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भगवान जगन्नाथ: हमारे भीतर हैं परमात्मा

11_07_2013-Jagannathहमारा शरीर एक रथ की तरह है, जिसमें भगवान जगन्नाथ आत्मा के रूप में विराजमान रहते हैं। जब हमें अपने भीतर परमात्मा का भान होगा, तब हम सत्कर्र्मो के लिए प्रेरित होंगे। पुरी में श्रीजगन्नाथ रथ-यात्रा शुरू हुई है। इस अवसर पर आलेख..

ब्रहं ब्रहमास्मि का उद्घोष करने वाले अद्वैत वेदांत का मत है कि ईश्वर और आत्मा (जीव) दो नहीं, बल्कि एक ही हैं। इस दर्शन का निदर्शन हमें पुरी की रथ-यात्रा में मिलता है, जिसमें रथ जीवन है, तो भगवान जगन्नाथ आत्मा का रूपक हैं। आत्मा ही जीवन-रथ को सही दिशा में ले जाती है, अत: वही ईश्वर है। आत्मा और परमात्मा के इस अद्वैत को समझ लें तो हम सद्प्रवृत्तियों की ओर उन्मुख हो जाते हैं और कर्म को अपने जीवन में उतार लेते हैं। शायद इसी दर्शन को पुष्ट करती हुई कहावत बनी है- अपना हाथ जगन्नाथ।

भगवान जगन्नाथ को संपूर्ण जगत का स्वामी माना जाता है। उनके उत्सव प्राय: यात्रा के रूप में होते हैं। श्रीजगन्नाथपुरी के मंदिर में बारह मासों में अनेक यात्राएं मनाई जाती हैं, जिनमें श्रीगुंडीचा जगन्नाथ रथयात्रा सर्वाधिक चर्चित एवं विख्यात है।

प्रतिवर्ष आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की द्वितीया के दिन भगवान जगन्नाथ को उनकी बहन सुभद्रा तथा भाई बलभद्र (बलराम) के साथ मंदिर से बाहर निकालकर, पृथक रथों पर विराजमान कराकर गुंडीचा मंदिर के लिए प्रस्थान कराया जाता है। जगन्नाथ जी के रथ का नाम ‘नंदीघोष’ है, जो 45 फीट ऊंचा होता है और इसमें 16 पहिये लगे होते हैं। बलभद्र जी के रथ का नाम ‘तालध्वज’ है, जो 44 फीट ऊंचा होता है और उसमें 14 पहिये लगे होते हैं। सुभद्रा जी के रथ का नाम ‘देवदलन’ है, जो 43 फीट ऊंचा होता है और उसमें 12 पहिये लगे होते हैं। ये रथ प्रतिवर्ष चुनी हुई नई लकड़ियों से बनाए जाते हैं। इनमें कहीं भी लोहे की कील का प्रयोग नहीं होता। इनका निर्माण वैशाख मास के शुक्लपक्ष की तृतीया (अक्षय तृतीया) के दिन से प्रारंभ हो जाता है। इन रथों को बनाने वाले कारीगर वंश परंपरा से इस निर्माण कार्य में दक्ष होते हैं।

आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन तीनों विग्रहों को मंदिर के सिंहद्वार से बाहर बड़े अनूठे ढंग से लाया जाता है। इस कार्य में स्थानीय पारंपरिक रीति-रिवाजों को बड़ी श्रद्धा और उत्साह के साथ निभाया जाता है। तीनों श्रीविग्रहों को मंदिर की रत्नवेदी से रथों पर अलग-अलग लाते हैं। सबसे पहले सुदर्शन-चक्र को सुभद्रा जी के रथ पर पहुंचाया जाता है। घंटे-घड़ियाल और नगाड़ों की ध्वनि तथा भजन-कीर्तन के बीच एक खास लय में रथ चलते हैं। विग्रहों को इस लय में लाने की प्रक्रिया ‘पहंडी’ कहलाती है। रथयात्रा के समय सबसे आगे बलराम जी का और सबसे पीछे भगवान जगन्नाथ का रथ होता है। बहिन सुभद्रा का रथ उनके दोनों भाइयों के रथों के मध्य रहता है। जब तीनों श्रीविग्रह अपने-अपने रथ पर बैठ जाते हैं, तब पुरी के राजा को प्राचीन परंपरा का अनुसरण करते हुए उनके पुरोहित निमंत्रण देने जाते हैं। राजा पालकी में आते हैं और वे तीनों रथों को सोने की झाड़ू से बुहारते हैं। यह प्रथा ‘छेरा-पोहरा’ कहलाती है।

समय ने अनेक बार करवट बदली है, किंतु रथयात्रा का उत्सव आज भी पुरानी शान के साथ होता है। यहां परंपराएं आधुनिकता की आंधी में लुप्त नहीं हुई हैं। बड़दांड से होकर रथों को गुंडीचा मंदिर तक खींच कर ले जाते हैं। तीन मील के बड़दांड से धीरे-धीरे गुजरते हुए रथ सायं यहां पहुंच पाते हैं। गुंडीचा मंदिर वही स्थान है, जहां पूर्वकाल में देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा जी ने भगवान जगन्नाथ, बलभद्र तथा सुभद्रा जी के दारु (लकड़ी) के विग्रहों का निर्माण किया था। स्कंद पुराण के उत्कल खंड में वर्णित है कि अपने प्रिय भक्त राजा इंद्रद्युम्न को भगवान जगन्नाथ ने यह वरदान दिया था कि वे वर्ष में एक बार वहां अवश्य आएंगे। रथयात्रा के संदर्भ में एक अन्य आख्यान यह भी है कि एक बार बहिन सुभद्रा की नगर-भ्रमण की इच्छा पूर्ण करने के लिए दोनों भाई श्रीजगन्नाथ और बलभद्र जी ने रथों पर विराजमान होकर यात्रा की थी।

जगन्नाथ जी की यह रथयात्रा साम्य और एकता का प्रतीक है। रथयात्रा के दिन हर तरह के भेद-भाव को भुलाकर समाज के सभी वर्र्गो के लोग रथ को खींचते हैं। ये रथ दशमी के दिन वापस लाए जाते हैं। वापसी की यह यात्रा ‘बहुडायात्रा’ कहलाती है। एकादशी के दिन सभी विग्रहों का स्वर्ण वेश सर्वसाधारण को वशीभूत कर लेता है। इसे ‘सुनाभेस’ कहते हैं। मंदिर के बाहर नौं दिनों के दर्शन को ‘आड़पदर्शन’ भी कहा जाता है। द्वादशी के दिन मंदिर में विग्रहों का प्रवेश होता है।

भगवान जगन्नाथ: हमारे भीतर हैं परमात्मा Reviewed by on . हमारा शरीर एक रथ की तरह है, जिसमें भगवान जगन्नाथ आत्मा के रूप में विराजमान रहते हैं। जब हमें अपने भीतर परमात्मा का भान होगा, तब हम सत्कर्र्मो के लिए प्रेरित हों हमारा शरीर एक रथ की तरह है, जिसमें भगवान जगन्नाथ आत्मा के रूप में विराजमान रहते हैं। जब हमें अपने भीतर परमात्मा का भान होगा, तब हम सत्कर्र्मो के लिए प्रेरित हों Rating:
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