उज्जैन। खुले आसमान के नीचे हजारों दीपों की रोशनी के साथ कलकलाते हुए
बहते नदी के झरने का चारों दिशाओं में छाये सन्नाटे में मधुर संगीत के
साथ मंत्रमुग्ध कर देने वाला वो वातावरण का दृश्य उन अन्धों के लिए कोई
आकर्षक का केंद्र नहीं है। कितने भी दीपक जला लो उन अन्धों के लिए तो वो
फिजूल ही है।
उक्त वाक्य राष्ट्रसंत आचार्य जयंतसेनसुरिश्वर जी म.सा. के शिष्यरत्न
मुनि वैभवरत्न विजय जी म.सा. ने मुंबई सात रास्ता जैन संघ को संबोधित
करते हुए कहा। मुनिश्री ने आगे कहा कि जिस तरह से अंधों के लिए रोशनी का
कोई मोल नहीं होता, ठीक उसी तरह हमारे संसार में भी 2 प्रजातियां ऐसी हैं
जिनकी आँखें होने के बाद भी वो अंधों की तरह संसार की दौड़ में दौड़े जा
रहे हैं। एक तो वो पशु जो अचेतन होने के नाते मृत्यु के बोध से अनजान है
और दूसरा वो मनुष्य जिसको मृत्यु का ज्ञान है फिर भी उससे पीछा छुड़ाने
की होड़ में दौड़ लगाये जा रहा है। मनुष्य जनता है मृत्यु एक न एक दिन
आना निश्चित है कितना भी भागे वो तो
आना ही है किन्तु मनुष्य हरपल हर क्षण मृत्यु की डर से भयभीत हो जीवन
बिता रहा है। सत्य की खोज मानो जैसे समुन्द्र की तरंगों की तरह क्षणिक
रही है। मुनिश्री ने आगे कहा दीपक चाहे काला हो या गोरा, मिट्टी का हो या
सोने, चाँदी, हीरा-माणिक का हो लेकिन जलने के साथ ही उसकी प्रक्रिया एक
सी हो जाती है। अंधकार को दूर कर प्रकाश फैलाना उसी तरह इस संसार में भी
सभी इस बात से भलीभाँती परिचित है की मृत्यु का कोई पर्याय नहीं, मृत्यु
सदा हराभरा संसार छीन काल के मुंह में ले जाती है लेकिन फिर भी मृत्यु को
मारने की असंभव कोशिश में पूरा संसार जुटा हुआ है। यानि की पूरा संसार
मृत्यु के भय को मार संसार को अभय बनाने की होड़ में लगा हुआ है। ये
भयभीत जीवन एक तरह का मृत्यु ही है और आज इसी होड़ में संसार का बसाया
हुआ बसेरा कभी भी बिछड़ ना जाये इसी मान्यता को लेकर आज मुर्दों की भीड़
इक_ी हुयी है। हरपल जो भी कुछ पाया अधूरा लगता है हर क्षण नई नई
आकांक्षाएं जन्म लेती है अतृप्त लालसा नमक वाले पुतलों की तरह जो शरीर
नामक पुतला अस्थायी है उसके लिए अंधे को रोशनी नहीं दिख सकती है। वो
अंदरुनी भाव विचारों से अंधे मानव का क्या भविष्य ये उसको दिखाई नहीं
देता। घर से शमशान जाने वाले मुर्दे को कोई रोक नहीं सकता फिर भी हर एक
मानव ये ही मोहजाल में फंसा हुआ है कि वो कभी मुर्दा बन नहीं सकता, मैं
नहीं मर सकता। जिसने संसार का बोध नहीं पा सका वो मृत्यु का बोध कैसे
पायेगा। संसार में राजभवन, हीरे जवाहरात, संपत्ति, सगे संबंधी वो सबकुछ
जो इस संसार ने दिया उसके मोह को त्याग नहीं सकता वो पत्तों का महल है
इसलिए संसार की यात्रा को छोड़ वो जीवन का अंत पा नहीं सकता और जो जीवन
का अंत नहीं पाया वो विचारों का मुर्दा क्या खाक जीवन जी पायेगा।
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