पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस अपराजेय है। तृणमूल कांग्रेस ने स्थानीय निकाय चुनावों में दोबारा जबर्दस्त सफलता हासिल की है। इस बार अपने 15 साल के सफर में तृणमूल कांग्रेस ने लगभग दोगुनी सीटें हासिल की हैं। वर्ष 2011 में विधानसभा चुनाव में सत्ता में, बहुमत से आई ममता बनर्जी के लिए यह जीत इसलिए भी काफी मायने रखती है, क्योंकि 2016 का विधानसभा चुनाव नजदीक है और भारत का राजनैतिक परिदृश्य काफी बदला हुआ है।
जहां 2014 के लोकसभा चुनाव में भी पार्टी को भारी जीत मिली थी, वहीं 2015 के इन स्थानीय चुनावों में तृणमूल कांग्रेस ने न केवल बीजेपी को खाता खोलने से रोक दिया, बल्कि कोलकाता सहित 24 परगना के औद्योगिक क्षेत्रों में भी जबर्दस्त सफलता हासिल कर यह जता दिया है कि ममता की सादगी और मां-माटी- मानुष का जलवा जस का तस है।
92 स्थानीय निकायों में से 70 पर तृणमूल कांग्रेस, वाममोर्चा को 6, कांग्रेस को 5 जबकि 11 ऐसे नगरीय निकाय है जहां पर किसी को भी स्पष्ट बहुमत नहीं मिला है। इशारा साफ है और वहां की जनता का मूड साफ झलक रहा है।
हां, सबसे बड़ा झटका अगर किसी को लगा है तो वह भाजपा को, क्योंकि पार्टी को पश्चिम बंगाल में 2016 के विधानसभा चुनाव से काफी उम्मीदें हैं। अब एक और गढ़ बनाने की भाजपा की मंशा पर निकाय चुनाव के नतीजों से पानी फिरता नजर आ रहा है।
तृणमूल कांग्रेस को अकेले कोलकता नगर निगम में 144 वार्डो में से 114 पर सफलता मिली, जबकि कभी यहां सिरमौर रहे वाम मोर्चा को केवल 15, भाजपा को 7 और कांग्रेस को 5 सीटें ही मिल पाईं। तृणमूल ने दक्षिण बंगाल में विपक्ष का तो जैसे सफाया ही कर दिया।
उत्तर बंगाल में सभी 12 नगर निकायों पर कब्जा करने का तृणमूल का सपना जरूर पूरा नहीं हुआ लेकिन 8 स्थानों पर जीत हासिल उसने अपने महत्व और पकड़ को बता ही दिया है। कूचबिहार में 4 में से 3 और जलपाईगुड़ी में दो निकायों में दोनों में तृणमूल ने जीत हासिल की। यहां जलपाईगुड़ी सदर नगरपालिका की चर्चा जरूरी है, क्योंकि यहां पहले कांग्रेस का कब्जा था लेकिन बीते साल ही कांग्रेस के अधिकांश पार्षद तृणमूल में चले गए जिससे यहां पर तृणमूल का कब्जा हो गया था। लेकिन इस चुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने बाकयदा जीतकर अपना दबदबा बनाया और कांग्रेस के इस गढ़ पर कब्जा कर लिया।
राज्य में इस बार का स्थानीय चुनाव कई मामलों में दिलचस्प भी रहा। उत्तर 24 परगना की दो नगरपालिकाओं में इस बार एक ही परिवारों का ही कब्जा रहा और वह भी तृणमूल के खाते में गया । गरुलिया नगरपालिका में एक ही परिवार के 5 सदस्य, जबकि भाटापाड़ा नगरपालिका में 3 सदस्य चुनाव मैदान में थे। गरुलिया नगरपालिका में वहां के चेयरमैन सुनील सिंह, उनकी पत्नी सरिता सिंह, भाई संजय सिंह, दूसरे भाई चंद्रभान सिंह, संजय सिंह की पत्नी संध्या सिंह चुनाव मैदान में थे जिसमें सभी ने जीत दर्ज की।
