मुजफ्फरपुर (बिहार), 3 मई (आईएएनएस)। बिहार के मुजफ्फरपुर में पिछले 21 वर्षो से एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम (एईएस) का कहर जारी है। इस बीमारी के कारण अब तक सैकड़ों मासूम असमय काल की गाल में समा चुके हैं।
मुजफ्फरपुर (बिहार), 3 मई (आईएएनएस)। बिहार के मुजफ्फरपुर में पिछले 21 वर्षो से एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम (एईएस) का कहर जारी है। इस बीमारी के कारण अब तक सैकड़ों मासूम असमय काल की गाल में समा चुके हैं।
काफी प्रयासों के बाद भी इस बीमारी के कारणों का पता नहीं चल सका है। अब तो इसका प्रकोप आस-पास के जिलों में भी फैलने लगा है।
उमस भरी गर्मी में होने वाली इस जानलेवा बीमारी में अब तक कुपोषण एक बड़ा कारण माना जाता रहा है। इससे मुक्ति दिलाना सरकार और प्रशासन की प्राथमिकताओं में शामिल नहीं होने की वजह से मौतों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। हालांकि सरकार और प्रशासन हर वर्ष की तरह इस बार भी जागरूकता अभियान के बलबूते मासूमों की मौत के आंकड़े को कम करने में जुट गए हैं।
मुजफ्फरपुर में चमकी से होने वाली मासूमों की मौत की कहानी बहुत पुरानी हो गई है। वर्ष 1994 में इस बीमारी ने जिले में गरीब और मलिन बस्तियों में पहली बार दस्तक दी थी, एक साल बाद ही 1995 में बीमारी ने भयंकर रूप धारण कर लिया था। तब से लेकर अब तक हर साल मासूमों की मौत हो रही है। हर साल सरकार की फाइलों में मासूमों की मौत के आंकड़े बढ़ते जाते हैं।
आंकड़ों पर नजर डालें तो वर्ष 2010 में 72 प्रभावित बच्चों में से 27, वर्ष 2011 में 149 प्रभावित बच्चों में से 55, वर्ष 2012 में 465 प्रभावितों में से 184, 2013 में 172 में से 62 जबकि पिछले वर्ष 868 बच्चों में से 163 बच्चों की मौत इंसेफ्लाइटिस से हुई है।
ये आंकड़े सरकारी हैं, जबकि गैर-सरकारी आंकड़ों में मौत का ग्राफ काफी ऊंचा है। वर्ष 2010 से पहले के आकड़े स्वास्थ्य विभाग के पास उपलब्ध भी नहीं हैं। बीमारी का कहर मुजफ्फरपुर ही नहीं, बल्कि पूर्वी चंपारण, सीतामढ़ी, शिवहर, वैशाली, पश्चिम चंपारण और समस्तीपुर जिले तक में फैल रहा है। पिछले साल सबसे अधिक मुजफ्फरपुर जिले में 704 मामले सामने आए, जिनमें से 91 बच्चों की मौत हो गई थी।
इस साल भी गर्मी के दस्तक देते ही पहला मामला सीतामढ़ी के रुन्नीसैदपुर से आ चुका है। अप्रैल माह से शुरू होने वाली इस बीमारी का कहर जून महीने में बढ़ जाता है, क्योंकि इस मौसम में शरीर से काफी मात्रा में पसीना निकलने लगता है।
अब तक गरीब परिवार के कुपोषित बच्चे ही इस बीमारी की चपेट में आते रहे हैं। चमकी, तेज बुखार, उल्टी और बेहोशी इस बीमारी के लक्षण हैं। यह बीमारी एक साल से लेकर 10 साल तक के बच्चों को अपनी चपेट में ले रही है।
पिछले चार वर्षो से स्वास्थ्य विभाग केंद्रीय ऐजेंसियों का सहारा लेती रही है, फिर भी इस रहस्यमयी बीमारी के कारणों का पता नहीं चल सका है। पिछले साल नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल, नई दिल्ली द्वारा बीमार बच्चों के रक्त के नमूने को अमेरिका का अटलांटा भी भेजा गया, लेकिन वायरस की पहचान नहीं हो पाई। पुणे की नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (एनआईवी) की टीम भी प्रभावित क्षेत्रों का दौरा कर चुकी है।
बीमारी के कारणों का पता लगने तक इलाज के लिए विशेषज्ञों द्वारा एक मानक बनाया गया है। मानक के तहत ही एईएस के लक्षण वाले बच्चों का इलाज किया जाना है। इसमें ग्लूकोज की मात्रा को शरीर में बनाए रखने पर जोर दिया गया है।
मुजफ्फरपुर के श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज अस्पताल (एसकेएमसीएच) में एईएस पीड़ित बच्चों का वर्षो से इलाज कर रहे चिकित्सक डॉ़ गोपाल शंकर सहनी का मानना है कि वायरस का पता नहीं चलने से वातावरणीय कारणों को बल मिल रहा है। ऐसे में बच्चों के शरीर में ग्लूकोज और सोडियम की मात्रा को संतुलित कर उन्हें बचाने में विशेष मदद मिलेगी।
विशेषज्ञों का मानना है कि बच्चों को धूप में नहीं निकलने देने और शरीर का ताप कम रखने और सही खान-पान से बीमारी से लड़ा जा सकता है। इस बीमारी से बच्चों को बचाने के लिए मुजफ्फरपुर जिला प्रशासन और स्वास्थ्य विभाग ने जागरूकता अभियान पर विशेष जोर दिया है।
बिहार के स्वास्थ्य मंत्री रामधनी सिंह ने आईएएनएस को बताया कि मुजफ्फरपुर के सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों में विशेष जागरूकता अभियान चल रहा है। इस दौरान जिले के आठ लाख से ज्यादा घरों में जाकर जागरूकता फैलाने का लक्ष्य रखा गया है।