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 बिहार का परिणाम देख उप्र में नए समीकरण | dharmpath.com

Monday , 9 June 2025

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बिहार का परिणाम देख उप्र में नए समीकरण

बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा की शर्मनाक व अप्रत्याशित हार देख उत्तर प्रदेश में नए सामाजिक व राजनीतिक समीकरण बनने शुरू हो गए हैं। बिहार में जदयू-राजद-कांग्रेस महागठबंधन की अप्रत्याशित जीत से जहां भाजपा खेमे में मायूसी है, वहीं भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की चुनाव प्रबंधन में ‘विशेषज्ञता’ पर भी प्रश्नचिह्न् लग गया है।

बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा की शर्मनाक व अप्रत्याशित हार देख उत्तर प्रदेश में नए सामाजिक व राजनीतिक समीकरण बनने शुरू हो गए हैं। बिहार में जदयू-राजद-कांग्रेस महागठबंधन की अप्रत्याशित जीत से जहां भाजपा खेमे में मायूसी है, वहीं भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की चुनाव प्रबंधन में ‘विशेषज्ञता’ पर भी प्रश्नचिह्न् लग गया है।

उप्र में वर्ष 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव में बसपा प्रमुख मायावती को सत्ता में अपनी वापसी के आसार दिख रहे हैं, मगर सत्ता में वापसी के लिए सिर्फ दलित-मुस्लिम समीकरण ही काफी नहीं है। भाजपा उत्तर प्रदेश में सत्ता की प्रबल दावेदार के रूप में अपने को देख रही थी। लेकिन बिहार चुनाव परिणाम ने उसकी आशाओं पर पानी फेर दिया।

भाजपा को सवर्णो या ब्राह्मणों-बनियों की पार्टी कहा जाता है। उसकी यह पहचान सत्ता प्राप्ति के लिए काफी नहीं है। वहीं सपा का आधार वोट बैंक मुस्लिम-यादव को माना जाता है, मगर तीनों प्रमुख दल तब तक सत्ता के करीब नहीं पहुंच सकते, जब तक इनके साथ किसी ठोस वोट बैंक का जातिगत या वर्गीय समीकरण नहीं जुटता।

बिहार विधानसभा चुनाव में कामयाबी से कांग्रेस भी काफी उत्साहित है और अजीत सिंह के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) ने भी गठबंधन की राजनीति की कोशिशें तेज कर दी हैं। कांग्रेस हाईकमान उप्र के विधानसभा चुनाव-2017 में गठबंधन कर चुनाव लड़ने का विचार कर रहा है। वहीं प्रदेश अध्यक्ष डॉ. निर्मल खत्री ‘एकला चलो रे’ की बात कर रहे हैं। यदि उप्र में गठबंधन बनने की स्थिति पैदा होती है तो सपा का कांग्रेस के साथ तो बसपा का भाजपा, रालोद या कांग्रेस से गठबंधन हो सकता है।

बसपा, सपा के अलावा किसी भी दल के लिए अछूती नहीं है। परंपरागत वोट बैंक की दृष्टि से बसपा व सपा ही प्रबल दावेदार है, लेकिन इसी आधार वोट बैंक के सहारे उत्तर प्रदेश की सत्ता फिर से पाना दोनों दलों के लिए कठिन है।

भाजपा, सपा या बसपा को सत्ता प्राप्ति के लिए अतिपिछड़े वर्ग को बहुमत के साथ अपने साथ ध्रुवीकृत करने की कवायद शुरू करनी होगी। अतिपिछड़ा वर्ग भाजपा या सपा के साथ ही जा सकता है, क्योंकि बसपा ने सरकार में रहते अतिपिछड़ों को हाशिये पर रखा और परंपरागत पेशेवर जातियों के पुश्तैनी धंधे छीने, इसलिए अतिपिछड़ा वर्ग बसपा के पाले में जाने से परहेज ही करेगा।

