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 किसान देरी से हुए सुधारों की कीमत चुका रहा | dharmpath.com

Thursday , 8 May 2025

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किसान देरी से हुए सुधारों की कीमत चुका रहा

नई दिल्ली, 23 मार्च (आईएएनएस)। नासिक से लेकर मुंबई तक महाराष्ट्र के किसानों का 180 किलोमीटर लंबा मार्च देश में किसान और किसानी की दयनीय हालत को बयां कर गया। इस मार्च में लगभग 40,000 किसानों ने हिस्सा लिया था। यह संकेत है कि देश की यह आबादी विकास प्रक्रिया में अभी भी पिछड़ी हुई है।

नई दिल्ली, 23 मार्च (आईएएनएस)। नासिक से लेकर मुंबई तक महाराष्ट्र के किसानों का 180 किलोमीटर लंबा मार्च देश में किसान और किसानी की दयनीय हालत को बयां कर गया। इस मार्च में लगभग 40,000 किसानों ने हिस्सा लिया था। यह संकेत है कि देश की यह आबादी विकास प्रक्रिया में अभी भी पिछड़ी हुई है।

महाराष्ट्र में किसान विशेष रूप से बुरे दौर से गुजर रहे हैं, पिछले तीन से चार वर्षों में कृषि की विकास दर नकारात्मक हो गई है। सूखा, नोटबंदी की वजह से नकदी की कमी और गोहत्या पर पाबंदी से राज्य के कृषि क्षेत्र पर बुरा असर पड़ा है।

हालांकि, किसानों का यह मार्च कुछ प्रमुख मुद्दों पर केंद्रित रहा, जैसे कृषि ऋण में पूर्ण छूट, वन अधिकार अधिनियम 2006 का क्रियान्वयन और स्वामीनाथन समिति की सिफारिशों के अनुरूप न्यूनतम समर्थन मूल्य में संशोधन। सरकार ऋण छूट के लिए योग्यता में ढील देने और भूमि निकासी के लिए क्रियान्वयन मुद्दों से निपटने और एमएसपी तय करने पर सहमत हो गई।

लेकिन इन प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में कई वित्तीय एवं प्रशासनिक दिक्कते हैं, जिन्हें विस्तार में समझने की जरूरत है। हालांकि, सत्य यही है कि ये इन समस्याओं का दीर्घकालिक समाधान नहीं है।

इस साल आर्थिक सर्वेक्षण में यह बात निकलकर सामने आई है कि वास्तविक कृषि जीडीपी और वास्तविक कृषि आय बीते चार वर्षों में ज्यों की त्यों रही है। इस अवधि के दौरान कृषि में ग्रास कैपिटल फॉरमेशन 2013-14 में जीडीपी के 2.9 फीसदी के मुकाबले 2016-17 में घटकर 2.17 हो गई। फिर भी खेतों की उत्पादन क्षमता बढ़ाकर इन समस्याओं से निपटा जा सकता है।

कृषि सुधारों के लिए इसके पीछे एक मजबूत आर्थिक कारण भी है। 2008 की विश्व विकास रिपोर्ट में बीते 25 वर्षों में कई विकासशील देशों का सर्वेक्षण किया गया और पता चला कि कृषि में विकास से गरीबी एक फीसदी घटी है, जो गैर कृषि क्षेत्रों में समान विकास में दो से तीन गुना के समान है। चीन के मामले में यह 3.5 गुना अधिक प्रभावी है और लैटिन अमेरिकी देशों में यह 2.7 गुना अधिक प्रभावी रही। आधे से अधिक देश कृषि से जुड़ा है और लगभग 75 फीसदी गरीबी ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़ी है।

चीन में कृषि सुधारों से भारत को कुछ सबक मिल सकते हैं। भारत की तरह जब चीन में आर्थिक सुधार हुए तो यह कृषि क्षेत्र को ध्यान में रखकर शुरू हुए। कम्यून सिस्टम को डिस्मैंटल कर दिया गया और उसे घरेलू सिस्टम से बदल दिया गया और बदल रहे कीमतों को कृषि सामानों से हटा दिया गया।

