बिहार विधानसभा चुनाव में राजग व महागठबंधन के साथ सपा गठबंधन सत्ता के लिए जोर-आजमाइश में जी जान से जुटे हैं। बिहार की सत्ता की मुख्य दावेदार राजद-जदयू-कांग्रेस महागठबंधन और भाजपा-लोजपा-हम-रालोसपा है।
बिहार विधानसभा चुनाव में राजग व महागठबंधन के साथ सपा गठबंधन सत्ता के लिए जोर-आजमाइश में जी जान से जुटे हैं। बिहार की सत्ता की मुख्य दावेदार राजद-जदयू-कांग्रेस महागठबंधन और भाजपा-लोजपा-हम-रालोसपा है।
अब तक के रुझानों के आधार पर दोनों गठबंधन एक-दूसरे से कम नहीं दिख रहे हैं। दोनों गठबंधनों ने अपने कोटे की अधिकांश सीटों के लिए उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है। दोनों गठबंधनों की तरफ से घोषित उम्मीदवारों की सूची को देखा जाए तो नवसामंत यादव, कुर्मी और कोयरी की बल्ले-बल्ले है।
महागठबंधन की तरफ से 64 यादव उम्मीदवार हैं, जिनमें से राजद ने 48, जदयू ने 14 व कांग्रेस ने 2 यादवों को अपना उम्मीदवार बनाया है। यहीं नहीं, राजग की प्रमुख पार्टी भाजपा ने 22 तथा हम, रालोसपा व लोजपा ने तीन-तीन यादव उम्मीदवार उतारा है। इस तरह देखा जाए तो दोनों गठबंधनों ने 89 यादवों को इस चुनावी समर में उतारा है।
सपा व पप्पू यादव की पार्टी से भी ज्यादातर यादव उम्मीदवार ही उतारे जाने की संभावना है। दोनों गठबंधनों की तरफ से अभी 40 उम्मीदवारों की घोषणा बाकी है, जिनमें 8-10 यादव उम्मीदवार हो सकते हैं। बिहार विधानसभा के घोषित उम्मीदवारों में जहां यादव, कुर्मी, कुशवाहा जैसी दबंग पिछड़ी जातियों का बोलबाला है, वहीं अत्यंत पिछड़ी जातियां दर किनार व उपेक्षित।
भाजपा ने अपने कोटे की जिन उम्मीदवारों की घोषणा की है, उनमें यादव-22, राजपूत-30, भूमिहार-18, ब्राह्मण-14, कुशवाहा-6, कायस्थ, कुर्मी-3-3, वैश्य-19, निषाद-6, मुस्लिम-2, एससी/एसटी-21 है।
भाजपा के सहयोगी रालोसपा प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा ने अपने कोटे की 23 सीटों में 8-9 कुशवाहा को ही उम्मीदवार बनाया है। राजग के सहयोगी संगठनों ने भाजपा के दो मुस्लिम उम्मीदवारों सहित 9 मुसलमानों को उम्मीदवार बनाया है।
महागठबंधन की तरफ से जो उम्मीदवार घोषित किए गए हैं, उनमें सवर्ण 16 प्रतिशत, ओबीसी-55 प्रतिशत, एससी/एसटी-15 प्रतिशत, मुस्लिम-14 प्रतिशत तथा महागठबंधन ने 25 महिलाओं को उम्मीदवार बनाया है। बिहार में यादव, निषाद, कुर्मी, कुशवाहा प्रमुख पिछड़ी व अत्यंत पिछड़ी जातियां हैं।
बिहार के जातिगत सामाजिक समीकरण में ब्राह्मण-4.10, राजपूत-4.0, भूमिहार-4.50, कायस्थ-2.50, वैश्य-3.10, यादव-11.10, निषाद (मल्लाह, बिंद, बेलदार, केवट आदि)-14.25, तुरहा-0.50, नोनिया-3.00, राजभर-0.70, भेड़िहार-0.90, प्रजापति-0.70, कुर्मी-3.10, कोयरी-3.50, मुस्लिम-14.70, अन्य अतिपिछड़े-6.60, जनजाति-1.40, चमार-9.50, पासी-0.75, दुसाध/पासवान-2.50, मुसहर-3.00, अन्य दलित-4.25 प्रतिशत हैं।
राजद-जदयू-कांग्रेस महागठबंधन को घेरने के लिए भाजपा ने काफी घेराबंदी की है। लालू प्रसाद यादव के जातिगत वोट बैंक में सेंध लगाने की जुगत में भाजपा लोकसभा चुनाव से ही जुटी है। नंद किशोर यादव को आगे बढ़ाना, राम कृपाल यादव को पनाह देना, फिर भूपेंद्र यादव को बिहार का प्रभारी बनाना और अब विधानसभा चुनाव में 22 यादव उम्मीदवारों को मैदान में उतारना इसी रणनीति का हिस्सा है।
विरासत के मुद्दे पर सांसद पप्पू यादव भी लालू प्रसाद को कम परेशान नहीं कर रहे हैं। महागठबंधन से मुलायम सिंह यादव का पीछा छुड़ाना लालू के लिए सदमा सरीखा है। जाहिर है, लालू ने सबसे ज्यादा दिमाग अपने आधार वोट बैंक को बचाने में लगाया। इसे सुरक्षित रखकर ही वे किसी भी दल से मुकाबले के लिए खड़ा हो सकते थे।