सामाजिक न्याय समिति-2001 की रिपोर्ट के अनुसार, लोधी/किसान-6.06 प्रतिशत, कुशवाहा/मौर्य/काछी/सैनी आदि-8.56 प्रतिशत, पाल/बघेल-4.43 प्रतिशत, राजभर-2.44 प्रतिशत, चौहान-2.33, तेली-3.01, कान्दू भुर्जी-1.43, विश्वकर्मा-3.72 प्रतिशत, नाई/सविता-1.01 प्रतिशत हैं।

सामाजिक चिंतक चौधरी लौटन राम निषाद ने विधान चुनाव-2017 के संबंध में स्पष्ट तौर पर कहा है कि अतिपिछड़ा, अत्यंत पिछड़ा वर्ग के ही पास उत्तर प्रदेश की सत्ता की चाभी है, क्योंकि उत्तर प्रदेश के जातिगत समीकरण में अतिपिछड़े वर्ग की आबादी-10.22, अत्यंत पिछड़े वर्ग की आबादी-33.34 प्रतिशत, अनुसूचित जाति की आबादी लगभग 21 प्रतिशत, यादव 10.39 प्रतिशत, सवर्ण लगभग 24 प्रतिशत हैं।

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, मुस्लिम आबादी लगभग 15 प्रतिशत है। सवर्ण जातियों में लगभग 7-8 प्रतिशत व अत्यंत पिछड़े वर्ग में लगभग 5-6 प्रतिशत आबादी मुस्लिम जातियों की है।

बिहार में करारी हार के बाद भाजपा के अंदर उप्र की भावी राजनीतिक समीकरणों पर नए सिरे से मंथन चल रहा है।

भाजपा सूत्रों की मानें तो बिहार में पिछड़ों, अतिपिछड़ों की एकजुटता के कारण बुरी हार का सामना कर चुकी भाजपा अपना अगला प्रदेश अध्यक्ष किसी अतिपिछड़े या अत्यंत पिछड़े को तो बनाएगी ही, मुख्यमंत्री पद के लिए भी किसी पिछड़े या अत्यंत पिछड़े को आगे कर चुनाव लड़ेगी, क्योंकि उसे अच्छी तरह मालूम पड़ गया है कि यदि पिछड़ों को उपेक्षित किया गया तो उप्र में भाजपा की स्थिति बिहार की तरह होने से कोई रोक नहीं सकता।

पार्टी के अंदरखाने की चर्चा है कि पूर्व संगठन मंत्री व भाजपा पिछड़ा वर्ग मोर्चा के वरिष्ठ नेता प्रकाश पाल, प्रदेश महामंत्री स्वतंत्रदेव सिंह, अनुपमा जायसवाल, विधायक धर्मपाल सिंह लोधी, सांसद केशव प्रसाद मौर्य, केंद्रीय मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति (निषाद) को प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपी जा सकती है।

स्वतंत्रदेव सिंह अध्यक्ष पद की दौड़ में आगे हैं, लेकिन इनकी कोई सामाजिक व जातिगत पहचान न होने के कारण पार्टी नेतृत्व इन पर दांव लगाने से शायद परहेज करे। ज्यादातर संभावना है कि निरंजन ज्योति, धर्मपाल सिंह या प्रकाश पाल में से किसी एक के नाम पर मुहर लगाई जा सकती है, क्योंकि प्रदेश में इन तीनों की जातियों के पास ठोस वोट बैंक है।

भाजपा, बसपा का ओबीसी, एमबीसी, ईबीसी प्रेम कितना सच व कितना झूठ है, इससे ये वर्ग पूरी तरह वाकिफ हो चुके हैं। बसपा, भाजपा भले ही अतिपिछड़ी जातियों के हितों की वकालत करने का दावा करती हों, यदि इन दोनों के अतिपिछड़ा प्रेम की पड़ताल करेंगे तो इन्हें अतिपिछड़ों का सबसे बड़ा विरोधी पाएंगे।

