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Sunday , 8 June 2025

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संवैधानिक अधिकार है आरक्षण

सामाजिक व शैक्षिक रूप से पिछड़े, वंचित वर्गो को सर्वप्रथम 1901-02 में कोल्हापुर के रियासतदार साहू जी महाराज ने शिक्षण संस्थाओं व नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था की। इसके बाद 1935 से पूर्व ब्रिटिश शासन में ‘डिप्रेस्ड क्लास’ नाम से सामाजिक रूप से पिछड़ी और दलित जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था थी।

सामाजिक व शैक्षिक रूप से पिछड़े, वंचित वर्गो को सर्वप्रथम 1901-02 में कोल्हापुर के रियासतदार साहू जी महाराज ने शिक्षण संस्थाओं व नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था की। इसके बाद 1935 से पूर्व ब्रिटिश शासन में ‘डिप्रेस्ड क्लास’ नाम से सामाजिक रूप से पिछड़ी और दलित जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था थी।

लेकिन 1935 में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट बनने यानी गोलमेज सम्मेलन के बाद डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अंग्रेजों से बात कर डिप्रेस्ड क्लास की अछूत जातियांे के लिए सभी स्तरों पर आरक्षण की व्यवस्था कराई, लेकिन जो जातियां टचेबल/छूत यानी पिछड़ी, अतिपिछड़ी थीं, उन्हें आरक्षण के लाभ से वंचित कर दिया गया। पिछड़े वर्ग की जातियों के साथ आजादी से पूर्व से ही धोखाधड़ी होती रही है।

संविधान के अनुच्छेद 330 के तहत अनुसूचित जातियों/जनजातियों के लिए नौकरियों एवं 332 के तहत राजनीति में जनसंख्यानुपात में आरक्षण की व्यवस्था की गई। संविधान के अनुच्छेद 340 में सामाजिक व शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गो के लिए आयोग बनाने का उल्लेख किया गया है। इसके आधार पर 1953-55 में काका कालेलकर आयोग का व 1978-80 में मंडल कमीशन का गठन किया गया।

मंडल कमीशन की रिपोर्ट व सिफारिश के आधार पर 52 प्रतिशत अन्य पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरियों व शिक्षण संस्थाओं में 27 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई, जो नैसर्गिक न्याय के प्रतिकूल है, क्योंकि एससी व एसटी को उनकी जनसंख्या के बराबर आरक्षण की व्यवस्था की गई, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर 52 प्रतिशत ओबीसी को मात्र 27 प्रतिशत आरक्षण दिया गया।

आरक्षण संवैधानिक व मौलिक अधिकार है। सामाजिक व शैक्षिक रूप से जो समुदाय व जाति समूह पिछड़ा, वंचित, उपेक्षित या अत्याचारित है, उन्हें विशेष अवसर देकर उन्नयन का रास्ता दिए जाने की व्यवस्था है। आर्थिक आधार पर आरक्षण का मुद्दा उठाना आरक्षण की समस्या का समाधान नहीं है।

जो संगठन या वर्गीय समूह आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग उठा रहे हैं, वे असंवैधानिक व नीति विरुद्ध हैं। आरक्षण की समस्या का समाधान ढूंढ़ने के लिए न्यायसंगत कदम उठाया जाना जरूरी है। आए दिन सामान्य वर्ग की जातियों को ओबीसी का कोटा देने की मांग उठ रही है, जिससे जातीय व वर्गीय संघर्ष की स्थिति पैदा होती जा रही है, जो राष्ट्रीय एकता के लिए खतरनाक कदम है।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण न दिए जाने के निर्णय में संविधान संशोधन के माध्यम से बदलाव करने के लिए सभी राजनीतिक दलों को ईमानदारी के साथ पहल करनी चाहिए।

इन दिनों पाटीदार अनामत आंदोलन समिति के अगुवा हार्दिक पटेल द्वारा अति संपन्न, उच्च व्यवसायी व खेतिहर पाटीदार पटेल समाज के गुजरात में ओबीसी कोटा देने की मांग का मुद्दा गरम है।

