मुश्किलें और परेशानियां ही हमें सबल बनाती हैं और संघर्ष करने की ताकत देती हैं। यही हमारी परीक्षा का वक्त होता है। बुरे वक्त में जो सत्कर्म का दामन नहींछोड़ता, वही बनता है विजेता। न्याय के देवता माने जाने वाले शनि की जयंती
धर्मग्रंथों में शनि को दंडाधिकारी कहा गया है। अर्थात वे न्याय के देवता हैं। इसीलिए माना जाता है कि वे हर व्यक्ति को सबल और मजबूत बनाने के लिए साढ़ेसाती व ढइया के माध्यम से मुश्किलें देते हैं। संघर्र्षो से ही व्यक्ति सबल बनता है। जो इन मुश्किलों में भी अपना धैर्य नहीं खोता, सकारात्मक बना रहता है और सत्कर्र्मो से विमुख नहीं होता, वह सफल होता है, वहीं मुश्किलों से घबराकर नकारात्मक विचारों को अपना कर समाज में गलत काम करने वालों को शनि के दंड का भागीदार बनना पड़ता है।
नवग्रहों में सबसे ज्यादा चर्चा शनि की ही होती है। जैसे ही किसी व्यक्ति को ज्योतिषी से अपनी जन्मराशि पर शनि की साढ़ेसाती अथवा ढइया लगने की सूचना मिलती है, वैसे ही वह अनिष्ट की आशंका से भयभीत हो उठता है। जबकि यह धारणा गलत है। सच्चाई तो यह है कि शनि की साढ़ेसाती और ढइया में व्यक्ति को जीवन की अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ता है।
हम पर दुख इसीलिए आते हैं, ताकि हम सुख का आस्वाद ही न भूल जाएं। दुख की घड़ी में ही इंसान की परीक्षा होती है कि वह कितनी कुशलता से इस मुश्किल समय से पार पाता है। इसलिए इस अवधि में संयम से काम लेना चाहिए और वाद-विवाद से बचना चाहिए। इस समय क्रोध और आवेश में कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए। अहंकार को त्यागकर सबसे मधुर संबंध बनाना चाहिए। धैर्य के कवच और विवेक के बल से ही शनि की साढ़ेसाती अथवा ढइया की पीड़ा को निर्मूल किया जा सकता है।
सनातन धर्म के ग्रंथों में शनि को दंडाधिकारी का पद दिया गया है। हमें शनि की साढ़ेसाती अथवा ढइया में अपने बुरे कामों का दंड भोगना ही पड़ता है, पर हम इसके लिए शनि पर दोषारोपण करते हैं, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। शास्त्रों का कहना है – अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म-शुभाशुभम। अर्थात हमें अपने अच्छे-बुरे कर्र्मो का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। अतएव हमें सदा सत्कर्म करना चाहिए तथा बुरे कामों से दूर रहना चाहिए। साढ़ेसाती और ढइया में हमारा चरित्र शोधन भी होता है। इसके फलस्वरूप हमारे भीतर सदाचरण की प्रवृत्ति बलवती होती है और दुर्गुणों से आसक्ति हट जाती है।
मनुष्य जो भी कार्य करता है, उसके पीछे उसका कोई न कोई प्रयोजन अवश्य रहता है। आदिशंकराचार्य ने कहा है – कर्महेतु: कामस्यात, प्रवर्तकत्वात। अर्थात मनुष्य सदा कोई इच्छा लेकर ही काम करता है। अभिलाषा पूर्ण हो जाने पर उसे सुख तथा कामना पूर्ण न होने पर उसे दुख होता है। बार-बार इच्छापूर्ति के मार्ग में ठोकर खाने पर वह चित्तभ्रष्ट हो जाता है। चित्त को सुस्थिर करने के लिए उसे अच्युत (ईश्वर) से जोड़ देना चाहिए। तभी हम धर्म-विहित आचरण करने में सफल हो सकेंगे और गलत कामों से सदैव दूर रहेंगे।
इच्छाओं से बंधा व्यक्ति अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए कई बार वह काम कर बैठता है, जो उसे नहीं करना चाहिए। कामना के पाश से आबद्ध होकर वह अच्छे-बुरे का फर्क भूल जाता है। कभी-कभी जानकारी होने पर भी इच्छाओं के दबाव में गलत काम कर बैठता है। इस काम को ही पार्प कर्म कहते हैं। पाप का जब तक प्रायश्चित नहीं होता, तब तक उसे उसका दंड भोगना पड़ता है। ज्ञात-अज्ञात सभी गलतियों का परिहार प्रायश्चित से ही होता है। शनि अपनी साढ़ेसाती अथवा ढइया में हमसे हमारे पापों (बुरे कर्र्मो) का प्रायश्चित करवाते हैं। इस अवधि में हमें जो कष्ट और दुख सहने पड़ते हैं, उसका मूल आधार हमारे पाप कर्म ही हैं। प्रायश्चित करने के उपरांत मनुष्य का अंत:करण शुद्ध हो जाता है और वह धर्म के मार्ग पर चलने के लिए अग्रसर हो उठता है। मन अध्यात्म के रंग में रंग जाता है।
जिस प्रकार सोना आग में तपकर कुंदन हो जाता है, उसी तरह शनि की साढ़ेसाती और ढइया में कष्टों के ताप से अंतस का शुद्धीकरण हो जाता है। मनुष्य बुरे कर्र्मो को त्यागकर सत्कर्र्मो को अपना लेता है। सभी धर्र्मो का सार यही है कि सदैव सत्कर्म करो। इस प्रकार शनि दंडाधिकारी की भूमिका से आगे बढ़कर सद्गुरु के समान पथप्रदर्शक बन जाते हैं। वे हमें सत्कर्र्मो की प्रेरणा देकर सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त करते हैं।
धर्मग्रंथों की मान्यता के अनुसार, शनि कर्मकांड के बजाय कर्र्मो को ही वरीयता देते हैं। शनि को प्रसन्न करने का मूल मंत्र है – सत्कर्म करो। प्राणिमात्र की सेवा करो। मान्यता है कि सेवा-व्रत से शनि संतुष्ट होते हैं और सत्कर्र्मो से प्रसन्न। अत: जब भी बुरा समय आए, उससे घबराना नहीं चाहिए, बल्कि संघर्ष करते हुए भी सत्कर्म का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। इससे शक्ति प्राप्त होती है और न्याय भी मिलता है।