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बिहार की कहानी : शादी पर शिक्षा भारी

बुमुआर (बिहार), 22 दिसंबर (आईएएनएस)। बिहार के ग्रामीण इलाकों में आभिशाप बन चुके बाल विवाह के खिलाफ जागरूकता फैलाने की एक अनूठी पहल में शामिल दर्जनों लड़कियों में से एक 16 वर्षीय अंजलि कुमारी ने एक स्कूल शिक्षक बनने के अपने सपने को पूरा करने के लिए हिम्मत दिखाई और जिले में इस प्रथा के खिलाफ खड़ी हुई।

बुमुआर (बिहार), 22 दिसंबर (आईएएनएस)। बिहार के ग्रामीण इलाकों में आभिशाप बन चुके बाल विवाह के खिलाफ जागरूकता फैलाने की एक अनूठी पहल में शामिल दर्जनों लड़कियों में से एक 16 वर्षीय अंजलि कुमारी ने एक स्कूल शिक्षक बनने के अपने सपने को पूरा करने के लिए हिम्मत दिखाई और जिले में इस प्रथा के खिलाफ खड़ी हुई।

बुमुआर के एक सरकारी स्कूल में 11वीं कक्षा की छात्रा अंजलि बीतते दिसंबर के इन दिनों में अपनी हमउम्र लड़कियों के साथ अपने खपरैल घर के दो कमरों के बाहर सहज भाव में दिखाई दे रही है और ‘लगन’ (गर्मियों में शादी का मौसम) के दौरान शादी से इनकार करने की घटना को याद करती है।

यह महीने भर पहले बिहार सरकार द्वारा दो अक्टूबर को महात्मा गांधी की जयंती के मौके पर बाल विवाह के खिलाफ एक बड़ा अभियान चलाए जाने का नतीजा है।

यह एक गरीब लोहार की बेटी के लिए इतना आसान नहीं था।

अंजलि ने कहा, “जब मेरी मां ने मुझ पर दबाव डाला तब, मैंने अपनी मां को बताया कि जब तक मैं 12वीं कक्षा के बाद स्नातक पूरा नहीं कर लेती और एक शिक्षक बनने के अपने सपने को पूरा नहीं कर लेती, तब तक शादी का कोई सवाल ही नहीं है।”

अंजलि ने आईएएनएस को बताया, “शादी के लिए मना करने और अपनी उच्च शिक्षा की मेरी इच्छा को लेकर अभिभावकों को राजी करने के बाद, अन्य ग्रामीणों ने भी मुझे समर्थन दिया।”

अंजलि पांच बच्चों में दूसरे स्थान पर है। इसमें से तीन बहनें और दो भाई हैं। फिलहाल सभी पढ़ाई कर रहे हैं, केवल बड़े भाई के जो पढ़ाई छोड़ने के बाद दिल्ली में कार्यरत है।

यह बदलाव उस वक्त सामने आया, जब वह समग्र सेवा केंद्र (एसएसके) नाम के एक स्थानीय संगठन के संपर्क में आई। संगठन को एक अंतर्राष्ट्रीय गैर लाभकारी संस्था का समर्थन प्राप्त है, जो बच्चों को बचाने के लिए कार्य करता है।

संस्था का लक्ष्य न केवल बाल विवाह को लेकर जागरूकता फैलाना है, बल्कि इससे पड़ने वाले स्वास्थ्य, शिक्षा और सशक्तीकरण पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में भी जागरूक करना है। इसके साथ साथ यह संस्था लड़कियों को अपनी आवाज उठाने और एक रुख अख्तियार करने का अवसर प्रदान करती है।

अंजलि ने कहा, “प्रशिक्षण, बातचीत और सामने लाने के लिए एसएसके का शुक्रिया, मेरी हमउम्र लड़कियां बाल विवाह के इस अभिशाप को लेकर पूरी तरह से जागरूक हो चुकी हैं। मैं अपने जैसी दूसरी लड़कियों को सिखाना चाहती हूं और बाल विवाह जैसे सामाजिक अभिशाप से पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों के बारे में पड़ोसी गांवों में जागरूकता का प्रसार करना चाहती हूं।”

