दुनिया में लोकतांत्रिक प्रणाली को सबसे बेहतर बताया जाता है। अधिकांश देश इस व्यवस्था पर अधिक भरोसा जताने लगे हैं, लेकिन जब महत्वाकाक्षांए संविधान और नीतियों का अतिरेक करने लगे तो संकट अपने आप पैदा हो जाता है। व्यवस्था और विधान पर जब इच्छाएं भारी पड़ने लगे तो तुर्की जैसा संकट पैदा होता है।
दुनिया में लोकतांत्रिक प्रणाली को सबसे बेहतर बताया जाता है। अधिकांश देश इस व्यवस्था पर अधिक भरोसा जताने लगे हैं, लेकिन जब महत्वाकाक्षांए संविधान और नीतियों का अतिरेक करने लगे तो संकट अपने आप पैदा हो जाता है। व्यवस्था और विधान पर जब इच्छाएं भारी पड़ने लगे तो तुर्की जैसा संकट पैदा होता है।
यूरोप और एशिया के मध्य स्थित तुर्की सेना के एक गुट की तरफ से तख्ता पलट को लेकर सुर्खियों में है। दुनिया का यह अकेला मुस्लिम मुल्क है, जो धर्मनिरपेक्षता के लिए जाना जाता है। लेकिन तुर्की में जो कुछ हुआ, उसे जायज नहीं कहा जा सकता। लोकतांत्रिक प्रणाली इसकी कभी अनुमति नहीं देती। सरकार, सेना और सत्ता के संघर्ष के मध्य उलझा एक लोकतंत्र किस तरह बेबस दिखा।
तुर्की की राजधानी अंकारा की सड़कों पर फौजी बूटों की कदम ताल और टैंकरों की गड़गड़ाहट ने लोगों की नींद उड़ा दी। जिस देश की सेना पर उसकी रक्षा का जिम्मा रहा, उसी ने बेगुनाह नागरिकों पर बम और गोलियां बरसाई। संसद पर हमला किया गया। पुलिस मुख्यालय पर हुए हमले में 17 पुलिसकर्मियों की मौत हो गई। इस जंग में 265 से अधिक लोगों की मौत हो गई। सैकड़ों की तादात में लोग घायल हुए हैं। भला इनका क्या गुनाह रहा?
सरकार इसके लिए अमेरिका में रहने वाले ताकतवर फतहुल्लाह गुलेन की साजिश मानती हैं। गुलेन को तुर्की को दूसरा सबसे बड़ा ताकतवर व्यक्ति बताया जाता है। हालांकि सरकार के आरोपों का उन्होंने खंडन किया है।
गुलेन इस्लामिक धर्म गुरु हैं। तुर्की और उसकी सेना में इनके लाखों अनुयायी हैं। लेकिन विद्रोह के पीछे साफ जाहिर होता है कि सरकार के खिलाफ एक बड़ी साजिश थी। समय रहते जिसे कुचल दिया गया। सेना के विद्रोही गुट ने एयरपोर्ट और पुलों पर पर कब्जा कर लिया, लेकिन तख्ता पलट की साजिश नाकाम हो गई।
एक बार फिर वहां लोकतंत्र जिंदा हुआ। सरकार की अपील पर सेना के खिलाफ आम लोग सड़कों पर उतर आए। पुलिस ने विद्रोहियों को मुंहतोड़ जबाब दिया, जिसका नतीजा रहा कि बागियों को आखिरकार आत्मसर्पण करना पड़ा और लोकतंत्र की जीत हुई। लेकिन सवाल उठता है कि यह कब तक होगा?
