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 भारत को क्यों पड़ी संसदीय प्रणाली की जरूरत? | dharmpath.com

Monday , 9 June 2025

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भारत को क्यों पड़ी संसदीय प्रणाली की जरूरत?

नई दिल्ली, 19 दिसम्बर (आईएएनएस)। क्या ‘परिचय’ ही एकमात्र कारण था कि भारत ने संसदीय शासन प्रणाली का चयन किया? लेखक भानु धमीजा ने अपनी पुस्तक ‘व्हाइ इंडिया नीड्स दि प्रेजिडेंशियल सिस्टम’ में जहां इस सवाल का जवाब तलाशते हैं, वहीं वे कुछ सशक्त विचार प्रस्तुत कर यह भी बताते हैं कि हमें किस प्रकार का शासन चाहिए।

अमेजन डॉट कॉम के टॉप थ्री बेस्ट सेलर में शामिल अपनी इस किताब के माध्यम से भानु धमीजा बताते हैं कि भारतीय शासन व्यवस्था शुरू से ही चरमराने लगी थी, क्योंकि देश के दो सर्वोच्च पदों की शक्तियों की व्याख्या ठीक से नहीं की गई थी।

लेखक का विचार है कि भारत की विविधता, विशालता और समुदायों के चलते यहां अमेरिका की तर्ज पर राष्ट्रपति शासन प्रणाली बेहतरीन विकल्प है। यहां लेखक का मंतव्य हमारी संसदीय प्रणाली के तहत सरकार की शक्तियां छीनकर प्रशासन चलाने से नहीं, बल्कि अमेरिकी लहजे में सारी व्यवस्था को व्यवस्थित करने से है।

भानु धमीजा ने बताया कि कैसे भारतीयों ने कमजोर तर्को के बल पर ब्रितानी संसदीय प्रणाली अपनाने को तरजीह दी। संविधान सभा में इस प्रणाली को सर्वप्रथम सही ठहराने का प्रयास करने वाले वल्लभ भाई पटेल इसके समर्थन में सिर्फ एक वजह बता पाए थे और वह थी प्रणाली से परिचित होना।

पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ और न्यूयार्क यूनिवर्सिटी के स्टर्न स्कूल ऑफ बिजनेस से शिक्षा प्राप्त व वर्तमान में हिमाचल में रह रहे लेखक भानु धमीजा मानते हैं कि जटिल रूप से केंद्रीकृत होने के कारण संसदीय शासन प्रणाली भारत के लिए मुफीद नहीं है।

अपना करीब आधा जीवन अमेरिका में बिता चुके धमीजा के अनुसार, संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा में संसदीय प्रणाली के दो फायदों पर जोर दिया था। इनमें से एक था ज्यादा जवाबदेह सरकारों की संभावना और दूसरा था एक मजबूत केंद्र।

लेखक का मानना है कि ये दोनों फायदे न तो वास्तविक थे और न ही व्यावहारिक। भानु धमीजा के अनुसार, प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने यह शासन प्रणाली चुनी, लेकिन उन्होंने संविधान सभा में इसकी वजह बताने की कभी जरूरत नहीं समझी।

किताब में जिक्र है कि संसदीय शासन प्रणाली का समर्थन करने वाले डॉ. अंबेडकर जब तक इस धारा में शामिल हुए, शासन प्रणाली का फैसला पहले ही लिया जा चुका था। यह अलग बात है कि ड्राफ्टिंग कमेटी का अध्यक्ष बनने से पहले उन्होंने इस प्रणाली का हमेशा विरोध किया था।

पुस्तक में जिक्र है कि कैसे वर्ष 1953 में राज्यसभा में चर्चा के दौरान डॉ. अंबेडकर ने अपने ही बनाए संविधान को हटा देने की इच्छा जताई थी। लेखक के अनुसार, सरदार पटेल और मोहम्मद अली जिन्ना भी अलग शासन व्यवस्था के पैरोकार थे। यहां तक कि महात्मा गांधी स्वयं पंचायतों पर आधारित शासन प्रणाली के पक्षधर थे।

लेखक ने यह जानने का प्रयास किया है कि एक विविधता भरे देश को महज एक मजबूत केंद्र के सहारे शासित करना क्या सही निर्णय है? इन मसलों को उठाने के साथ ही लेखक ने भारतीय संविधान को कमजोर करने के प्रयासों को भी बखूबी उघाड़ा है कि कैसे तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान अपने फायदे के लिए संविधान को पंगु बनाया और न्यायपालिका को तहस-नहस करने की कोशिश की।

अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने जिस तरह एक ही दिन में बिना चर्चा किए कई बिल पास करवा लिए, इस पर भी सवाल उठाए गए हैं। बड़ी बात यह कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी लेखक की कलम की धार से बच नहीं पाए हैं।

लेखक भानु धमीजा की इस किताब का विधिवत विमोचन दिल्ली में 21 दिसंबर को होने जा रहा है। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित होने वाले इस कार्यक्रम में शशि थरूर, शांता कुमार और कुलदीप नैयर सरीखे दिग्गज लेखक भी मौजूद रहेंगे।

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