लालू यादव ने अपने माय (मुस्लिम/यादव) समीकरण के सहारे बिहार में डेढ़ दशक तक राज किया। इस चुनाव में लालू के सामने ‘करो या मरो’ की स्थिति है। मोदी व भाजपा का ही खौफ था कि वह अपने धुर विरोधी नीतीश कुमार को गले लगाने के लिए मजबूर हुए। सबसे बड़ी चुनौती यादव वोट बैंक को सहेज कर रखने की है। यही कारण है कि उन्होंने राजद के हिस्से की लगभग आधी सीटें यादव उम्मीदवारों को ही समर्पित कर दिया।
लालू ने इस तरह फील्ड सजाई है कि उनके परंपरागत वोट पर कोई नजर न डाले और न ही कृष्णवंशियों की किसी दूसरे विकल्प की जरूरत पड़े। लालू ने तीन तरफ से किलेबंदी की है। स्वजातीय किलेबंदी, सवर्णो की अनदेखी एवं मुस्लिम वोटों को लेकर खास रणनीति बनाकर चल रहे लालू को यह अहसास है कि इस बार उनके आधार वोट पर भाजपा समेत कई दलों की नजर है।
भाजपा की जो सबसे बड़ी कमजोरी दिखाई दे रही है, वह है मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित न करना। लालू-नीतीश को जातिवादी कहने वाली भाजपा ने भी उम्मीदवार खड़ा करने में जातिगत समीकरण को खासा महत्व दिया है।
दोनों गठबंधनों ने पिछड़ों को सहेजने के लिए पूरी जुगत लगाया है। राजद व जदयू ने राज्य के 36 प्रतिशत अत्यंत पिछड़ों को टिकट देने में काफी कंजूसी की है। बिहार में पिछड़े वर्ग में सबसे अधिक संख्या निषाद मछुआरों की है।
5 सितंबर को पटना के गांधी मैदान में बिहार निषाद अधिकार संघ के बैनर तले मुकेश साहनी के नेतृत्व में लाखों निषादों ने आरक्षण की मांग को लेकर रैली निकाली और जमकर लाठीचार्ज हुआ। मगर नीतीश ने शतरंजी बिसात बिछाते हुए सहनी को अपने खेमे में मिला लिया। फिर भी टिकट वितरण में राजद ने मात्र एक और जदयू ने मात्र तीन टिकट निषादों को दिया है, जिससे इस वर्ग में खासा असंतोष है। निषादों व अतिपिछड़ों का असंतोष बना रहा तो महागठबंधन को नुकसान उठाना पड़ेगा।
भाजपा के लिए असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम भी लाभकारी सिद्ध होगी। वैसे ओबैसी सिमांचल के जिलों में अपने उम्मीदवार खड़ा करने की घोषणा की है, जो कांग्रेस व राजद के हिस्से की ही सीटें हैं। इन क्षेत्रों में 30 से 40 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं। यदि ये एमआईएम के साथ ध्रुवीकृत हुए तो महागठबंधन को जहां खासा नुकसान होगा, वहीं भाजपा को लाभ मिलना स्वाभाविक है।
अतिपिछड़ा वर्ग सामाजिक चिंतक लौटन राम निषाद ने बिहार की सामाजिक राजनीति के संदर्भ में कहा कि अतिपिछड़ांे की राजनैतिक स्थिति तो दलितों, आदिवासियों से भी बदतर हो गई है, दलितों के लिए तो संवैधानिक व्यवस्था के तहत सीटें आरक्षित हैं, लेकिन मंडलवाद का दंभ भरने वाले नेताओं को आरक्षण के जननायक कपर्ूी ठाकुर का फार्मूला शायद याद नहीं रह गया है, तभी तो टिकट बांटने में 36 प्रतिशत अत्यंत पिछड़ों की इस तरह अनदेखी की गई है। बिहार के लिए चाहे कुछ भी करो, बिहार विधानसभा चुनाव से ‘जाति’ है कि जाती ही नहीं।
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत द्वारा आरक्षण की समीक्षा के मुद्दे पर लालू व नीतीश काफी आक्रामक रुख दिख रहे हैं, जबकि अतिपिछड़े समझ रहे हैं कि यह सिर्फ वोट बैंक की राजनीति है और भागवत के बयान से अतिपिछड़ों को कोई नुकसान नहीं है।
बिहार राजनीति के संदर्भ में कहा जा सकता है कि लालू ने पिछली बार की तुलना में इस बार मुस्लिमों की भागीदारी कम कर दी है, लेकिन यह भी एक रणनीति है। कोशिश है कि भाजपा मुस्लिम प्रभाव वाले क्षेत्रों में हिंदू वोटरों की गोलबंदी में कामयाब न हो। इसलिए लालू ने भाजपा की चालों को बड़ी चालाकी से कमजोर करने की कोशिश की है।
जातीय जनगणना की रिपोर्ट सार्वजनिक न किए जाने के मुद्दे पर केंद्र सरकार के खिलाफ महासंग्राम मचाने वाले लालू व नितीश को यह अहसास है कि उनके लिए सवर्ण मतदाताओं का समर्थन हासिल करना इतना आसान नहीं है। (आईएएनएस/आईपीएन हैं।)
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार व सामाजिक समीक्षक हैं)