वहीं, उत्तर प्रदेश सहित कुछ अन्य राज्यों के जाट समाज द्वारा केंद्रीय पिछड़ा वर्ग सूची में शामिल करने तो राजस्थान के गुर्जर समाज द्वारा एसटी स्टेटस की मांग उठ रही है, तो कई राज्यों में सिंधी समाज द्वारा अल्पसंख्यक दर्जा व आंध्र प्रदेश, तेलंगाना के कुर्मी पटेल की ही उपजाति खम्मा, रेड्डी द्वारा भी ओबीसी कोटा के लिए आवाज उठ रही है और मुस्लिम समाज द्वारा भी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण की मांग उठाई जा रही है।

आरक्षण के द्वारा जातीय व वर्गीय टकराव को दूर करने के लिए आरक्षण की सीमा को संविधान संशोधन के माध्यम से लांघना होगा। सवर्ण या सामान्य जातियों द्वारा जो ओबीसी कोटा देने की मांग की जा रही है, उसके मद्देनजर आरक्षण कोटा को बढ़ाकर उन्हें विशेष आरक्षण अलग से दिए जाने के लिए गंभीरता से विचार करना होगा।

अन्य पिछड़े वर्ग के आरक्षण का अधिकांश हिस्सा कुछ ही ताकतवर, राजनीतिक रूप से मजबूत जातियां हड़पकर ले जा रही हैं, जिससे अतिपिछड़ी, अत्यंत पिछड़ी व वंचित जातियां पिछड़े वर्ग का विभाजन करने व अलग कोटा दिए जाने की मांग कर रही है।

यह कोई नई मांग नहीं है, क्योंकि तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, उड़ीसा, हरियाणा, पश्चिम बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र आदि राज्यों में दो या दो से अधिक उपवर्ग बनाकर आरक्षण की व्यवस्था की गई है। केरल, बिहार, आंध्रप्रेश, कर्नाटक, पंजाब में अनुसूचित जातियों को भी दो या चार वर्गो में बांटकर अलग-अलग आरक्षण है। तमिलनाडु में 68 प्रतिशत, कर्नाटक में 62 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 73 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है और राजस्थान सरकार ने आरक्षण कोटा बढ़ाते हुए 68 प्रतिशत करने का विधेयक विधानसभा में पारित किया है।

राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग भी सैद्धांतिक तौर पर दो या तीन उप वर्गो में पिछड़े वर्ग के विभाजन की रूपरेखा तैयार कर सरकार को सुझाव दे दिया है। मंडल कमीशन के सदस्य एलआर नायक ने उसी समय अपनी सिफारिश व डिसेंट नोट्स में पिछड़े वर्ग का दो श्रेणियों में विभाजन कर खेतिहर व सम्पन्न पिछड़े वर्गो को 12 प्रतिशत व अत्यंत पिछड़े, कृषि मजदूर तथा पुश्तैनी पेशेवर जातियों को 15 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने का सुझाव दिया था। मगर उनके सुझाव को नकार दिया गया।

अन्य पिछड़े वर्ग व अनुसूचित जाति के आरक्षण की समीक्षा ईमानदारी से किया जाना समय की मांग है। वर्ष 1963-65 में गठित लोकुर कमेटी ने अनुसूचित जातियों के आरक्षण की समीक्षा करते हुए कुछ जातियों को इस सूची से विलोपित कर मल्लाह, केवट, बिंद, बियार, राजभर, बंजारा, नोनिया, नाई आदि जैसी जातियों को एससी में रखे जाने का सुझाव दिया था। मंडल कमीशन के मिसलेनियस 13.37 में भी मछुआरा, बंजारा, बांसखोर, खटवा जैसे समुदायों को एससी में शामिल करने का लक्षण पाते हुए सुझाव दिया था कि भारत सरकार इन्हें अनुसूचित जाति में शामिल करें तो न्यायोचित होगा।

आरक्षण के मुद्दे पर जो विभिन्न राज्यों में जातीय व वर्गीय टकराव व संघर्ष की स्थिति पैदा होती जा रही है, समय रहते यदि इसका रास्ता निकालकर समाधान नहीं किया गया तो गृहयुद्ध की स्थिति पैदा हो जाएगी। जिस तरह अन्य पिछड़े वर्ग में मलाईदार परत (क्रीमी लेयर) को आरक्षण से वंचित करने का प्राविधान है, उसी तरह एससी व एसटी में भी क्रीमीलेयर को आरक्षण के दायरे से बाहर रखने की व्यवस्था होनी चाहिए। (आईएएनएस/आईपीएन)

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