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 पश्चिम बंगाल त्रिकोणीय चुनावी संघर्ष की ओर! | dharmpath.com

Sunday , 15 June 2025

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पश्चिम बंगाल त्रिकोणीय चुनावी संघर्ष की ओर!

क्या बंगाल की ‘शेरनी’ का जादू इस बार भी चल पाएगा या कांग्रेस गठबंधन से अलग होने के चलते तिलिस्म टूट जाएगा? अब कुछ भी हो, पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव काफी रोचक तो होंगे, लेकिन हिंसक नहीं होंगे, इस बात की कोई गारंटी नहीं है।

क्या बंगाल की ‘शेरनी’ का जादू इस बार भी चल पाएगा या कांग्रेस गठबंधन से अलग होने के चलते तिलिस्म टूट जाएगा? अब कुछ भी हो, पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव काफी रोचक तो होंगे, लेकिन हिंसक नहीं होंगे, इस बात की कोई गारंटी नहीं है।

राजनीति की तासीर की बात करें तो यहां का इतिहास, पारंपरिक रूप से हिंसा भरा ही रहा। सभी 294 विधानसभा सीटों पर 6 चरणों में मतदान होगा।

जाहिर है, चुनाव आयोग भी पूरी सख्ती से निष्पक्ष चुनाव कराने को कमर कस चुका है। राजनीतिक बिसातें बिछनी लगी हैं और आरोप-प्रत्यारोपों का दौर शुरू हो गया है। इस बार कई कारणों से सत्तारूढ़ और तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी की मुसीबतें खुद ही कम नहीं दिख रहीं।

शारदा घोटाले की लपट, सीबीआई की सक्रियता और बेहद अहम समय में बेपर्दा होते स्टिंग ने तृणमूल की चूलों को जरूर हिलाकर रख दिया है। बीते लोकसभा चुनावों में यहां भाजपा को 18 प्रतिशत वोट मिले थे और पहली बार वाम से निकल कर तृणमूल के हाथों में आए राज्य में, चार वर्षो में ही हिंदूवादी विचारधारा वाली किसी नई पार्टी की दस्तक दिखाई दी।

यह न केवल वामपंथियों ही नहीं, बल्कि कांग्रेस, तृणमूल व अन्य राजनीतिक दलों के लिए भी चिंता की बात है। भले ही जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी यहीं से थे, लेकिन पार्टी, जनसंघ से भाजपा बनने तक के सफर में कुछ भी हासिल नहीं कर पाई, इसलिए दोहरी खुशी जैसी बात है।

लेकिन यह भी याद रखना होगा, जहां 2014 के लोकसभा चुनाव में भी भारतीय जनता पार्टी को भारी जीत मिली, वहीं प.बंगाल में 2015 के स्थानीय निकाय चुनावों में तृणमूल कांग्रेस ने न केवल भाजपा को खाता खोलने से रोक दिया, बल्कि कोलकता सहित 24 परगना के औद्योगिक क्षेत्रों में भी जबरदस्त सफलता हासिल कर यह जता दिया है कि ममता की सादगी और ‘मां-माटी-मानुष’ का जलवा जस का तस है।

राज्य के 92 स्थानीय निकायों में से 70 पर तृणमूल कांग्रेस, वाम मोर्चा को 6, कांग्रेस को 5 जबकि 11 ऐसे नगरीय निकाय हैं, जहां पर किसी को भी स्पष्ट बहुमत नहीं मिला।

दूसरा, यह भी कि भाजपा के पास राज्य में अभी तक कोई हाईप्रोफाइल नेता नहीं है, जिसे वह बतौर मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट कर सके। वैसे भी, दिल्ली का दर्द और बिहार के बड़बोलेपन का ज़ख्म अभी गहरा है।

बॉलीवुड गायक बाबुल सुप्रियो ने आसनसोल से चुनाव जीता और भाजपा ने बिना देर किए केंद्र में मंत्री पद पर ताजपोशी कर एक विकल्प देने की कोशिश जरूर की थी, लेकिन वह ममता के आगे कितना टिक पाएंगे, इसका भी पूरा भान है। शायद इसी कारण भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, जाने-माने और बेहद लोकप्रिय क्रिकेटर सौरव गांगुली पर पश्चिम बंगाल का दांव आजमा सकते हैं।

अगर कहीं ऐसा हुआ तो पश्चिम बंगाल का चुनावी परि²श्य अलग नजर आएगा और टक्कर तृणमूल कांग्रेस, वाम-कांग्रेस गठबंधन और भाजपा के बीच त्रिकोणीय होना तय है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि 2011 के विधान सभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस गठबंधन ने पश्चिम बंगाल में 34 वर्षों से सत्तासीन वाम मोर्चे को उखाड़ फेंका था। लेकिन तुरंत ही तेजी बदले राजनीतिक घटनाक्रम में कांग्रेस ने खुद को गठबंधन से अलग कर लिया और अब ठीक उलट परि²श्य में कांग्रेस, माकपा के साथ जदयू, राजद एक हो गए और तृणमूल कांग्रेस अलग-थलग पड़ गई।

वहीं चुनाव से ठीक पहले सामने आए स्टिंग से भी टीएमसी की छवि खराब हुई है। शारदा घोटाले में तृणमूल के धुरंधरों के शामिल होने, गिरफ्तारियों से कमजोर ममता के लिए एक राहत की बात यही जरूर हो सकती है कि राज्य में वो मोदी लहर नहीं दिख रही है जो 2014 में लोकसभा के वक्त थी।

