कहते हैं आसपास का परिवेश इंसान के व्यक्तित्व पर गहरा असर डालता है, साहित्यकार के साथ भी काफी हद तक ऐसा ही होता है। अनिल खम्परिया पर यह बात पूरी तरह से खरी उतरती है। लगनशील लेखक, कल्पनाशील कवि, प्रखर पत्रकार और शिक्षक अनिल व्यंग्यशिल्पी हरिशंकर परसाईजी को गुरु मानते हैं, इन्हें जनकवि नागार्जुन का स्नेह सान्निध्य भी मिला है।
अनिल खम्परिया का जन्म 10 जुलाई 1954 को मध्यप्रदेश के कटनी में हुआ। इनको गीतों की प्रेरणा अपनी मां से मिली। मां मधुर कंठ से लोकगीत, लोरियां और भजन गाया करती थीं। बाल्य अवस्था से ही अनिल ये सब सुनते और देखते थे, चूंकि आपके पिता शिक्षक थे, इसलिए अनुशासन का पाठ भी घर से ही मिला।
प्रख्यात शिक्षाविद् आत्मानंद मिश्र का भी आप पर गहरा प्रभाव पड़ा है। कथाकार उदय प्रकाश ने भी आपकी लेखनी को तेज प्रदान किया। इन सारे साहित्य माणिकों की चमक आपके लेखन में स्पष्ट झलकती है।
अनिल खम्परिया की कालजयी रचना ‘नदी’ ने कवि के रूप में उन्हें पहचान दी। इस कविता को उनकी काव्य प्रतिभा का बेजोड़ उदाहरण भी माना जाता है। इस रचना में नदी के माध्यम से देश में जिस सांस्कृतिक सेतु की रचना की है, वह अनन्य है। इसके अलावा आपकी प्रसिद्ध रचनाओं में ‘ताजमहल’, ‘खजुराहो’, ‘महानगर’, ‘छकौड़ी’ आदि काफी लोकप्रिय रही हैं।
कविताओं ने अनिल को आकाशवाणी, दूरदर्शन से लेकर अखिल भारतीय काव्य मंचों तक एक अलग ही पहचान दी। आप मैन ऑफ द इयर, विद्यापति सम्मान, दूरदर्शन सम्मान, मिलन संस्था का सम्मान, महाकौशल साहित्य एवं संस्कृति परिषद् के सारस्वत जैसे साहित्य सम्मानों से सम्मानित हैं।
प्रश्न : अनिल जी आपका साहित्य के क्षेत्र में बहुत छोटी-सी उम्र, बल्कि कहूं कच्ची उम्र में, जिसमें आमतौर युवा इसका मतलब भी नहीं समझता है, आना हुआ। कोई खास वजह थी?
उत्तर : मुझे इसकी सबसे पहली प्रेरणा मेरी माताजी से मिली। घर में धार्मिक माहौल रहा। माताजी भजन, लोकगीत और लोरियां बहुत ही मीठे स्वर में गाती थीं। उनका गायन मुझे लुभाता था, बस मैंने भी अपनी तुकबंदी शुरू कर दी। चूंकि मेरे पिताजी भी हेडमास्टर थे, विद्यालय में भाषण गीत और कविता प्रतियोगिता आयोजित करते थे, सो काव्यमय वातावरण घर और विद्यालय दोनों ही जगह मिला बस यहीं से शुरुआत हो गई। मैं विद्यालय में बाल सभाओं में बढ़चढ़कर हिस्सा लेता था। मेरी तुकबंदियां सबको पसंद आती थीं, बस इसी प्रेरणा ने मुझे कब कवि बना दिया पता ही नहीं चला।
प्रश्न : आप शिक्षक हैं, संपादक हैं, कवि हैं, साहित्यकार हैं, कैसे सामंजस्य कर पाते हैं अपनी इन भूमिकाओं से?
उत्तर : बहुत ही सामयिक सवाल है। मुझसे भी अक्सर पूछा जाता है। लेखक, कवि, शिक्षक सबकी अपनी अलग भूमिका होती है। मुझे इन सभी भूमिकाओं में जीना होता है। कवि सम्मेलनों में मैं कई-कई दिन बाहर रहता हूं, ऐसे में विद्यालय छूट जाता है। वापस आकर सबसे पहले उस क्षति को पूरा करता हूं। एक दिन में 24 घंटे ही होते हैं, पर करना तो है लेकिन मुझे आदत हो गई है ऐसे माहौल में जीने की, इसलिए जितना व्यस्त होता हूं उतना ही अच्छा करता हूं।
प्रश्न : कई राष्ट्रीय चैनलों में बतौर कवि आपकी प्रभावशाली उपस्थिति रही है। सबसे यादगार क्षण?
उत्तर : अंडमान निकोबार कवि सम्मेलन में कवियों के साथ बीते नौ दिन सबसे यादगार हैं। इन दिनों डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र, नईम, रामविलास शर्मा, राजेश जोशी, महेश्वर तिवारी, अम्बर प्रियदर्शी जैसे नामचीन और स्थापित साहित्य मनीषियों के साथ लगातार रहने का मौका मिला। यह मेरे साहित्यिक जीवन के लिए एक महाकुंभ जैसा था, काफी कुछ सीखने और जानने को मिला।
प्रश्न : आप प्रगितशील लेखक संघ (प्रलेस) व भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) की पत्रिका ‘यात्रा’ के संपादक भी हैं। किन विचारों और संदेशों की वाहक है यह पत्रिका?