चंद्रभान सिंह निर्दलीय थे, जबकि शेष 4 तृणमूल से थे। इसी प्रकार भाटापाड़ा में अर्जुन सिंह के परिवार के तीन सदस्य चुनाव मैदान में थे जिसमें दो पहले ही निर्विरोध जीत दर्ज कर चुके हैं, तीसरे सदस्य सौरभ सिंह ने तृणमूल से ही चुनाव लड़ा और जीत हासिल की।
हुगली में भी तृणमूल कांग्रेस ने 12 नगरीय निकायों में से 11 में शानदार बहुमत दर्ज कराते हुए कब्जा कर लिया है। केवल भद्रेश्वर नगर पालिका में ही त्रिशंकु की स्थिति बनी हुई है। सिलीगुड़ी को छोड़ उत्तर बंगाल में भी उसे अच्छी सफलता मिली है। यहां पर तृणमूल कांग्रेस को 12 में से 8 निकायों को ही जीत कर संतोष करना पड़ा। यहां पर सबसे प्रतिष्ठित सिलीगुड़ी निकाय रहा जहां 2009 के नगर निगम चुनाव में वाममोर्चा का किला ढह गया था।
सिलीगुड़ी में इस बार वाममोर्चा ने फिर से जीत हासिल कर अपनी खोई प्रतिष्ठा अर्जित कर ली है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि तृणमूल को उत्तर बंगाल में कोई खास नुकसान हुआ है। 47 सीटों वाले सिलीगुड़ी नगर निगम में वाममोर्चा को 23 सीटें मिली हैं फिर भी उसे अपना बोर्ड बनाने के लिए अभी 1 और सीट की जरूरत है।
उत्तर बंगाल में तृणमूल को माथाभांगा, कूचबिहार, तूफानगंज, मालबाजार, ओल्ड मालदा, इंग्लिश बाजार, गंगारामपुर पर जीत मिली है जबकि वाममोर्चा को सिलीगुड़ी और दिनहटा जबकि कांग्रेस को इस्लामपुर और कालियागंज निकाय से संतोष करना पड़ा।
इतना तो नगरीय निकाय चुनावों से पश्चिम बंगाल में साफ हो गया है कि तृणमूल कांग्रेस की आंधी में विरोधी दलों की चूलें बुरी तरह से हिल गई हैं। निश्चित रूप से 2016 के विधानसभा चुनाव में जीत का सपना देख रही भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए ही यह एक बड़ा झटका है। तृणमूल कांग्रेस का अकेले कोलकता नगर निगम चुनाव का अगर हिसाब-किताब किया जाए तो वर्ष 2000 में जहां पार्टी ने 61 सीटों पर जीत दर्ज कर अपना सफर शुरू किया था जो वर्ष 2005 में घटकर 42 हुआ फिर 2010 में 95 सीटें जीती और अब 114 सीट जीत कर यह दोगुना हो चुका है।
मतदाताओं का संकेत साफ है, हवा का रुख भी दिख रहा है। वर्ष 2016 के विधानसभा चुनाव के लिए समय भी बहुत तेजी से करीब नजर आ रहा है। ऐसे में सवाल बस एक है वो ये कि जब मां-माटी-मानुष का दबदबा जस का तस है, तो बांकी का क्या होगा? इस जीत के आगे क्या वाममोर्चा, क्या कांग्रेस और क्या भाजपा सभी बौने नजर आ रहे हैं।
लगता है कि ममता की सादगी और माटी, मानुष से जुड़ाव पश्चिम बंगाल मे बेहद असरकारक रहे, तभी 3 दशकों तक सत्ता में रहे वाममोर्चा के उखड़े पैर अब भी जमने का नाम नहीं ले रहे, वहीं कांग्रेस और भाजपा दोनों ही भौंचक्के होकर केवल इस आंधी को देखने के लिए मजबूर नहीं है तो और क्या है?