अंग्रेज तथा प्रगतिशील इतिहासकारों ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को एक विद्रोह मात्र साबित करने का प्रयास किया था, लेकिन व्यापक तथ्यांे के आधार पर उनके तर्क बेमानी साबित हुए हैं। यह ठीक है कि कुछ राज्य ब्रिटिश शासकों की विस्तारवादी नीति से नाराज थे। लेकिन जब लक्ष्मीबाई ऐलान करती है कि वह अपनी झांसी नहीं देगी, तब सिंहासन की ललक ही नहीं होती, यह स्वतंत्रता के प्रति उनका सममान था।
अंग्रेज तथा प्रगतिशील इतिहासकारों ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को एक विद्रोह मात्र साबित करने का प्रयास किया था, लेकिन व्यापक तथ्यांे के आधार पर उनके तर्क बेमानी साबित हुए हैं। यह ठीक है कि कुछ राज्य ब्रिटिश शासकों की विस्तारवादी नीति से नाराज थे। लेकिन जब लक्ष्मीबाई ऐलान करती है कि वह अपनी झांसी नहीं देगी, तब सिंहासन की ललक ही नहीं होती, यह स्वतंत्रता के प्रति उनका सममान था।
वह परतंत्रता स्वीकार करके राजमहाल में सुखपूर्वक रह सकती थीं। लेकिन उन्होंने समझौते की जगह जान न्यौछावन करना अच्छा समझा। इसे विद्रोह मात्र कहना अन्याय और इतिहास की गलत व्याख्या होगी। ऐसी प्रेरणा से कई अन्य राज्यों ने इसमें अपनी भूमिका का निर्वाह किया था।
लेकिन ऐसे लोगों की संख्या सीमित थी। संग्राम में सबसे बड़ी भागीदारी आमजनता की थी। जो ब्रिटिश दासता से मुक्ति चाहते थे। यही कारण था कि जब भारतीय राजाओं के सहयोग से अंग्रेजों ने स्वतंत्रता संग्राम को विफल कर दिया था, उकसे बाद गांव-गांव तक उन्होने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को फांसी पर लटकाया था। यह संख्या लाखों में थी। इससे साबित है कि यह स्वतंत्रता संग्राम था।
भारत विश्व की सर्वाधिक प्राचीन सभ्यता वाला देश है। दूसरे शब्दों में विश्व की अन्य प्राचीन सभ्यताएं काल के गर्त में समाती गयीं, लेकिन यह सही कहा गया कि कोई बात है जो हस्ती मिटती नहीं हमारी, जबकि विदेशी आक्रांताओं का सदियों तक जुल्मी दौर चला, लेकिन वह चाहकर भी भारत की मूल पहचान को मिटा नहीं सके।
इतिहास के लंबे उतार-चढ़ाव में बहुत कुछ बदला, लेकिन एक बात निर्विवाद है-जब-जब भारत को शक्तिशाली नेतृत्व मिला, उसका विश्व में महत्व बढ़ा। इसके विपरीत जब-जब राष्ट्रीय स्वाभिमान और गौरव की जगह आत्मग्लानि या हीनता की भावना प्रभावी हुई तभी देश को दुर्दिन देखने पड़े। इसी के कारण हमको सदियों तक परतंत्र रहना पड़ा।
हमारे महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जानते थे कि निर्बलता के कारण आक्रांताओं को यहां पैर जमाने का अवसर मिला। यह निर्बलता शारीरिक नहीं थी। वरन् यह मानसिक निर्बलता थी, जिससे आत्मबल कम हो गया। हमारे ही लोगों का सहारा लेकर विदेशियों ने यहां शासन किया। ब्रिटिश काल में हमारे लाखों सैनिक थे। वीरता में कोई कम नहीं। अधिकारी अंग्रेज थे। राष्ट्रीय स्वाभिमान नहीं था, इसलिए हमारे सैनिक उनके इशारों पर चलते थे।
