न्यूयार्क, 16 मई (आईएएनएस)। बोस्टन मैराथन में बम विस्फोट के दोषी जोखार सार्नेव और कोलारेडो के सिनेमाघर में गोलीबारी के दोषी जेम्स होम्स को मौत की सजा देने वाले न्यायाधीशों ने क्या पाप में यकीन के चलते ऐसा किया?
यानि क्या इसकी वजह यह थी कि न्यायाधीश इस धारणा में यकीन करते थे कि इंसान ऐसा भी हो सकता है जिसके अंदर सिर्फ बुराई ही भरी हो।
एक ताजा अध्ययन से पता चला है कि पाप में यकीन मृत्युदंड के प्रति हमारी सोच को प्रभावित करता है।
शोधकर्ताओं ने 200 लोगों के बीच यह अध्ययन किया, जिसमें प्रतिभागियों को एक ऐसे मामले की जानकारी दी गई जिसमें हत्यारे ने अपना जुर्म कबूल किया था।
उनसे पूछा गया कि वो इस हत्यारे को कौन सी सजा देना पसंद करेंगे। उन्हें सजा के रूप में सामाजिक काम के साथ कैद, पेरोल की सुविधा के साथ कैद, बिना पेरोल की सुविधा के साथ कैद और अन्य विकल्प सुझाए गए।
कंसास स्टेट यूनिवर्सिटी से जुड़े मुख्य शोधकर्ता डोनाल्ड सॉसियर के अनुसार, “अध्ययन में पाया गया कि जैसे-जैसे लोगों का यकीन दोषी के सौ फीसदी बुरे होने में बढ़ता गया, उसी अनुपात में उनका समर्थन बिना पेरोल की उम्र कैद, यहां तक की मौत की सजा में बढ़ता गया।”
उन्होंने बताया, “हमने अपने अध्ययन में पाया कि दरअसल ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि अध्ययन में हिस्सा लेने वालों ने हत्यारे को एक शैतान की तरह मानना शुरू कर दिया और उन्हें यह लगने लगा कि हत्या जैसी वारदात के बदले में कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए।”
इसके बाद शोधकर्ताओं ने हत्यारे की छवि इस तरह प्रस्तुत की जो पापी के बारे में समाज में प्रचलित धारणाओं से मेल खाती है।
सॉसियर ने कहा, “लोग यदि किसी इंसान के शैतान होने में यकीन रखते हैं तो उसके व्यक्तित्व का कोई भी पहलू कोई मायने नहीं रखता। लोग या तो उसके लिए उम्र कैद या फिर मौत की सजा का समर्थन करते नजर आए।”
इससे यह बात भी साफ हुई कि समाज में विचारों का आदान-प्रदान कैसे दूसरों की सोच पर असर डालता है।
सबसे अहम है कि इससे यह भी समझा जा सकता है कि कोई निर्णायक मंडल या न्यायाधीश कैसे किसी को उसके अपराध के लिए मौत की सजा देता है।
सॉसियर के अनुसार, शैतान में विश्वास का आधार धार्मिक विश्वासों की बजाय लोगों के अपने जीवन से मिले अनुभव होते हैं।
इस अध्ययन में पालन पोषण में धर्म की भूमिका के असर और उसके कारण शैतान में विश्वास के बीच संबंध का अध्ययन किया गया। अध्ययन के दौरान पाया गया कि यह जरूरी नहीं है कि शैतान में यकीन रखने वाले लोग पूरी तरह किसी के अच्छा होने में या ना होने में यकीन रखते ही हों।
सॉसियर ने कहा कि लोगों की धारणा उनकी अपनी किसी यंत्रणा, पीड़ित होने के अहसास या जीवन में इंसान की सफलता का जश्न मनाने के हिसाब से बदल भी सकती है।
यह अध्ययन शोध पत्रिका ‘पर्सनालिटी एंड इंडीविजुअल डिफरेंसेज’ के ताजा अंक में प्रकाशित हुई है।