मंत्रों और स्तोत्रों का कोई अर्थ नहीं होता। अर्थ किया भी जाए तो उसका कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि मंत्रों और उनसे मिलकर बने स्तोत्रों के अर्थ तो बहुत सामान्य होते हैं। प्रार्थना को ही उद्देश्य समझें तो मंत्रों या स्तोत्रों के अर्थ से ज्यादा भाव भरी प्रार्थनाएं रची जा सकती है।
उनके अर्थ मंत्रों के अर्थ से ज्यादा गंभीर और प्रांजल हो सकते हैं। पर मंत्रों में अर्थ नहीं उसमें आए अक्षरों का बल काम करता है। वेदानुसंधान केंद्र अजमेर के सत्यव्रत आचार्य का कहना है कि वेदमंत्रों का अभिधा या लक्षणा शक्ति में कोई अर्थ नहीं होता। व्यंजना शब्दशक्ति के अनुसार अर्थ हो सकता है और विभिन्न विद्वानों ने इस तरह के अर्थ करने की कोशिश भी की है।
अलग अलग विद्वानों द्वारा किए इन अर्थों में अक्सर अंतर होता है। यह अर्थ ही कई बार विवाद का कारण बनता है। श्री अरविंद ने वेदरहस्य में लिखा है कि वेदमंत्रों का अर्थचिंतन किया जाए तो भूलने भटकने का खतरा ही रहता है। बेहतर होगा कि वेदों या मंत्रों का अध्ययन करने के बजाय उनकी साधना की जाए।
साधना से संस्कारित चित्त मे मंत्रों के अर्थ भले ही उभर कर न आएं, उनका लाभ अवश्य मिलता है। आचार्य सत्यव्रत के अनुसार ओम या ह्रीं, क्लीं, ह्रूं आदि बीज मंत्रों का कोई अर्थ नहीं होता पर इनका जप चमत्कारी असर करता है। ओम के बारे में गोविंद शास्त्री और डा.श्रीमाली का मत है कि इस मंत्र का भी कोई अर्थ नहीं होता पर इस एकाक्षर या तीन ध्वनियों वाले मंत्र का जप गृहस्थ और संसारी लोगों के लिए खास लाभदायक नहीं है।
इस मंत्र का जप बहुधा साधक में प्रबल बैराग्य भाव उत्पन्न कर देता है। कई बार इस तरह का साधक संन्यासी भी हो जाता है। उनके अनुसार यह ध्वनि एकमेव और अद्वितीय ब्रह्म को संबोधित करता है। इसलिए साधक को मंत्रों का चुनाव करते समय सावधानी बरतनी चाहिए। कम से कम उनके अर्थ को तो महत्व देना ही नहीं चाहिए।