इसका फायदा किसको होगा, यह गुणा-भाग का विषय है। यदि 2011 और 2014 में मिले वोटों की तुलना की जाए तो यह साफ होता है कि बीजेपी को जो भी वोट मिले, कहीं न कहीं वाम दलों में सेंधमारी के थे।

राजनीति की विडंबना देखिए, अब ममता बनर्जी, कांग्रेस और वामदलों कड़वे रिश्ते याद कराती जनसभाएं कर वाम, कांग्रेस गठबंधन को गैर सैद्धांतिक कह, एक तरह से सफाई दे रही हैं। शायद उन्हें गठबंधन धर्म नहीं निभा पाने का मलाल जरूर होगा और मन में बड़ी टीस भी।

उनका परेशान होना लाजिमी है, क्योंकि 2014 के संसदीय चुनाव में तृणमूल का वोट शेयर 39.3 प्रतिशत, कांग्रेस का 9.6 जबकि वाम मोर्चे को 30 फीसदी रहा। अब आंकड़े कुछ और होंगे। एक सच यह भी कि प.बंगाल में वामदल और कांग्रेस पहले आम चुनाव यानी 1952 से एक दूसरे के खिलाफ लड़ते आए हैं, अब देखना है कि दोनों का नया एका, आंकड़ों के लिहाज से क्या गुल खिलाता है।

यह भी सच है कि तृणमूल में अंदरूनी तौर पर सब कुछ ठीक नही चल रहा है। पार्टी के वरिष्ट नेता, सांसद और पूर्व रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने यह कहते हुए मुश्किलें बढ़ा दी हैं कि स्टिंग में फंसे सांसदों और विधायकों को तब तक घर पर बैठना चाहिए, जब तक उन पर लगे आरोपों से वो पाक साफ नहीं हो जाते। वहीं ममता बनर्जी की हुंकार कि 34 वर्षों में 55000 राजनीतिक हत्याओं को अंजाम देने वालों का हिसाब अभी और चुकता करना है।

यह सब हवा का रुख बदलने के लिए कितना असर कारक होगा, कहना जल्दबाजी होगी। लेकिन बिहार में भाजपा का साथ देने वाली लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) यहां अपने दम-खम पर चुनाव लड़ने की न केवल तैयारी कर चुकी है, बल्कि पहली सूची में दो किन्नर प्रत्याशियों को टीएमसी के खिलाफ उतारने की घोषणा कर, चुनावी शुरुआत में ही अन्य दलों की चिंता की लकीरें बढ़ा दी हैं।

लोजपा ने किन्नर प्रत्याशियों के रूप में भवानीपुर विधानसभा सीट से बॉबी हालदार तथा यादवपुरा से शंकरी मंडला को चुनाव में उतार दिया है। बड़े दलों का समीकरण बिगाड़ने के लिए प.बंगाल में यह प्रयोग जरूर असर डालेगा।

तृणमूल की बड़ी चिंता यह भी है कि वाममोर्चा और कांग्रेस के बीच सीट बंटवारे के मुद्दे पर भी कोई अहम विवाद नहीं है। 95 प्रतिशत सीटों पर आम सहमति बन चुकी, केवल 20-22 सीटें ऐसी हैं, जहां पर कुछ मतभेद हैं जिसे जल्द सुलझाने का दावा किया जा रहा है।

चूंकि वामपंथी दलों के अलावा अन्य विपक्षी दलों के नेताओं पर हमले बढ़े हैं जिसे तृणमूल के द्वारा लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन बताकर भी सहानुभूति बटोरी जा रही है।

कांग्रेस का आरोप है कि इससे औद्योगिक विकास थम गया है, किसानों और श्रमिक की हालत बदतर हो रही है इसलिए जनहितार्थ उसने वाममोर्चा के स्लोगन ‘तृणमूल हटाओ, बंगाल बचाओ और भाजपा हटाओ देश बचाओ’ का समर्थन किया है।

एक न्यूज पोर्टल के हालिया स्टिंग को लेकर तृणमूल की चिंता बढ़ी है। लेकिन इन सबके बावजूद जहां ममता बनर्जी, सांसद अभिषेक बनर्जी, मुकुल रॉय, सुब्रत बक्शी, सुदीप बनर्जी सहित 31 स्टार प्रचारकों के साथ मैदान में उतरने की पूरी तैयारी में हैं।

वहीं भाजपा अपने स्टार प्रचारकों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह, राजनाथ सिंह, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, उमा भारती, बाबुल सुप्रयो, निर्मला सीतारमण, शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे सिंधिया, रघुवर दास, अर्जुन मुंडा सहित 40 स्टार प्रचारकों की ताकत झोंकेगी।

कांग्रेस भी पीछे नहीं है। सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, राहुल गांधी, गुलाम नवी आजाद, सलमान खुर्शीद, शकील अहमद, ज्योतिरादित्य सिंधिया, राज बब्बर, नगमा, मौलाना अफजल, मोहम्मद अजहरूद्दीन, कमलनाथ, जयराम रमेश, अशोक गहलोत सहित 40 स्टार प्रचारकों के साथ चुनावी रण में उतरने की तैयार कर चुकी है।

अब देखना यही है कि लगभग त्रिकोणीय बनते चुनावी समर में ऊंट किस करवट बैठता है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार/टिप्पणीकार हैं)

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