Friday , 17 May 2024

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डिग्री के लिए इंडिया टू चाइना

0,,16931713_303,00भारत में मेडिकल कॉलेजों की कमी और निजी कॉलेजों में मोटी फीस की वजह से अब हर साल मेडिकल की डिग्री हासिल करने के लिए चीन जाने वाले छात्रों की तादाद बढ़ रही है. वहां फीस भी कम है और रहने खाने के इंतजाम भी बढ़िया हैं.

भारत में मेडिकल कॉलेजों की कमी और निजी कॉलेजों में मोटी फीस की वजह से अब हर साल मेडिकल की डिग्री हासिल करने के लिए चीन जाने वाले छात्रों की तादाद बढ़ रही है. चीन में भारतीय छात्रों को फीस भी कम देनी पड़ रही है और रहने खाने का इंतजाम भी बढ़िया है.

पिछले साल विदेशी विश्वविद्यालयों से डिग्री हासिल करने वाले लगभग चार हजार छात्र मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया (एमसीआई) की परीक्षा पास कर भारतीय स्वास्थ्य व्यवस्था का हिस्सा बन गए. हालांकि विदेशी डिग्री लेने वाले डाक्टर एमसीआई पर भेदभाव का भी आरोप लगाते हैं.

मेडिकल ही नहीं, बल्कि भारत से इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए भी काफी छात्र चीन जा रहे हैं. भारत में इंजीनियरिंग कॉलेजों की भरमार है. लेकिन ज्यादातर निजी कॉलेजों में न तो कोई आधारभूत ढांचा है और न ही पढ़ाई का कोई स्तर. इसी खर्च में छात्रों को विदेशी विश्वविद्यालयों से डिग्री मिल जाती है. ऊपर से फायदा यह है कि इंजीनियरिंग में मेडिकल की तरह कोई स्क्रीनिंग टेस्ट भी नहीं देना पड़ता. दूसरी ओर, चीनी छात्र मानव विज्ञान, समाजशास्त्र और कई ऐसे विषयों की पढ़ाई के लिए भारत आ रहे हैं. लेकिन उनकी मंजिल दिल्ली के जेएनयू समेत कुछ विश्वविद्यालयों तक ही है. उनकी तादाद भी अपेक्षाकृत बेहद कम है. आखिर इन छात्रों के भारी तादाद में विदेशी खासकर चीनी विश्वविद्यालयों में जाने की वजह क्या है. एक शिक्षा सलाहकार फर्म के प्रबंधक डा. धुव्रज्योति मंडल कहते हैं, “भारत में सरकारी कॉलेजों में सीटें कम हैं और निजी कॉलेजों में फीस इतनी ज्यादा है कि वहां पढ़ना सबके बस की बात नहीं है. ऐसे में चीन एक बेहतरीन विकल्प के तौर पर उभरा है. भारत के निजी कॉलेजों में पांच साल की पढ़ाई के लिए छात्रों को जहां 60 से 90 लाख रुपये तक फीस देनी होती है, वहीं चीनी विश्वविद्यालयों में इसके लिए महज 15 से 20 लाख ही खर्च आता है.”

एक अन्य सलाहकार वीरेन मजुमदार कहते हैं, “सरकारी होने की वजह से चीनी कालेजों में फीस कम है. वहां भारतीय छात्रों के रहने व खाने की भी बेहतर व्यवस्था है. भारत के मुकाबले चीनी कालेजों का आधारभूत ढांचा भी बेहतर है.” वह कहते हैं कि पहले सोवियत संघ जाने वाले छात्रों को भाषा की समस्या थी. लेकिन चीन में अंग्रेजी में पढ़ाई होने की वजह से यह समस्या खत्म हो गई है. चीन में लगभग 52 विश्वविद्यालयों में मेडिकल की पढ़ाई होने की वजह से वहां सीटों की तादाद ज्यादा है. पढ़ाई का खर्च कम होने और आधारभूत सुविधाएं होने की वजह से ही वह छात्रों की पहली पसंद के तौर पर उभर रहे हैं.

अगले महीने चीन जा रही एक छात्रा श्रुति हाल्दार के पिता सुब्रत हाल्दार कहते हैं, “पिछले साल मैंने दक्षिण के कुछ कॉलेजों में बात की थी. उन सबने 60 से 75 लाख रुपये तक की फीस मांगी थी. खाने-पीने और रहने का खर्च अलग था. मेरी बेटी का साल बेकार हो गया क्योंकि मैं उतनी बड़ी रकम नहीं दे सकता था.” इस साल चीन में पांच साल की फीस के तौर पर 15 लाख देकर ही श्रुति को दाखिला मिल गया है. देश के महानगरों ही नहीं, बल्कि छोटे-छोटे कस्बों के छात्र भी अब आंखों में डाक्टर बनने की सपना लिए चीन की उड़ान भर रहे हैं. आल इंडिया फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट्स एसोसिएशन के अध्यक्ष नरूल अमीन की शिकायत है कि एमसीआई जानबूझ कर ऐसे छात्रों के साथ भेदभाव करता है. वह कहते हैं, “परीक्षा के पेपर काफी कठिन होते हैं. ऐसे छात्रों को बेवजह परेशान किया जाता है. एमसीआई सिर्फ दिल्ली में ही यह परीक्षा आयोजित करने पर जोर देती है.” अमीन का आरोप है कि छात्रों को विदेश जाने से हत्साहित कर देश के निजी कालेजों को बढ़ावा देने के मकसद से ही ऐसा किया जाता है. वह कहते हैं कि देश में जब तक सरकारी कॉलेजों में सीटें नहीं बढ़ती और निजी कालेजों की बढ़ती फीस पर अंकुश लगाने का कोई तंत्र नहीं बनता, छात्रों का विदेश पलायन बढ़ता ही रहेगा.प्रभाकर, कोलकाता

शायद यही वजह है कि एमसीए के कथित भेदभाव और कई दूसरी दिक्कतों के बावजूद हर साल सितंबर में चीन जाने वाली उड़ानें ऐसे छात्रों से भरी रहती हैं.

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