Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the js_composer domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home4/dharmrcw/public_html/wp-includes/functions.php on line 6121
 मुंबई में मराठवाड़ा के प्रवासी गरीबी रेखा से ऊपर उठे | dharmpath.com

Tuesday , 17 June 2025

Home » धर्मंपथ » मुंबई में मराठवाड़ा के प्रवासी गरीबी रेखा से ऊपर उठे

मुंबई में मराठवाड़ा के प्रवासी गरीबी रेखा से ऊपर उठे

महाराष्ट्र के सूखा प्रभावित मराठवाड़ा क्षेत्र से मुंबई आए प्रवासियों की आय अस्थाई रूप से ही सही, लेकिन तीन गुणा बढ़ गई है। इससे वे गरीबी रेखा से ऊपर आ गए हैं, साथ ही अपने कर्ज को चुकाने की स्थिति में भी आ गए हैं। लेकिन, उनके परिवार को एक बड़ी कालीन जितनी जगह वाले महज 40 वर्गफीट के कमरे में रहना पड़ रहा है।

महाराष्ट्र के सूखा प्रभावित मराठवाड़ा क्षेत्र से मुंबई आए प्रवासियों की आय अस्थाई रूप से ही सही, लेकिन तीन गुणा बढ़ गई है। इससे वे गरीबी रेखा से ऊपर आ गए हैं, साथ ही अपने कर्ज को चुकाने की स्थिति में भी आ गए हैं। लेकिन, उनके परिवार को एक बड़ी कालीन जितनी जगह वाले महज 40 वर्गफीट के कमरे में रहना पड़ रहा है।

इंडियास्पेंड ने 60 प्रवासी परिवारों के सर्वेक्षण से यह निष्कर्ष निकाला है।

इन परिवारों का हर बालिग सदस्य पलायन कर मुंबई आने के बाद से हर माह 1,823 रुपये की कमाई कर रहा है जो कि आधिकारिक रूप से शहरी गरीबी रेखा 1,000 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति महीने से 80 फीसदी ज्यादा है। इनमें से ज्यादातर अपने गांवों में खेती करते थे, लेकिन अब वे भारत की वित्तीय राजधानी, मुंबई में विभिन्न कंस्ट्रकशन और नगर निगम के निर्माण स्थलों पर मजदूरी कर रहे हैं।

मराठवाड़ा के नांदेड़ स्थित अपने घर में हर आदमी 569 रुपये मासिक की कमाई करता था, जो ग्रामीण गरीबी रेखा से 30 फीसदी नीचे है। ग्रामीण गरीबी रेखा 819 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति माह निर्धारित की गई है।

प्रवासियों को मुंबई में गांव के मुकाबले कम पानी मिलता है। गांव में जहां वे 115 लीटर पानी रोजाना इस्तेमाल करते थे, वहीं मुंबई में उन्हें महज 43 लीटर रोजाना नसीब होता है। लेकिन, उनका कहना है कि इसे पाना आसान है, जबकि गांव में इसे अलग-अलग स्रोतों से जुटाना पड़ता था। इंडियन ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे (आईएचडीएस 2) के अनुसार गांव में हर भारतीय परिवार को पानी लाने में 30 मिनट खर्च करने पड़ते हैं।

मुंबई में जो परिवार अतिरिक्त 266 रुपये कमा रहे हैं, वे इसे खाने-पीने पर खर्च करते हैं। 15 अप्रैल तक पिछले तीन महीने की तुलना में इसकी कीमत उनके गांव के मुकाबले दोगुनी थी। उनका प्रति परिवार रोजाना खर्च 300 रुपये घटकर आधा हो गया, जब उन्हें मुफ्त अनाज जैसे चावल, अरहर की दाल आदि घाटकोपर सीनियर सिटीजन ग्रुप से मिलने लगी।

गांव से आए 72 फीसदी प्रवासियों ने बताया कि गांव में सार्वजनिक वितरण प्रणाली से सब्सिडी प्राप्त अनाज लाते थे। इनमें से आधे परिवारों का कहना है कि उनके बच्चों को सरकारी स्कूलों में मिड-डे-मील प्राप्त होता था। जब मार्च में स्कूलों में पढ़ाई खत्म हो जाती है, तो ये ग्रामीण गांव में उपलब्ध पानी का आकलन करते हैं और उसके बाद अपने बच्चों को मुंबई ले जाने का फैसला करते हैं।

इस साल यह फैसला करना काफी आसान था। महाराष्ट्र के 36 में 22 जिले इस साल लगातार दूसरी बार सूखे की चपेट में हैं। सूखा प्रभावित क्षेत्रों के परिवारों ने इस साल किसी भी अन्य साल की तुलना में ज्यादा संख्या में गांव से शहर का रुख किया है।

मुंबई के उपनगर घाटकोपर में निगम की खाली जमीन पर बांस की बल्लियों से बनाई गईं अवैध झोपड़ियों में रह रहे मराठवाड़ा के 350 परिवारों के सर्वे से यह विश्लेषण किया गया है।

देश भर में बेरोजगारी, सरकारी योजनाओं की नाकामी के कारण बड़े पैमाने पर लोगों का प्रवासन हो रहा है।

2016 के सूखे से 11 राज्यों के 266 जिलों में लगभग 33 करोड़ भारतीय प्रभावित हुए हैं। इसमें से यह साफ नहीं है कि इनमें से कितने प्रवासी बने। 2001 की जनगणना के अनुसार हर साल एक तिहाई भारतीय प्रवासी बन जाते हैं। यह इस बात की तरफ इशारा करता है कि गांवों में लोगों की आय और सरकारी योजनाएं नाकाफी हैं।

मराठवाड़ा से आए 10 में 9 प्रवासियों ने रोजगार की तलाश में गांव छोड़ा है। इनमें से आधे लोग महाजनों से लिए गए कर्ज के शिकार हैं जिन पर 20,000 से लेकर 2,50,000 तक का कर्ज है। इनमें से लगभग सभी को इस बात का भरोसा है कि वे मुंबई में इतनी कमाई कर लेंगे कि अपना कर्ज चुका सकें।

घाटकोपर में प्रवासी परिवारों के सर्वेक्षण में लगभग 60 परिवारों के बारे में पाया गया किउनकी आय यहां आकर 214 फीसदी बढ़ गई है।

इन प्रवासियों का स्थानीय नगर निगम के ठेकेदारों के साथ अच्छा तालमेल है। वे उनके निर्माण स्थलों पर मजदूरी का काम करते हैं। जब बारिश के मौसम में काम बंद हो जाता है तो ये प्रवासी गांव लौट जाते हैं।

इनमें से महज 8 फीसदी प्रवासियों का कहना है कि महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) लाभकारी है। हालांकि, इनमें से 47 फीसदी लोगों के जॉब कार्ड बने हुए हैं। मनरेगा को ग्रामीण संकट दूर करने के लिए चलाया गया है, लेकिन दुनिया की सबसे बड़ी रोजगार गारंटी योजना अक्सर विफल हो जाती है। इंडियास्पेंड ने फरवरी में इसकी रिपोर्ट जारी की थी।

इसके दूसरे भाग में यह खुलासा किया गया कि शिक्षा और जमीन की कमी के कारण ही प्रवासियों में इजाफा होता है। लेकिन, उनके पास बढ़ते मोबाइल फोन इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि आकांक्षाएं बढ़ रही हैं।

मराठवाड़ा में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले प्रवासियों की संख्या में मुंबई में वृद्धि हुई है।

जिन लोगों का सर्वेक्षण किया गया उनकी दिहाड़ी मराठवाड़ा के गांवों के मुकाबले दो गुनी हो गई है। मराठवाड़ा में वे जहां 156 रुपये रोजाना कमाते थे, वहीं मुंबई में वे 334 रुपये रोजाना कमा रहे हैं।

रोज की दिहाड़ी, महीने में काम करने के दिन और परिवार में कमाने वाले व्यक्ति की संख्या के आधार पर इन परिवारों की मराठवाड़ा की तुलना में मासिक कमाई औसतन 3,730 रुपये से बढ़कर मुंबई में 11,730 रुपये हो गई है।

इनकी तीन गुणा कमाई बढ़ने का मुख्य कारण महीने में काम के दिनों संख्या का बढ़ना है। गांव में जहां यह औसतन 8 दिन था, वहीं मुंबई में यह 16 दिन है।

परिवार की आय को परिवार के सभी सदस्यों के बीच बांटा जाता है, चाहे वे कमाते हों या नहीं कमाते हों। परिवार की मासिक आय को सभी सदस्यों में बराबर बांट कर सर्वेक्षण में गणना की गई है।

इस क्षेत्र के निगम पार्षद दीपक हांडे ने इंडियास्पेंड को बताया, “एक प्रवासी ने मुझसे कहा कि वह 1.5 लाख रुपये की बचत के साथ अपने गांव लौट रहा है।”

लेकिन, इन प्रवासियों के लिए यह आर्थिक राहत जीवन की गुणवत्ता में समझौते के साथ मिलती है। ये परिवार 7 वर्गफीट की बांस और तारपोलीन से बनी झोपड़ियों में रहते हैं।

घाटकोपर के प्रवासियों में ज्यादातर खानाबदोश जनजाति बंजारे (मराठी में इन्हें विमुक्तजाति कहा जाता है) हैं। वे गर्मियों के दौरान तीन से चार महीने मुंबई या दूसरे पानी से भरपूर शहरों में गुजारते हैं और मॉनसून के दौरान वे गांव लौट जाते हैं। वहां वे इस उम्मीद में लौटते हैं कि उन्हें खेतों में कुछ काम मिल जाएगा, जहां मॉनसून में बुआई होती है।

सर्दियों में वे मराठवाड़ा से 300 से 500 किलोमीटर की दूरी तय कर पश्चिमी महाराष्ट्र के सतारा, शोलापुर, पुणे और कोल्हापुर जिलों या उत्तरी कर्नाटक के बेलगाम, गुलबर्ग या हलियाल जिलों में गन्ने की खेती में मजदूरी करने जाते हैं।

(आंकड़ा आधारित, गैर लाभकारी, लोकहित पत्रकारिता मंच, इंडियास्पेंड के साथ एक व्यवस्था के तहत। ये लेखक के निजी विचार हैं)

मुंबई में मराठवाड़ा के प्रवासी गरीबी रेखा से ऊपर उठे Reviewed by on . महाराष्ट्र के सूखा प्रभावित मराठवाड़ा क्षेत्र से मुंबई आए प्रवासियों की आय अस्थाई रूप से ही सही, लेकिन तीन गुणा बढ़ गई है। इससे वे गरीबी रेखा से ऊपर आ गए हैं, स महाराष्ट्र के सूखा प्रभावित मराठवाड़ा क्षेत्र से मुंबई आए प्रवासियों की आय अस्थाई रूप से ही सही, लेकिन तीन गुणा बढ़ गई है। इससे वे गरीबी रेखा से ऊपर आ गए हैं, स Rating:
scroll to top