ब्रिटिश सत्ता की मजबूती के लिए काम करते थे। अपने ही लोगों का दमन करते थे। स्वतंतत्रा संग्राम सेनानियों पर गोली बरसाते थे, अन्यथा अंग्रेजों में इतना दम कहां था कि वह हमारे ऊपर शासन करते रहें। यही मुस्लिम आक्रांताओं पर लागू था। हमारे ही लोगों ने उन्हें आमंत्रित किया था। अपनी वीरता उनको मजबूत बनाने में लगाते थे।
1857 में ही भारतीय सैनिकों की संख्या करीब एक लाख चालीस हजार थी। अफसरों की संख्या ढाई हजार से कुछ अधिक थी। ये सभी अंग्रेज थे। उनके इशारों को हमारे लोगों ने माना। सेनानियों से लड़े। ग्वालियर, पटियाला के राजाओं ने अंग्रेजों को सहयोग दिया। इस तरह अपनों के कारण ही हम 1857 में अंग्रेजों को देश से बाहर नहीं निकाल सके। फिर भी यह सैनिक विद्रोह नहीं था, ना तो यह उन राजाओं की बगावत थी जिनकी सत्ता अंग्रेज छीन रहे थे। यह अंग्रेजों के राजनीतिक आर्थिक व सांस्कृतिक शोषण के कारण जनमानस में उपजी नाराजगी का परिणाम था।
देश हमारा, शासन उनका, इससे बड़ा राजनीतिक शोषण क्या हो सकता था। अंग्रेज हमारे कुटीर उद्योगों को समाप्त करके हमें रोजगार विहीन बना रहे थे। भारत का कच्चा माल ब्रिटेन जाता था। यह आर्थिक शोषण था। वह सांस्कृतिक रूप से भी शोषण करते थे। ईसाई धर्म अपनाने वालों को तरक्की मिलती थी। इसीलिए 1857 में रोटी और कमल को इसीलिए प्रतीक बनाया गया था।
रोटी उस गरीबी, बेरोजगारी की प्रतीक थी, जो अंग्रेजों के कारण बहुत बढ़ी थी। कमल हमारी संस्कृति का प्रतीक था, जिसे अंग्रेज नष्ट कर रहे थे। वह धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करते थे, कानून में मनमाना परिवर्तन करते थे, अयोग्य व्यक्तियों को महत्व देते थे। इस कारण संग्राम हुआ। यह तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं थी।
1857 स्वतंत्रता संग्राम के लार्ड बेकन द्वारा बताए गये कारण सच के अधिक करीब है। इनसे भी साबित होता है कि यह मात्र राजाओं का विद्रोह नहीं था। उनका कहना था कि 1857 के कई वर्ष पहले से अंग्रेजों ने धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप बहुत बढ़ा दिया था। वह हिन्दू और मुसलमान दोनों को ना केवल हेय ²ष्टि से देखते थे, वरन ईसाइयत का प्रचार भी बढ़ना चाहते थे। इस क्रम में उन्होंने भारतीय शिक्षा की गांव-गांव तक फैली व्यवस्था को भी मिटाना शुरू कर दिया था।
भारत में आर्थिक स्वावलंबन था। गांव-गांव तक यह व्यवस्था थी। गांव आत्मनिर्भर ईकाई थे। अंग्रेजो ने इसे भी ध्वस्त किया। वह अपने देश में निर्मित माल यहां खपाना चाहते थे। इन बातों के कारण लोगों में असंतोष था। इसलिए उन्होंने स्वतंत्रता के लिये संघर्ष किया। इसमें संदेह नहीं कि यह अधिक सुनियोजित हो सकता था। इसके बावजूद यदि भारत के ही कतिपय राज्य अंग्रेजों का साथ ना देते तो उसी समय स्वतंत्रता मिल गयी होती।
लार्ड कैनिंग ने अपनी रिपोर्ट में स्वीकार भी किया- यदि पटियाला और ग्वालियर के राजा सहयोग ना करते तो 1857 में भारत से ब्रिटिश राज्य समाप्त हो गया होता। (आईएएनएस/आईपीएन)
(ये लेखक के निजी विचार हैं)