार्यक्रम नहीं था। उसके प्रधानमंत्री ने इसकी पहल की थी, जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ का पूरा समर्थन मिला था। इसके बाद यह पूरे राष्ट्र का कर्तव्य था कि इसका दलगत भावना से उठकर समर्थन होना चाहिए था। राष्ट्रपति ने इस भावना को समझा।

प्रणव मुखर्जी ने राष्ट्रपति भवन में योग दिवस का आयोजन किया। राष्ट्रपति भवन के अधिकारी, कर्मचारी, वहां रहने वाले इनके परिवार की महिलाएं, बच्चे इसमें शामिल हुए। राष्ट्रपति ने बहुत अच्छे ढंग से योग का महत्व प्रतिपादित किया। उन्होंने इसे वैज्ञानिक बताया। इस क्रम में भी उपराष्ट्रपति की चर्चा नहीं होनी चाहिए।

ये बात अलग है कि राष्ट्रपति की भांति उपराष्ट्रपति भी अपने आवास में योग समारोह आयोजित करते। उसमें अपने अधिकारियों, कर्मचारियों को बुलाते। उपराष्ट्रपति का स्वयं योग करना आवश्यक नहीं था। फिर भी वह उक्त समारोह को संबोधित करते, तो अच्छा होता। जो संकुचित विचारों के तहत इसका विरोध कर रहे थे, उनको जवाब मिलता।

यह ऐसी बात है कि उपराष्ट्रपति ऐसा करते तो अच्छा रहता, नहीं किया तब भी उनकी आलोचना नहीं की सकती। यह स्वेच्छा का विषय था। लेकिन राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और प्रत्येक राज्यों के मुख्यमंत्री अलग अलग योग दिवस समारोह में शामिल होते, वहां उपस्थित लोगों को संबोधित करते तो, विश्व स्तर पर भारत का महत्व बढ़ता।

विदेश नीति में योग :

योग के केवल स्वास्थ्य संबंधी फायदे नहीं हैं। इसमें विदेश नीति का एक महतवपूर्ण तत्व शामिल है। इससे भविष्य में भारत का प्रभाव बढ़ेगा। अभी कहने में भले अटपटा लगे, लेकिन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद मंे भारत को स्थायी सदस्यता दिलाने में यह मुद्दा अहम साबित होगा। इसके अलावा विश्व स्तर पर हजारों की संख्या में योग शिक्षकों की आवश्यकता होगी, भारत इस दिशा में प्रयास कर सकता है।

भारत के पर्यटन में भी योग को शामिल किया जा सकता है, विदेशियों में इसे लेकर रुचि बहुत बढ़ी है। इससे भारत का पर्यटन व्यवसाय बढ़ेगा। परोक्ष, व अपरोक्ष रूप से रोजगार बढ़ेगा। वहीं राजस्व भी मिलेगा।

ऐसे में राजनीतिक दलों के साथ-साथ संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों की भी जिम्मेदारी है, इस समारोह में राष्ट्र के व्यापक हित को ध्यान में रखकर शामिल होना चाहिए था। यदि विपक्षी पार्टियों की प्रदेश सरकारों ने इस मामले में रुचि दिखाई होती तो, नजारा कहीं अधिक अद्भुत होता। विश्व भारत की आवाज देखता। (आईएएनएस/आईपीएन)

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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