नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली एक अपील को खारिज कर दिया, जिसमें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 2007 में कथित तौर पर भड़काऊ भाषण (Hate Speech) देने के लिए अपने खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति देने से इनकार कर दिया था. साल 2007 में जब योगी आदित्यनाथ के खिलाफ यह आरोप लगा था, उस समय वह गोरखपुर के सांसद थे.
प्रधान न्यायाधीश एनवी रमना, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस सीटी रविकुमार की पीठ ने बुधवार (बीते 24 अगस्त) को मामले में अपना आदेश सुरक्षित रख लिया था. शुक्रवार को मामले की सुनवाई करते हुए पीठ ने कहा कि इस मामले में मंजूरी देने से इनकार करने पर चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है.
पीठ ने कहा, ‘मंजूरी से जुड़े कानूनी प्रश्नों को किसी उपयुक्त मामले से निपटने के लिए खुला रखा जाएगा.’
याचिकाकर्ता परवेज परवाज ने उत्तर प्रदेश सरकार के 3 मई, 2017 के फैसले को चुनौती दी थी, जिसमें योगी को तब तक मुख्यमंत्री और कार्यकारी प्रमुख होने का दावा करते हुए मुकदमा चलाने की मंजूरी देने से इनकार कर दिया गया था. उन्होंने सवाल किया था कि क्या वह योगी इस मामले की मंजूरी प्रक्रिया में भाग ले सकते थे.
हाईकोर्ट ने 22 फरवरी 2018 को दिए अपने फैसले में कहा था कि उसे अभियोग चलाने की मंजूरी देने से इनकार करने का निर्णय लेने की प्रक्रिया या जांच में कोई प्रक्रियात्मक त्रुटि नहीं मिली है.
इसके बाद याचिकाकर्ता परवेज परवाज ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था.
बीते बुधवार को मामले की सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता परवाज की ओर से पेश अधिवक्ता फुजैल अहमद अयूबी ने कहा था कि हाईकोर्ट ने इस सवाल पर ध्यान नहीं दिया था, ‘क्या राज्य किसी आपराधिक मामले में प्रस्तावित आरोपी के संबंध में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 196 के तहत आदेश पारित कर सकता है, जो इस बीच मुख्यमंत्री के रूप में चुने जाते हैं और संविधान के अनुच्छेद 163 के तहत प्रदत्त व्यवस्था के अनुसार कार्यकारी प्रमुख हैं.’
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, धारा 196 कहती है कि कोई भी अदालत धारा 153ए (धर्म, जाति, जन्म स्थान, निवास, भाषा आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देना और सद्भाव बनाए रखने के लिए प्रतिकूल कार्य करना) या 295ए (जान-बूझकर और दुर्भावनापूर्ण कार्य, जिसका उद्देश्य केंद्र या राज्य सरकार की मंजूरी के बिना किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को उसके धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान करके आहत करना है) के तहत अपराध का संज्ञान नहीं लेगी.
सीजेआई ने रेखांकित किया था कि एक क्लोजर रिपोर्ट पहले ही दायर की जा चुकी है और पूछा था कि इसके बाद मंजूरी का कोई सवाल कैसे हो सकता है.
अयूबी ने कहा था कि केंद्रीय फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला (सीएफएसएल) ने भाषण वाली डीवीडी की जांच की और क्राइम ब्रांच द्वारा जांच में प्रथमदृष्टया अपराध पाया गया और अभियोजन की मंजूरी मांगी गई, जिसे अस्वीकार कर दिया गया.
उत्तर प्रदेश की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने कहा था कि मामले में कुछ भी नहीं बचा है. उन्होंने कहा कि (संबंधित भाषण की) डीवीडी सीएफएसएल को भेजा गया था और पता लगा कि इसमें छेड़छाड़ की गई थी.
रोहतगी ने कहा था कि न्यायालय को जुर्माना लगाकर मामले को खरिज कर देना चाहिए. रोहतगी ने कहा कि याचिकाकर्ता ने वर्ष 2008 में एक टूटी हुई डीवीडी दी थी और फिर पांच साल बाद उन्होंने कथित तौर पर अभद्र भाषा की एक और सीडी दी.
साल 2017 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 2007 में गोरखपुर और आस-पास के जिलों में मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा भड़काने के आरोप में अपने खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति देने से इनकार कर दिया था.
मालूम हो कि दो समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने के आरोपों को लेकर तत्कालीन सांसद योगी आदित्यनाथ और अन्य लोगों के खिलाफ गोरखपुर के एक थाने में एफआईआर दर्ज की गई थी. यह आरोप लगाया गया था कि आदित्यनाथ द्वारा कथित नफरती भाषण के बाद उस दिन गोरखपुर में हिंसा की कई घटनाएं हुईं थीं.
मालूम हो कि गोरखपुर की जिला एवं सत्र अदालत ने जुलाई 2020 में योगी आदित्यनाथ के खिलाफ मुकदमा करने वाले 65 वर्षीय कार्यकर्ता परवेज परवाज को 2018 के एक गैंगरेप मामले में दोषी ठहराकर उन्हें एक अन्य आरोपी महमूद उर्फ जुम्मन के साथ आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी.
परवेज परवाज ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (घटना के समय गोरखपुर के सांसद) पर 27 जनवरी 2007 को गोरखपुर रेलवे स्टेशन गेट के सामने भड़काऊ भाषण देने और उसके कारण गोरखपुर व आस-पास के जिलों में बड़े पैमाने पर हिंसा होने का आरोप लगाते हुए हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी.