श्रीनगर, 20 दिसम्बर (आईएएनएस)। कश्मीर में जाड़ों का राजा कहे जाने वाले चिल्लई कलां की शुरुआत सोमवार से हो रही है। 40 दिन तक चलने वाले चिल्लई कलां में पड़ने वाली तीखी ठंड का सामना करने के लिए लोगों ने तैयारी कर ली है। बहुत अधिक ठंड का यह मौसम कश्मीर के लोगों के लिए हर साल उम्मीदें लेकर आता है। इसमें होने वाला भारी हिमपात बाद में घाटी के नदियों, नालों, झरनों और झीलों के लिए लबालब पानी की सौगात लेकर आता है।
श्रीनगर, 20 दिसम्बर (आईएएनएस)। कश्मीर में जाड़ों का राजा कहे जाने वाले चिल्लई कलां की शुरुआत सोमवार से हो रही है। 40 दिन तक चलने वाले चिल्लई कलां में पड़ने वाली तीखी ठंड का सामना करने के लिए लोगों ने तैयारी कर ली है। बहुत अधिक ठंड का यह मौसम कश्मीर के लोगों के लिए हर साल उम्मीदें लेकर आता है। इसमें होने वाला भारी हिमपात बाद में घाटी के नदियों, नालों, झरनों और झीलों के लिए लबालब पानी की सौगात लेकर आता है।
पर्यावरण विज्ञान की अध्यापक मंशा निसार ने आईएएनएस से कहा, “कश्मीर के पहाड़ों में मौजूद तमाम जलाशय, जो स्थानीय नदियों, झरनों, नालों और झीलों को गरमी के मौसम में पानी देते हैं, चिल्लई कलां के मौसम में होने वाले हिमपात से भर जाते हैं।”
मंशा ने कहा, “इस 40 दिन के अंदर होने वाला हिमपात लंबे समय तक जमे रहने की अवस्था में रहता है। यही हिमपात घाटी में ग्लैशियरों की संख्या में इजाफा करता है। चिल्लई कलां के बाद होने वाला हिमपात लंबे समय तक नहीं टिकता।”
दफ्तर जाने वाले लोगों को अगर छोड़ दें, तो चिल्लई कलां के दौरान कश्मीरी ‘फेरन’ नाम का एक खास तरह का ऊनी कपड़ा पहनते हैं। आर्थिक स्थिति चाहे जैसी हो, कश्मीरी इस दौरान फेरन ही पहनते हैं। फेरन के नीचे गरम कोयलों वाली ‘कांगड़ी’ कश्मीरी के शरीर और आत्मा, दोनों को गरम रखती है।
अवकाश प्राप्त चीफ इंजीनियर ख्वाजा निसार हुसैन ने कहा कि बिजली की भारी किल्लत, जीवाश्म ईंधन की बढ़ती कीमत के बीच एक कश्मीरी के लिए आज 21वीं सदी में भी फेरन और कांगड़ी ही सबसे बेहतर हैं। लंबी सर्द रातों, जमे हुए पानी के नलकों, बर्फ से पटी सड़कों का सामना इन्हें पहन कर ही किया जा सकता है।
बच्चों के लिए यह मौसम कुछ खास ही होता है। श्रीनगर के बाहरी हिस्सों में रहने वाले अब्दुल गनी मीर ने कहा कि बच्चे तो घर में रहने से ही मना कर देते हैं। बर्फ के गोलों से खेलते रहते हैं, स्नोमैन बनाते रहते हैं। अभिभावक परेशान रहते हैं कि कहीं खांसी-जुकाम न हो जाए, लेकिन बच्चे हैं कि मानते नहीं।
इस मौसम में रात का तापमान शून्य से काफी नीचे चला जाता है। दिन में भी बहुत हुआ तो पारा 7 तक ही पहुंचता है। लोग नलों के आस-पास आग जलाते हैं। तब कहीं पानी टपकना शुरू होता है।
ठंड से निपटने के लिए मांसाहारी भोजन पर जोर रहता है। इस मौसम में ‘हरिसा’ की सर्वाधिक मांग होती है। बकरे के मांस को चावल और मसालों के साथ पका कर हरिसा बनाया जाता है। इसे आम तौर से रात में बनाया जाता है और सुबह की पहली किरण के साथ ही दुकान पर इसे लेने वाले पहुंचने लगते हैं।
चिल्लई कलां ही सिर्फ नहीं आता घाटी में। इसके बाद 20 दिन का चिल्लई खुर्द होता है और 10 दिन का चिल्लई बच्चा होता है। स्थानीय लोग बताते हैं कि इन दोनों में कई बार चिल्लई कलां से भी अधिक ठंड पड़ती है।