हलांकि विधानसभा चुनाव-2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली बसपा ने भले ही जीत का श्रेय ब्राह्मण वर्ग को दिया हो, लेकिन बसपा की जाति आधारित भाईचारा कमेटियों के माध्यम से मिले अतिपिछड़ा वोट बैंक से ही बसपा को स्पष्ट बहुमत मिलने के पुख्ता सुबूत विधानसभा चुनाव 2012 में मिल गए थे, लेकिन दलित-पिछड़ों के बल पर फिर से खड़ी हुई बसपा को जब 2007 में स्पष्ट बहुमत मिल गया तो उसने सबसे पहले जाट आरक्षण आंदोलन का समर्थन कर अतिपिछड़ा विरोधी होने का प्रमाण दे डाला।

इसके अलावा उसने सरकार में पूरे पांच साल तक हर मौके पर अतिपिछड़े वर्ग की अनदेखी की तथा वोट बैंक हासिल करने को जो मंत्री अतिपिछड़े वर्ग से बनाए थे, उन्होंने ने भी अपने समाज का शोषण करने में कोर कसर नहीं छोड़ी।

दावे के साथ कहा जा सकता है कि 2012 के विधानसभा चुनाव में अतिपिछड़ा बसपा से छिटककर सपा के साथ गया तो बसपा अर्श से फर्श पर पहुंच गई और 2014 के लोकसभा चुनाव में अतिपिछड़ों ने भाजपा को खुलकर वोट किया, तो हमेशा लोकसभा में अच्छी खासी सीटें रखने वाली बसपा ‘जीरो’ के आकड़े पर आ गई और गर्त में पड़ी भाजपा को उत्तर प्रदेश से अपना दल सहित 73 सांसद जीतने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

लेकिन मोदी के टॉप टेन मंत्रियों में कोई भी अतिपिछड़ा, पिछड़ा मंत्री नहीं है। इसलिए यह दावा करना गलत न होगा कि बसपा को ब्राह्मणवाद पर विश्वास व जाट आरक्षण का समर्थन करने का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है और बात भाजपा के अतिपिछड़ा प्रेम की करें तो ये बसपा से भी चार कदम आगे निकल गई।

भाजपा ने भी हमेशा हर विधानसभा क्षेत्र में एक लाख से अधिक मतदाता वाले अतिपिछड़े वोटों की बदौलत सत्ता हासिल की और सरकार बनाने के बाद इन्हें केवल पूजा-पाठ तक ही सीमित रखा। इसके बावजूद लोकसभा चुनाव 2014 में अतिपिछड़ों ने सपा व बसपा से निराश होकर भाजपा के पक्ष में बंपर वोटिंग कर अप्रत्याशित जीत दिलाई और अतिपिछड़ों के नाम पर प्रधानमंत्री बनते ही मोदी ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द किए गए जाट आरक्षण पर ‘स्पेशल रिट’ दाखिल कर अतिपिछड़ों के दुश्मन होने का प्रमाण दे डाला और आज मोदी जहां खुद को आरक्षण का कटर समर्थक बताते घूम रहे हैं, वहीं बहन जी अतिपिछड़ों की चिंता करती दिखाई दे रही हैं।

यदि ये दोनों वकाई अतिपिछड़ों के कट्टर समर्थक हैं तो जाट सहित उन दबंग जातियों के आरक्षण का खुल कर विरोध करें जो साधन संपन्न होने के बाद आरक्षण का लाभ पा रही हैं या आरक्षण की मांग कर रही है। इसके साथ-साथ बसपा, भाजपा के नेता जिसकी जितनी जनसंख्या में हिस्सेदारी उतनी उनके सत्ता में को ध्यान में रखकर अतिपिछड़ों सांसद व विधायक टिकट दें, वरना झूठे प्रेम का ढांेग दिखाना बंद करें।

राष्ट्रीय निषाद संघ के राष्ट्रीय सचिव लौटन राम निषाद ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि निषाद, मल्लाह, केवट, मांझी, बिंद, धीवर, कहार, गोड़िया, तुरहा, रायकवार, राजभर, कुम्हार, प्रजापति, नोनिया जैसी अत्यंत पिछड़ी जातियां बसपा के बहकावे में आने वाली नहीं हैं और भाजपा के भी अतिपिछड़ा विरोधी कारनामों के कारण उसके झांसे में आने वाली नहीं हैं। (आईएएनएस/आईपीएन)

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार/राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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