जीवन निरंतर चलने का नाम है समय न कभी रूका है और न रूकेगा हम अपनी सुविधा अनुसार इसे श्रेणियों में जरूर बांट लेते है कभी चैत की प्रतिपदा में नववर्ष मनाते है तो कभी एक जनवरी को । और इस बहाने हम कुछ न कुछ उत्सवी भी हो जाते है तो कभी कुछ न कुछ नया करने की ठान भी लेते है । ऐसा ही एक अवसर आज फिर हमारे सामने है जब हम बीते वर्ष (2014) से बिदा लेते हुये नये वर्ष (2015) में प्रवेष कर रहे है।
वैसे तो आज की प्रतिस्पद्री जिंदगी में हमें ठीक से खाने, पीने, सोने को समय वमुष्किल मिल पाता है फिर ऐसे में सोचने, विचारने, चिंतन के लिये वक्त ही नहीं मि पाता एक मजदूर की तरह पैसा कमाने में लगे रहते है और फिर एक चैकीदार बनकर उसकी रखवाली करते है। इस आपाधापी भरे जीवन में हमारे जीवन मूल्य भी खो जाते है। सत्य, प्रेम, करूणा की जगह हम झूठ, राग द्वेष और दुष्टता से भर जाते है, हामरे लिये सफलता सर्वोपरी हो जाती है और जीवन मूल्य गौण जबकि इतिहास के पन्ने इस बात के भरे पड़े है कि जिनका जीवन, जीवन मूल्यों के आधार पर रहा उनकी गौरव गाथा आज भी पढ़ी, लिखी एवं सुनाई जाती है और जिन्होंने सफलता के लिये जीवन मूल्यों को तिलांजलि दी उनका कोई नाम लेने वाला भी नहीं रहा । अधिकांष किले आज खंड्हर नजर आते है और अधिकांष कूड़ा करकट की जगहों पर महल बने है।
वर्तमान संदर्भ में जीवन मूल्यों की सबसे जरूरत सत्ता से जुड़े लोगों की है चाहे वे जनप्रतिनिधि हो या फिर अधिकारी, कर्मचारी क्योंकि इनके हाथ में ही सत्ता के सूत्र है। इनके निर्णयों से समाज और आम नागरिक के जन जीवन पर प्रभाव पड़ेगा, इसलिये ऐसे लोग जबभी निर्णय ले वह स्वार्थ से परे निज हित से परे सत्य के साथ सर्वषुभ का भाव लिये हो तो निष्चित ही हम एक बेहतर कल की ओर बढ़ सकते है लेकिन आज अधिकांष निर्णय वोट को ध्यान में रखकर किये जा रहे जिससे समाज दो वर्ग तैयार हो रहे एक है कर्मठ व्यक्तियों का समूह और दूसरा होता अकर्मण व्यक्तियों का, क्योंकि वोट की लालच में इतनी सुविधायें दे दी जाती है कि कुछ लोग तो कुछ करना ही नहीं चाहते । जबकि एक वर्ग ऐसा भी है जो दिन रात मेहनत कर रहा यात्रा करते -करते ही खा पी रहा है और सफलता के लिये कुछ भी कर रहा है, कुल मिलाकर नियमित दिनचर्या के साथ जीवन मूल्यों पर आधारित जीवन जीने वाले बहुत कम लोग इस दुनिया में बचे है। दुनिया की चाल ही इतनी तेज जो गई है कि उसके साथ कदम ताल करते करते आम आदमी अपनी चाल भूल गया है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है वह यही है कि सभी सफलता चाहिये और हर हाल में चाहिये सफलता चाहना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन उसके लिये स्वास्थ्य, जीवन मूल्य कुर्बान कर देना कहीं से समझदारी नहीं है, इसका उपाय केवल एक है कि हम सत्य, प्रेम एवं करूणा के साथ जीवन जिये इसमें फिर सफलता मिले या असफलता कोई फर्क नहीं पड़ता, फिर शांति और सद्भाव वातावरण तो बनेगा ही जीवन भी समझदारी के साथ जी पायेंगे और छोटे- मोटे लड़ाई झगड़े में न पड़कर हम किसी बड़े आंदोलन के लिये हमेषा तैयार रहेंगे, जैसा कि स्वतंत्रता के आंदोलन के लिये हमारे पूर्वजों ने कुर्बानी दी , हम भी अपने आपको सद्गुणों से, चरित्र से, ईमानदारी से मजबूत रखे और जब अपने स्वाभिमान पर, अधिकारों पर चोट पहुंचने लगे तो उसका जमकर प्रतिकार कर सके। हम आपस में एक दूसरे के प्रति द्धेष का भाव त्यागे, नषे से दूर रहे, सबके प्रति शुभ का भाव रखे, शायद यही शुभ संकल्प हमें नये वर्ष में मजबूत बनायेंगे ।
-देवदत्त दुबे
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