पटना, 17 सितम्बर (आईएएनएस)। बिहार की राजनीति में 20-25 वर्ष पहले तक वामपंथी दलों की धमक सदन से सड़क तक सुनाई देती थी परंतु हाल के वर्षो में वामपंथी दलों की उपस्थिति कभी-कभार सड़कों पर तो जरूर नजर आती है, परंतु सदन में वामपंथी दलों की उपस्थिति नग्ण्य हो गई है। वर्ष 1995 में बिहार विधानसभा में वामपंथी दलों के 30 से अधिक विधायक हुआ करते थे, परंतु वर्तमान विधानसभा में मात्र एक वामपंथी विधायक सदन में है।
पटना, 17 सितम्बर (आईएएनएस)। बिहार की राजनीति में 20-25 वर्ष पहले तक वामपंथी दलों की धमक सदन से सड़क तक सुनाई देती थी परंतु हाल के वर्षो में वामपंथी दलों की उपस्थिति कभी-कभार सड़कों पर तो जरूर नजर आती है, परंतु सदन में वामपंथी दलों की उपस्थिति नग्ण्य हो गई है। वर्ष 1995 में बिहार विधानसभा में वामपंथी दलों के 30 से अधिक विधायक हुआ करते थे, परंतु वर्तमान विधानसभा में मात्र एक वामपंथी विधायक सदन में है।
हाल के दिनों में किए गए वमपंथी दलों के प्रयास से इस बात के संकेत जरूर मिले हैं कि आगामी विधानसभा चुनाव में वामपंथी दलों की स्थिति बेहतर होगी। वैसे अभी भी वामदलों को किसी ‘भगीरथ’ की तलाश है जो वामपंथी दलों की सूख चुकी धारा को फिर से बिहार की जमीं पर उतार सके।
वामपंथी दलों के गढ़ पश्चिम बंगाल के पड़ोसी राज्य होने के कारण बिहार में भी एक समय वामपंथी दलों का उभार था। तब वामपंथी जनता के सवालों पर कोई बड़ा आंदोलन या लोगों तक पहुंचने की कोशिश करते हुए दिखाई देते थे, परंतु कालांतर में इन आंदोलनों की संख्या भी घटती चली गई।
वैसे वामपंथी दलों के नेता इसके लिए कई कारण बताते हैं, लेकिन सबसे बड़ा कारण वामदलों का बिखराव मानते हैं।
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के प्रदेश सचिव अवधेश कुमार कहते हैं, “वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति में कई परिवर्तन आए हैं। ऐसे में वामपंथी पार्टियों ने इन बदलावों के हिसाब से अपनी लड़ाई को आगे नहीं बढ़ाया। वैसे इस चुनाव में वामपंथी दलों का एका सदन में वामपंथी दलों की उपस्थिति में जरूर परिवर्तन लाएगा।”
छठी बिहार विधानसभा में 35 विधायकों के साथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) सदन में विपक्षी पार्टी बनी थी। लेकिन वर्तमान विधानसभा में पार्टी के मात्र एक विधायक हैं।
भाकपा (माले) के कार्यालय सचिव कुमार परवेज कहते हैं, “वामपंथी एकता की कमी और हाईटेक प्रचार का साधन वामदलों के पास नहीं रहने के कारण आज बिहार में वामपंथ की यह स्थिति है।”
आंकड़ों पर गौर करें तो वर्ष 1972 के विधानसभा चुनाव में भाकपा 35 सदस्यों के साथ मुख्य विपक्षी दल बनी थी, लेकिन वर्ष 1977 में हुए चुनाव में वामपंथी दल के विधायकों की संख्या घटकर 25 हो गई। 1980 में हुए मध्यावधि चुनाव में भी वामपंथ ने अपनी मजबूत दावेदारी बरकरार रखी। भाकपा को 23, माकपा को छह और एसयूसीआई को एक सीट मिली।
1985 में भूमिगत तरीके से काम करने वाले संगठन ने इंडियन पीपुल्स फ्रंट (आईपीएफ) के नाम से एक मोर्चा बनाया और 85 सीट पर अपने उम्मीदवार उतारे। इस चुनाव में आईपीएफ कोई सीट नहीं जीत सका। उसी वर्ष भाकपा को 12 और माकपा को एक सीट हासिल हुई।
आइपीएफ को 1990 के विधानसभा चुनाव में भी सफलता मिली, जब उसके सात प्रत्याशी चुनाव जीते। इस चुनाव में भाकपा के 23 और माकपा के छह प्रत्याशी चुनाव जीते थे।
वर्ष 2000 के चुनाव के बाद से विधानसभा में वामपंथी विधायकों की संख्या में गिरावट शुरू हुई। 1995 तक जहां वामपंथी विधायकों की संख्या 38 होती थी, वह वर्ष 2000 में सिमट कर नौ हो गई। अक्टूबर 2005 के विधानसभा चुनाव में वाम दलों की सीटें नौ रहीं, जबकि 2010 के चुनाव में वाम दलों ने अपनी बची-खुची सीटें भी गंवा दी। वर्तमान समय में भाकपा के सिर्फ एक विधायक विधानसभा में हैं।
इस कठिन दौर में राज्य में सक्रिय छह प्रमुख वामपंथी दलों ने मिलकर चुनाव में उतरने का फैसला लिया है। इन दलों में भाकपा, भाकपा-माले, माकपा, सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर ऑफ इंडिया (एसयूसीआई), फॉरबर्ड ब्लॉक और आरएसपी शामिल हैं।
वैसे वामदलों को एकबार फिर आशा है कि वर्तमान हालात में वामपंथी दल एक बार फिर अपनी खोई राजनीतिक जमीन हासिल कर पाएंगे।
पूर्व विधायक गणेश शंकर विद्यार्थी का कहना है, “मंडल कमीशन के बाद वामदल अपनी नीतियों को जनता तक नहीं ले जा सके। आरक्षण का समर्थन करने के बाद भी वामदल जातीय राजनीति में किनारे कर दिए गए। इस चुनाव में फिर से वामदल उभरेंगे।
उन्होंने कहा, “सांप्रदायिकता और नव-उदारवाद के खिलाफ लड़ाई को जोड़ने से बिहार में वामपंथ को फिर से जनता का व्यापक समर्थन मिलेगा।”
राजनीति के जानकार और पटना विश्वविद्यालय के पूर्व प्राचार्य नवल किशोर चौधरी कहते हैं कि वैश्वीकरण और उदारीकरण के दौर में गरीबों और आम लोगों की मुश्किलें बढ़ी हैं। ये हालात वामपंथियों को जमीन वापस पाने का मौका दे सकते हैं।