ईश्वर की अदृश्य उपस्थिति को जानने के लिए हमें ईश्वर से प्रेम करना होगा। दिव्य पुरुष वह है जो उन्हें खोज लेता है। दिव्य पुरुष उस परमात्मा का बोध रखता है जो हमारे अंतस में विद्यमान है। उसे बोध रहता है उस परमशक्ति का जो सभी शक्तियों के पीछे कार्य कर रही है। वास्तव में हम ईश्वर को हर समय देखते रहते हैं। वह परमशक्ति यद्यपि अदृश्य है, लेकिन बहुत ही प्रत्यक्ष है। ईश्वर गुप्त रहना पसंद करते हैं। इसलिए उनके बारे में सोचना और उनसे प्रेम करना कठिन हो जाता है। ईश्वर को जानने का सरलतम मार्ग है- प्रेम का मार्ग। उसे जानने का एक मार्ग ज्ञान योग से संबंधित है।
एक अन्य मार्ग कर्म योग का है, जिसका आशय है सत्कर्म करते हुए कर्मफलों को ईश्वर को अर्पित करते जाना। इसके बाद आता है भक्ति योग का मार्ग। हमें सतत रूप से तब तक ईश्वर का विचार करते रहना चाहिए जब तक वे प्रत्येक वस्तु में दिखाई न देने लग जाएं। ईश्वर की उपस्थिति इतनी निकट है, जैसे कोई हमारे साथ किसी अंधेरे कमरे में आंख मिचौली खेल रहा हो। ईश्वर का भक्त बनने के लिए हमें उन्हें देखने की आवश्यकता नहीं है। भक्ति का अर्थ है कि हम जानते हैं कि ईश्वर इस बहमांड की अंधकारमय पहेली में हमारे चारों ओर सर्वव्यापी है। जीवन के सभी संघर्ष एक बाधा-दौड़ की तरह होते हैं जिन्हें हमें ईश्वर की अनुभूति प्राप्त करने के लिए पार करना होता है। जब इस बाधा-दौड़ का अंतिम चक्कर समाप्त होगा तो हम ईश्वर के अक्षय-प्रेम को प्राप्त करने में सफल होंगे। बाधाओं एवं समस्याओं का सामना करने से हम बच नहीं सकते, लेकिन हमारी अनन्य भक्ति प्रभु के सानिध्य का निरंतर बोध कराती रहती है। पीड़ा निर्दयता के रूप में या हमारा विनाश करने के लिए नहीं आती है, बल्कि यह याद दिलाने के लिए आती है कि हमें उस अपरिवर्तनशील परमात्मा तक पहुंचना है जहां समस्त पीड़ाओं का अंत हो जाता है। जीवन का सारा नाटक पीड़ा और ईश्वरीय प्रेम के बीच है। यदि हम ईश्वर के साथ प्रेममय पिता-पुत्र संबंध का अनुभव कर लें तो हमें बिना कहे वह सब प्राप्त हो जाएगा जिसकी हमें जीवन में आवश्यकता है।