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 तो क्या अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा? (विश्व जल दिवस पर विशेष) | dharmpath.com

Sunday , 15 June 2025

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तो क्या अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा? (विश्व जल दिवस पर विशेष)

जल के बिना जीवन की कल्पना असंभव है, लेकिन इसकी कमी के बीच जीवन कितना कष्टकर होगा ये उससे भी बड़ी जीवंत विडंबना है। देश के कई हिस्सों में अभी से जबरदस्त जल संकट गहरा गया है।

जल के बिना जीवन की कल्पना असंभव है, लेकिन इसकी कमी के बीच जीवन कितना कष्टकर होगा ये उससे भी बड़ी जीवंत विडंबना है। देश के कई हिस्सों में अभी से जबरदस्त जल संकट गहरा गया है।

यह किसी त्रासदी से क्या कम है कि महाराष्ट्र के लातूर में पानी के लिए खूनी संघर्ष को रोकने के, ‘विश्व जल दिवस’ के दिन धारा 144 लागू है। कमोवेश यही स्थिति अभी मार्च के दूसरे पखवाड़े में ही आधे से ज्यादा देश में बनी हुई है। मार्च ही क्यों, हर साल लगभग 7-8 महीने पानी का घनघोर संकट कई प्रांतों में बना रहता है।

कई राज्य अभी से जबरदस्त सूखे की कगार पर हैं। कुएं, तालाब लगभग सूख गए हैं। बावड़ियों का अस्तित्व समाप्त प्राय है। भूजल का स्तर बेहद नीचे जा चुका है। मशीनरी युग में और कितना नीचे तक पानी के लिए खुदाई की जाएगी यह एक डरावनी कल्पना की हकीकत में बदलती तस्वीर है। अब लगने लगा है कि अगला विश्व युद्ध पानी के लिए ही होगा।

तेजी से जनसंख्या बढ़ने के साथ कल-कारखाने, उद्योगों और पशुपालन को बढ़ावा दिया गया, उस अनुपात में जल संरक्षण की ओर ध्यान नहीं गया, जिस कारण आज गिरता जल स्तर बेहद चिंता का कारण बना हुआ है।

रियो डि जेनेरियो में 1992 में आयोजित पर्यावरण तथा विकास के संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में ‘विश्व जल दिवस’ की परिकल्पना की गई थी और तभी 22 मार्च को ‘विश्व जल दिवस’ के रूप यानी जल संरक्षण दिवस सुनिश्चित किया गया।

आंकड़े बताते हैं कि अभी दुनिया में करीब पौने 2 अरब लोगों को शुद्ध पानी नहीं मिल पाता। यह सोचना ही होगा कि केवल पानी को हम किसी कल कारखाने में नहीं बना सकते हैं इसलिए प्रकृति प्रदत्त जल का संरक्षण करना है। एक-एक बूंद जल के महत्व को समझना होना होगा। हमें वर्षाजल के संरक्षण के लिए चेतना ही होगा।

अंधाधुंध औद्योगीकरण और तेजी से फैलते कंक्रीट के जंगलों ने धरती की प्यास को बुझने से रोका है। धरती प्यासी है और जल प्रबंधन के लिए कोई ठोस प्रभावी नीति नहीं होने से, हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। कहने को तो धरातल पर तीन चौथाई पानी है लेकिन पीने लायक कितना यह सर्वविदित है! रेगिस्तानी इलाकों की भयावह तस्वीर बेहद डरावनी और दुखद है। पानी के लिए आज भी लोगों को मीलों पैदल जाना पड़ता है।

आधुनिकता से रंगे इस दौर में भी गंदा पानी पीना मजबूरी है। भले ही इससे जल जनित रोग हो जाएं और जान पर बन आए लेकिन प्यास तो बुझानी ही होगी! आंकड़े बताते हैं, पृथ्वी का 70 फीसदी हिस्सा पानी से लबालब है लेकिन इसमें पीने लायक अर्थात मीठा पानी केवल 40 घन किलोमीटर ही है।

दूसरे शब्दों में पृथ्वी पर मौजूद 97.3 प्रतिशत पानी समुद्र का है जो खारा है, केवल 2.7 प्रतिशत पानी ही मीठा है। दैनिक आवश्यकताओं की अगर बात की जाए तो अमूमन एक व्यक्ति औसतन 30-40 लीटर पानी रोजाना इस्तेमाल करता है।

उल्लेखनीय है कि 2015 में 30 नवंबर से 12 दिसंबर तक संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन पर पेरिस में एक सम्मेलन आयोजित किया गया था। यह 1992 के संयुक्त राष्ट्र संरचना सम्मेलन (यूएनएफसीसीसी) का 21वां और 1997 के क्योटा प्रोटोकॉल का 11वां सत्र था। इसमें भारत सहित 195 देश जुटे थे, जहां सभी ने वायुमंडल में नुकसानदेह गैसों के उत्सर्जन और अवशोषण पर गंभीर चर्चा की लेकिन कितनी बड़ी विडंबना थी कि भूगर्भीय जल को भूल गए। रासायनिक ²ष्टि से भी देखा जाए तो पानी और हवा के संयोजन से ही जलवायु का अस्तित्व है।

हमारे वेद और उपनिषद भी कहते हैं कि जल में ही ऊर्जा तत्व मौजूद होते हैं जो पृथ्वी के तापमान को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। लेकिन पेरिस सम्मेलन जल के इस गुण को याद नहीं रख सका। यहां भी जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर तो विकसित और विकासशील देशों के बीच खूब चर्चा हुई और मतभेद भी साफ नजर आए, लेकिन जल का संरक्षण कैसे हो, कुछ बात नहीं हुई।

अधिकांश देश अमूमन इस बात से सहमत थे कि सभी देशों को कार्बन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए काम करना चाहिए।

कार्बन उत्सर्जन को ही लू, बाढ़, सूखा और समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी का कारण माना जा रहा है, लेकिन इस सम्मेलन पर भूगर्भीय जल के गिरते स्तर पर गंभीर चर्चा को गैरजरूरी समझा गया।

अब सबसे जरूरी है कि बारिश के पानी को सहेजा जाए जो कि बहुत आसान है। छोटे-छोटे प्रयासों से संभव है जैसे गहरी जड़ों, धीरे-धीरे बढ़ने वाले वृक्ष अधिक से अधिक लगाए जाएं। घरों में वर्षा जल संचयन अर्थात वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम बनाया जाए। 3-4 मीटर चौड़ी और 10-15 मीटर लंबी खाइयों को खाली जगहों पर बनाया जाए उसमें पत्थर, बजरी और मोटी रेत का भराव किया जाए जो पानी को सोखे और वो भूगर्भ तक पहुंचे।

इसी तर्ज पर गहरे गढ्ढे बनाकर भी ऐसा किया जा सकता है जो कि पानी सोखने का काम करते हैं। छोटे-छोटे तालाब, बांध, नाले, रपटा, स्टाप डैम भी जनभागीदारी से हर मोहल्ले, गांव, कस्बे और शहर में तैयार किए जा सकते हैं जो भूर्गभीय जल संरक्षण में अहम भूमिका निभा सकते हैं।

पीने का पानी निश्चित रूप से एक बड़ी चुनौती है और इसके लिए सरकार का मुंह देखना खुद के साथ बेमानी होगी। बेहतर यही होगा कि हर किसी को इसके लिए एक-एक आहुति देनी होगी और तभी हम पानी के लिए तीसरे विश्वयुद्ध की भयावहता को न केवल टाल पाएंगे, बल्कि जल ही जीवन का नारा सार्थक कर पाएंगे।

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