उसने कहा, “हमने कम उम्र में विवाह के खिलाफ अपनी क्षमताओं को विकसित करने पर ध्यान केंद्रित करने के मकसद से लड़कियों के लिए विशेष जानकारी शिविर लगाए। यह काफी फायदेमंद साबित रहा।”

एसएसके नेता बन चुकी अंजलि ने कहा, “इस साल मैंने एक पांच दिवसीय शिविर में हिस्सा लिया और पटना में हुए सम्मेलन में शिरकत की।”

अपनी चचेरी बहन अशांति कुमारी, जिन्होंने इस साल स्नातक के बाद शादी की, का उदाहारण देते हुए अंजलि ने कहा, “एसएसके में प्रशिक्षक बनने से पहले वह भी मेरी तरह, एक मुखर नेता थीं।”

आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि बच्चों का बचपन बचाने के अभियान ने अंजलि और उसकी उम्र की दूसरी लड़कियों को बच्चों का चैम्पियन बना दिया। उनकी मां गायत्री ने एसएसके को धन्यवाद दिया। वह भी बाल विवाह के नकरात्मक प्रभावों से रूबरू हो चुकी हैं।

गायत्री ने आईएएनएस को बताया, “हम गरीब लोग हैं। हम चाहते थे कि उसकी शादी हो जाए, ताकि दो-तीन साल में दूसरी बेटी को शादी के लिए तैयार किया जा सके। अगर मेरी एक बेटी होती, तो मैं 24 से 25 साल की उम्र हो जाने तक भी उसकी शादी के बारे में नहीं सोचती। मेरी तीन बेटियां हैं। मुझे पछतावा है कि मैंने जल्दी शादी के दुष्प्रभावों को जाने बिना ही अंजलि पर शादी के लिए दबाव डाला। मुझे गर्व है कि उसने अपनी उच्च शिक्षा को पूरा करने के लिए जिद की।”

गायत्री अपना घर चलाने के लिए खेतों में मजदूरी करती हैं। उनके पति लोहा-लक्कड़ की एक छोटी सी दुकान चलाते हैं और रोजाना 100 से 150 रुपये तक कमाते हैं।

गायत्री ने कहा, “हमने एक दो कमरे का मकान बनाया और एक स्थानीय आदमी से कर्ज लेकर घर के बाहर हैंडपम्प (चापाकल) लगवाया। हमें न तो इंदिरा आवास (ग्रामीण गरीबों को आवास उपलब्ध कराने की योजना) का फायदा मिला और न ही शौचालय बनवाने के लिए हमारी मदद की गई।”

एसएसके परियोजना समन्वयक श्यामल नासकर ने कहा कि बाल विवाह को इसलिए बढ़ावा मिलता है, क्योंकि दहेज कम लगता है। बेटियों के बड़े हो जाने पर परिजनों को ज्यादा दहेज देना पड़ता है।

नासकर ने आईएएनएस को बताया, “पहले, गांवों में लोग बाल विवाह के दुष्प्रभावों को लेकर जागरूक नहीं थे। अब लोग, खासकर नवयुवतियां इसके लेकर पूरी तरह से जगरूक हैं। इन दिनों लड़कियां बाल विवाह के खिलाफ अपनी आवाज उठा रही हैं, शादी के लिए मना कर रही हैं और अपने अधिकारों के लिए बात कर रही हैं।”

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस -4, 2015-16) के मुताबिक, बिहार में अभी भी कम उम्र की 39.1 फीसदी लड़कियों की शादी हो रही हैं। हालांकि यह आंकड़ा 2005-06 के 69 प्रतिशत के मुकाबले 30 फीसदी बेहतर हुआ है।

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