इन सुधारों के बाद यह क्षेत्र 1952-1977 के दौरान सुधारों से पूर्व की अवधि में 2.3 फीसदी की तुलना में 1978 और 1984 के बीच सात फीसदी प्रतिवर्ष से अधिक रफ्तार से बढ़ा। विकास में इस तेजी की वजह से वास्तविक ग्रामीण आय 15.5 फीसदी प्रति वर्ष की दर से बढ़ी, जिससे 1979 में गरीबी का स्तर 33 फीसदी की तुलना में 1984 में घटकर 15 फीसदी हो गया।

गरीबी में कमी से लोगों की खरीद शक्ति बढ़ी और औद्योगिक सामानों के लिए मांग का सृजन हुआ, जिससे विनिर्माण सुधारों का मार्ग प्रशस्त हुआ, जिससे अगले तीन दशकों में ऐतिहासिक विकास का चरण लौट आया। चीन के उलट भारतीय सुधार रणनीतिक कम थे, बल्कि चुपके से अधिक हुए थे। इन्हें व्यापार नीति में सुधार कर और औद्योगिक क्षेत्र को डिलाइसेंस कर आर्थिक संकट से निबटने के लिए उठाया गया था। कृषि क्षेत्र को इन सुधारों से दूर रखा गया और बाद में कृषि नीति में सुधार कर इसमें सुधार लाने के प्रयास किए गए। ये सुधार अर्थव्यवस्था में स्थिरता लाने में मददगार साबित हुए और इससे आर्थिक विकास दर को बढ़ावा मिला।

कृषि क्षेत्र को हुए अधिकतर लाभ 2004 और 2011 के बीच में या तो एक्सचेंज दर के अप्रत्यक्ष सुधआरों के जरिए हुए या फिर बढ़ रही वैश्विक कीमतों के बदलाव से हुए। नतीजतन, भारत 18 वर्षों में अपनी गरीबी दर को आधा करने में कामयाब रहा, जबकि चीन ने यह कामयाबी सिर्फ छह वर्षों में ही हासिल कर ली थी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब सत्ता में आए थे, तो उन्होंने वर्ष 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने का लक्ष्य रखा, लेकिन यथास्थिति जारी रखकर मुश्किल से ही इस लक्ष्य को पूरा किया जा सकता है। इस क्षेत्र में स्थायी विकास दर सुनिश्चित करने के लिए कुछ ही संस्थागत बदलावों ही जरूरत है।

पहला, किसानों के लिए इंसेंटिव ढांचों को दुरुस्त करने की जरूरत है। खाद्य सुरक्षा प्रदान कराने और कीमत स्थिरता के लिए कृषि नीतियों में उपभोक्ता बायस की जरूरत है, जो किसानों के डेटरीमेंट से ही आती है। अनप्रिडेक्टिबल निर्यात पर प्रतिबंध एक पहलू है। इस तरह की कारोबार बाधित नीतियों से बचना चाहिए।

दूसरा, यह ध्यान में रखते हुए कि आधे से अधिक भारतीय कृषि क्षेत्र अभी भी सूखा है, निवेश का बड़ा अनुपात का इस्तेमाल कृषि बुनियादी ढांचे में सुधार में लगाने की जरूरत है। 2018-19 के कुल कृषि बजट में सिर्फ 12 फीसदी ही निवेश के लिए आवंटित किया गया है, जबकि बाकी सब्सिडी और सुरक्षा मानकों के लए इस्तेमाल होगा।

आखिरकार कृषि में अनुसंधान एवं विकास के कोई प्रयास नहीं किए गए। भारत अपनी कृषि जीडीपी का सिर्फ 0.46-0.6 फीसदी ही इस क्षेत्र में आर एंड डी पर खर्च करता है। इस तरह की नीति से कृषि आय दोगुनी कैसे की जाएगी!

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