Monday , 6 May 2024

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दिल्ली के बाद बिहार में किसकी होगी सरकार

नई दिल्ली, 17 सितम्बर (आईएएनएस)। क्या बिहार में होने जा रहे चुनावों का आधार दलित, महादलित, अल्पसंख्यक और पिछड़े ही हैं, और क्या इन्हें इनकी हैसियत बता, जात-पात का कार्ड खेलकर ही सत्ता तक पहुंचने का रास्ता बनता है।

नई दिल्ली, 17 सितम्बर (आईएएनएस)। क्या बिहार में होने जा रहे चुनावों का आधार दलित, महादलित, अल्पसंख्यक और पिछड़े ही हैं, और क्या इन्हें इनकी हैसियत बता, जात-पात का कार्ड खेलकर ही सत्ता तक पहुंचने का रास्ता बनता है।

एक ओर बिहार के प्रभावी नेता कहते हैं, वहां के चुनाव देश में राजनीति की बयार और दिशा तय करने वाले होंगे दूसरी ओर बिहार में विकास के बजाए जातिगत कार्ड भी खेलते हैं। 21वीं सदी के आधुनिक भारत का सपना देखते हुए भी यह सब बड़ा अटपटा नहीं लगता? सुशासन, स्वाभिमान, जंगलराज, मण्डल-कमण्डल का जिन्न चुनाव के दौरान ही क्यों एकाएक बाहर आ जाता है।

बिहार में सवा दो करोड़ मतदाता पिछड़े, अति पिछड़े और गैर यादव-कुर्मी जाति के हों या फिर 45 लाख नौजवान मुसलमान वोटर हों, सभी दलों का फोकस इन्हीं पर सबसे ज्यादा है। जाहिर है सारा खेल इन्हीं के आसरे और लुभाने के लिए खेला जा रहा है। विडंबना यह कि चुनावों के वक्त ही बिहार में खूब सियासत होती है।

गठबंधन की राजनीति अब विवशता है, धड़ेबाजी में बंटे लोगों को रिझाने-लुभाने के लिए एक से एक हथकण्डों के बीच भाजपा के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पहले ही सभाएं कर, खुद को भी पिछड़ा बता जाति का कार्ड खेल चुके हैं। भाजपा बहुत ही होशियारी से छोटे-छोटे राजनीतिक दलों को साधकर चल रही है यानी पिछड़ा, दलित, महादलित कार्ड के दम पर किसी भी कीमत पर बिहार की सत्ता हथियाने में वैसी चूक नहीं चाहती जो दिल्ली में अतिविश्वास के चलते हुआ, मुख्यमंत्री के नाम की घोषणा से भी परहेज कर, हर कदम फूंक-फूंक कर।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चुनावों की घोषणा के काफी पहले बिहार का दौरा शुरू कर दिया था। सरसा, आरा, गया सहित कई जिलों में रैलियां कर लीं। आरा में सवा लाख करोड़ के पैकेज की घोषणा करके भी जनमत को लुभाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। दलित, महादलित और पिछड़ों को साधने के लिए रामविलास पासवान और जीतन राम मांझी को न केवल साथ रखा बल्कि सीटों के नाम पर खासा मान-मनौवल कर यह संदेश भी दिया कि वो सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखते हैं।

बिहार में 1 करोड़ 10 लाख मुसलमान मतदाता हैं। इन्हें लालू-नीतिश और कांग्रेस का जनता परिवार या महागठबंधन अपने लिए सुरक्षित वोट बैंक मानकर चल ही रहा था कि ऑल इण्डिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने बिहार में सीमांचल से चुनाव लड़ने की घोषणा कर, मुसलमानों को वोट बैंक मानकर चल रहे दलों के खातों में, सेंधमारी कर दी बल्कि चिन्ता भी बढ़ा दी है।

ओवैसी का सीमांचल में प्रत्याशी उतारने का मतलब 37 सीटों पर खतरा जो पूर्णिया और कोसी मण्डल की क्रमश: 24 और 13 होंगी। सर्वविदित है कि सीमांचल की 25 सीटों पर मुस्लिम मतदाता निर्णायक होते हैं और 12 में परिणामों को प्रभावित करते हैं। अगर मुस्लिम मतदाताओं की संख्या की बात करें तो अररिया और पूर्णिया में 35-35, कटिहार में 45 और किशनगंज में 68 प्रतिशत मतदाता हैं। जाहिर है यह महागठबंन के पक्के वोट हैं जो ओवैसी के चुनावी समर में कूदने के बाद किधर जाएंगे वक्त बताएगा।

यानी संशय की स्थिति बन गई है और चुनाव रोचक होंगे। सबको पता है कि ओवैसी की चुनावी रैलियां कितनी आक्रामक होती हैं और वो किस तरह से मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण में कामियाब होते हैं। यानी नुकसान सिर्फ और सिर्फ महागठबंधन का ही तय है। महाराष्ट्र के चुनाव में भी ओवैसी का प्रभाव दिख चुका है। भले ही उन्हें 2 सीट मिली हो लेकिन नुकसान किसको कितना हुआ, सबको पता है।

ओवैसी की इस घोषणा से भाजपा बहुत ही खिली हुई दिखती है, पता नहीं कौन सा समीकरण सटीक बैठेगा, अलबत्ता यह कहना कि सीमांचल में भारतीय जनता पार्टी पहले भी जीतते आई है, बड़ा संकेत जरूर है। दलित, महादलित, पिछड़े, अल्पसंख्यकों के आंकड़ों के बीच लालू-नीतिश की जाति या जातियों का समीकरण अलग नहीं होगा और न ही कांग्रेस इससे इतर होगी। लालू-नीतिश के बड़प्पन, कांग्रेस-राहुल का प्रभाव, देश में सियासी बयार, मोदी सरकार के लिए दिल्ली के बाद बिहार, बस देखना यही है कि वहां किसकी होगी सरकार। (आईएएनएस)

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है और लेख में व्यक्त उनके निजी विचार हैं।)

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