Wednesday , 15 May 2024

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मचैल यात्रा: पहाड़ों में बसी है मां रणचंडी

ranchndiमचैल गांव किश्तवाड़ से 95 व गुलाबगढ़ से तीस किलोमीटर दूरी पर भूर्ज और भोट नाले के बीच में स्थित अत्यंत खूबसूरत गांव है। दुर्गम पहाड़ियों के बीच प्रकृति की गोद में बसे इस गांव के मध्य भाग में प्रसिद्ध मचैल माता का मंदिर काष्ठ का बना हुआ है। इस मंदिर के मुख्य भाग के बीचोबीच समुद्र मंथन का आकर्षक और कलात्मक दृश्य अंकित है। मंदिर के बाहरी भाग में पौराणिक देवी देवताओं की कई मूर्तियां लकड़ी की पटिकाओं पर बनी हुई हैं। मंदिर के भीतर गर्भग्रह में मां चंडी एक पिंडी के रूप में विराजमान हैं। इस पिंडी के साथ ही दो मूर्तियां स्थापित की गई हैं, जिनमें एक मूर्ति चांदी की है। इस मूर्ति के बारे में कहा जाता है कि इसे बहुत समय पहले जंस्कार (लद्दाख) के बौद्ध मतावलंबी भोंटों ने मंदिर में चढ़ाया था। इसलिए इस मूर्ति को भोट मूर्ति भी कहते हैं। इन मूर्तियों पर कई प्रकार के आभूषण सजे हैं। मंदिर के सामने खुला मैदान है, जहां यात्री खड़े हो सकते हैं। इस देवी पीठ के बारे में कई किवदंतियां हैं।

कहते हैं कि जब भी किसी शासक ने मचैल के रास्ते से होकर जंस्कार या लद्दाख के अन्य क्षेत्र पर चढ़ाई की तो अपनी विजय के लिए माता से प्रार्थना और मन्नत जरूर मांगी थी। सेना नायकों और योद्धाओं की इष्ट देवी होने के कारण ही इनका नाम रणचंडी पड़ा। जोरावर सिंह, बजीर लखपत जैसे सेना नायकों ने जब जंस्कार (लद्दाख) पर चढ़ाई की तो इस मार्ग से गुजरते हुए मां से प्रार्थना की और विजय हासिल की थी। 11947 में जब जंस्कार क्षेत्र पाकिस्तान के कब्जे में आ गया तो भारतीय सेना के कर्नल हुकम सिंह ने माता के मंदिर में मन्नत की और जब वह जीत कर आए तो मंदिर में भव्य यज्ञ के आयोजन के साथ-साथ देवी की धातु की मूर्ति स्थापित की गई। दूसरी मूर्ति कर्नल द्वारा चढ़ाई गई मूर्ति है।

ठाकुर कुलवीर सिंह पाडर क्षेत्र में पुलिस अधिकारी के रूप में नियुक्त थे तो उनका भी मचैल आना हुआ। यहां उन्हें माता की भव्यता और कृपा का एहसास हुआ और वह माता की भक्ति में लग गए। उन्होंने सन 1981 में मचैल यात्र का प्रारंभ किया। पहले यह यात्र छोटे से समूह तक ही सीमित थी, लेकिन किश्तवाड़ और गुलाबगढ़ का मार्ग खुलने के बाद यात्रियों की संख्या बढ़ती गई। बढ़ते-बढ़ते यह संख्या हजारों में पहुंच गई और यह स्थानीय यात्र न रहकर पंजाब, दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश से आए श्रद्धालुओं की भी यात्र बन गई।

मचैल यात्रा भाद्रपद संक्त्रांति से दो दिन बाद 18 अगस्त के चनौत गांव से प्रांरभ होती है। यात्रा की छड़ी के रूप में चुनरियों से सजा एक बड़ा विशाल त्रिशुल होता है, जिसकी विधिवत पूजा की जाती है। छड़ी में हजारों लोग ढोल, नगाड़ों, ढोंस नरसिंघे जैसे आंचलिक वाद्ययंत्रों के सुरीले और दिव्य रागों के साथ मां के जयकारे लगाते हुए चलते हैं। इस यात्रा का महत्वपूर्ण और पहला पड़ाव किश्तवाड़ होता है। इस यात्रा की एक कड़ी के रूप में महालक्ष्मी मंदिर पक्का डंगा जम्मू से भी एक छड़ी निकाली जाती है, जो किश्तवाड़ पहुंच कर यात्रियों के साथ मिल जाती है। इस तरह यह यात्रा पूरे जम्मू संभाग की यात्रा बन जाती है। किश्तवाड़ में यात्र का भव्य स्वागत होता है। यहां रात विश्रम और खाने पीने की व्यवस्ता की जाती है। अगले दिन हजारों की संख्या में स्त्री, पुरुष, बच्चे व वृद्ध इसमें शामिल होकर यात्रा की विदाई करते हैं। किश्तवाड़ से गुलाबगढ़ तक की यात्रा वाहनों द्वारा तय की जाती है, लेकिन इसके आगे का सफर पैदल चलकर तय करना पड़ता है। गुवलाबगढ़ से प्रात: काल छड़ी मसु के लिए रवाना होती है। मसु से निकल कर छड़ी का अगला पड़ाव चशोती गांव होता है। चशौती से अगले दिन यात्रा मचैल गांव पहुंचती है। इन छोटे छोटे गांव के लिए छड़ी का पहुंचना उत्सव के सामान होता है। यहां के लोग अपने-अपने तरीके से छड़ी का स्वागत करते हैं। यात्रियों की सेवा करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। जगह-जगह लंगर का इंतजाम होने के बावजूद स्थानीय लोग अपने घरों में भोजन कराते हैं और रात विश्रम के लिए जगह देते हैं। पैदल चलने के कारण यह यात्र थोड़ी कठिन जरूर बन जाती है, लेकिन प्राकृति के अनुपम दृश्यों, पहाड़ों से गिरते झरनों, लंबी छायादार वृक्षों, फूलों और कहीं-कहीं साथ चलते भोट नाले को निहारते हुए यात्री सारी थकान भूल जाते हैं। प्राकृति की गोद में की गई यह यात्रा श्रद्धालु जीवनभर नहीं भूलते। मंदिर में पहुंच कर मन उल्लास से भर जाता है। यहां पहुंचकर जैसे यात्री जन्म-जन्म के पुण्य प्राप्त कर बंधनों से मुक्त हो जाता है। अब यह यात्रा हजारों में रहकर लाखों श्रद्धालुओं में तबदील हो गई है। यात्रा की देखरेख कर रही सर्व शक्ति सेवक संस्था कोशिश कर रही है कि यह यात्रा माता वैष्णो देवी की तर्ज पर बोर्ड के अधीन हो जाए और यात्रियों को सुविधा मिल सके।

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