उत्तर : ‘यात्रा’ जनवादी सोच की पत्रिका है। यह जनाकांक्षाओं के स्वर तथा वर्गहीन समाज की स्थापना के भाव को मुखरित करती है। इस पत्रिका में उन रचनाओं का समन्वय रहता है, जिनमें कला, सौंदर्य, जनभावनाओं और जीवन के महत्तम आदर्शो पर समाहित हों। इसी वजह से यह पत्रिका काफी लोकप्रिय हुई। ‘यात्रा’ का कहानी विशेषांक, कविता विशेषांक और नाटक विशेषांक प्रकाशित हो चुके हैं। इस पत्रिका द्वारा शरद बिल्लोरे स्मृति सम्मान भी प्रदान किया जाता है। पहला पुरस्कार एकान्त श्रीवास्तव को दिया गया। एकान्त श्रीवास्तव कोलकता में स्थापित हिंदी पत्रिका ‘वागर्थ’ के संपादक और वहां के हिंदी संस्थान के निर्देशक भी हैं।
प्रश्न : वर्ष 2012 में आपने अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन में रूस के ताशकंद में भारत का परचम फहराया और मध्यप्रदेश का प्रतिनिधित्व किया है। कैसा लगता है जब विदेशों में हिंदी की थाती चौड़ी होता देखते हैं?
उत्तर : यह किसी भी व्यक्ति के लिए बहुत ही गौरव की बात होती है, जब वह देश के प्रतिनिधि के रूप में विदेश जाए। मैंने भी ताशकंद में उस वर्ष 24 जून से 1 जुलाई तक पांचवें अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन में भाग लिया। सच कहूं, जब विदेशी धरती पर हम अपनी मातृभाषा के लिए जुटते हैं और कुछ करते हैं तो बहुत ही सुखद अनुभूति तो होती है। लेकिन उससे भी ज्यादा तब अच्छा लगता है जब बहुत बड़ी संख्या में वहां के लोग आते हैं, हिस्सा लेते और गौर से सुनते हैं इसके अलावा हिंदी में गहरी दिलचस्पी लेते हैं। सही कहूं तो विदेश जाकर पता चलता है कि हमारी हिंदी कितनी समृद्ध और सशक्त है।
प्रश्न : ताशकंद के कुछ रोचक संस्मरण?
उत्तर : ताशकंद में केजी कक्षा से लेकर कॉलेज तक मुफ्त शिक्षा की व्यवस्था काफी अच्छी और प्रभावशाली लगी। साफ, सुथरा और हरा-भरा देश है। जितनी ज्यादा हरियाली है, उतनी ही ज्यादा स्वच्छता का अदभुत नजारा था। यह सब दिल को छू गया। वहां आबादी के बीच कोई भी धार्मिक स्थल नहीं दिखा। पर्यावरण और प्रदूषण को लेकर काफी सजगता दिखी। ध्वनि प्रदूषण तक को लेकर वहां काफी सचेत हैं। वहां लाउडस्पीकर तो दूर की बात, तेज आवाज के साउंडबॉक्स तक कहीं नहीं दिखे।
प्रश्न : साहित्य सर्जना के क्षेत्र में आपका सबसे यादगार क्षण?
उत्तर : प्रख्यात साहित्यकार एकान्त श्रीवास्तव के हाथों सृजन सम्मान प्राप्त करना।
प्रश्न : भारतीय लेखन क्षेत्र में आप किन-किन लेखक, लेखिकाओं से प्रभावित हैं और क्यों?
उत्तर : जब मुझे बीएड करने के लिए सागर जाना पड़ा तो वहां प्रख्यात साहित्यकार उदय प्रकाशजी के संपर्क में आया और एक साल तक उनका रूममेट बनकर रहने का सौभाग्य मुझे मिला। उनके सान्निध्य में मार्क्सवाद के प्रति रुझान हुआ और यहीं प्रगतिशील लेखक संघ के संपर्क में आया। इसके बाद देश के जाने माने व्यंग्यशिल्पी हरिशंकर परसाईजी का मुझे सान्निध्य और भरपूर स्नेह मिला। मैं एकलव्य की तरह परसाईजी को गुरु मानता था। बाबा नागार्जुन की विशेष कृपा मुझ पर रही है। मुझ पर उनकी कृपा ही थी कि वह 8-10 दिन तक मेरे निवास पर ठहरते, मुझे उनका भरपूर सान्निध्य, स्नेह और आशीर्वाद प्राप्त हुआ। डॉ. कमला प्रसाद पांडे, ज्ञानरंजन और सुबोध श्रीवास्तव का मेरी साहित्य यात्रा में भरपूर मार्गदर्शन एवं सहयोग रहा।
प्रश्न : आपकी कोई अभिलाषा? अवसर मिलने पर सबसे पहले आप क्या करना चाहेंगे करेंगे?
उत्तर : अपने गीत संग्रह का प्रकाशन।
प्रश्न : अपने पाठकों को क्या संदेश देंगे?
उत्तर : पत्र-पत्रिका निकालना वर्तमान दौर में सबसे कठिन कार्य है। उम्मीद है, पाठक इसे अवश्य समझेंगे। मुझे एक कविमित्र की यह पंक्ति याद आ रही है- ‘जैक पर टिके हुए लोग, सुविधा में बिके हुए लोग, बरगद पर कर रहे विचार, गमलों में उगे हुए लोग’। हिंदी समृद्ध होते हुए खूब फले-फूले और यह सब तब होता है, जब सुधी पाठक साथ होता है।