तुर्की में तख्तापलट के पीछे का संकट क्या है। सेना सरकार को क्यों अपदस्त करना चाहती है, इस तरह के कई सवाल हैं जो हमारे दिमाग में कौंधते हैं।
सामने से यह साफ दिखता है कि तुर्की की सेना ने गलत कदम उठाया था। एक चुनी हुई लोकतांत्रित सरकार को अपदस्त करने की साजिश रची। इसे लोकतांत्रिक व्यवस्था का अंग नहीं कहा जा सकता, लेकिन सेना को भी हम उतने गुनाहगार नहीं मान सकते, क्योंकि तुर्की सरकार अपनी धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था को पीछे धकेलते हुए इस्लामिक कानूनों को अधिक तवज्जों देने लगी थी। इस्लाम को अहमियत देने वाले कई कानून पास कराए गए।
शिक्षा में भी इस्लाम का प्रभाव बढ़ने लगा था। सेना का दावा है कि तुर्की की सरकार धर्मनिरपेक्ष संविधान के लिए खतरा बन गई है। वह देश में इस्लामिक कानून लागू करना चाहती है, जबकि सेना इस बदलाव को तैयार नहीं है।
सेना धार्मिक कानूनों को नहीं लागू होने देना चाहती है। दूसरी बात कि राष्ट्रपति संविधान में बदलाव कर सैन्य शक्तियों को स्वयं में निहित करना चाहते हैं। सामान्य भाषा में कहें तो वह सेना के अधिकार पर अतिक्रमण कर उसे राष्ट्रपति के अधीन करना चाहते हैं।
इस घटना के बाद यह साबित हो गया है कि सेना और सरकार एक-दूसरे से भयभीत हैं। एक-दूसरे से दोनों को डर है, जबकि दोनों लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास जताने का दावा करते हैं। संविधान और मानवीय अधिकारों की रक्षा का सेना और सरकार दोनों दंभ भरती हैं। लेकिन हकीकत इससे अलग है। तुर्की में तख्ता पलट की साजिश निश्चित तौर पर एक साजिश थी।
इस मसले पर सेना दो हिस्सों में विभाजित थी। एक गुट सरकार के पक्ष में रहा जबकि दूसरा विद्रोह और बगावत कर रहा था, जिसका नतीजा रहा कि सेना खुद में कमजोर पड़ गई और सरकार का तख्ता पलट नाकाम रहा। इससे यह साबित होता है कि इस साजिश के पीछे किसी दूसरी ताकत का हाथ रहा। विद्रोही सेना का यह कदम निश्चित तौर पर बचकाना कहा जा सकता है।
जब सेना स्वयं में बंटी हुई थी, उस स्थिति में उसे इस तरह का कदम नहीं उठाना चाहिए। सेना का यह कदम बेवकूफी भरा कहा जाएगा, क्योंकि सरकार से आम लोग खफा नहीं थी।
लोगों का विश्वास लोकतंत्र में रहा, जिसका नतीजा रहा की सरकार की एक अपील पर हजारों तादात में आम लोग अंकारा की सड़कों पर उतर आए। पुलिस की जाबांजी के कारण सैन्य विद्रोह नाकाम हो गया और सरकार सुरक्षित रही।
वर्ष 2002 में सत्ता में आने के बाद राष्ट्रपति रिसेप तईप एर्दोगन ने सेना के कई अधिकारियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की, जिससे सेना में एक गुट इस कार्रवाई से नाराज था। राष्ट्रपति सेना और सरकार के आस पास विकेंद्रित संवैधानिक शक्तियों को स्वयं में केंद्रित करना चाहते थे। सेना के अधिकार में कटौती चाहते थे। यह बात सेना को खल रही थी। सेना इसके लिए तैयार नहीं थी। तुर्की कई आतंरिक संकटों से भी झेल रहा है।
वहां कुर्द बलों की लड़ाई आज भी जारी है, जबकि आईएएस भी अपनी जड़ें मजबूत कर लिया है। 1984 में कुर्द संगठन ने सरकार से गुरिल्ला युद्ध शुरू किया। बाद में यह गृहयुद्ध में तब्दील हो गया। यह संघर्ष अब तक तुर्की सरकार और कुर्दों के मध्य जारी है। 2011 सीरिया युद्ध शुरू होने से तुर्की की सीमाओं पर हमेशा तनाव बना रहता है। हिंसक झड़पें वहां आम बात हैं। तुर्की शरणार्थी समस्या से भी जूझ रहा है।
सीरिया युद्ध के कारण लाखों शरणार्थी तुर्की में हैं और यह जारी है। तुर्की आतंकवाद से भी जुझ रहा है, क्योंकि सरकारों का नजरिया साफ नहीं है। यही स्थिति है कि सेना और सरकारों में टकराव और तख्ता पलट होते रहते हैं। तुर्की कभी आटोमन साम्राज्य का केंद्र रहा। 1920 में यहां राष्ट्रवादी नेता मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने धर्मनिरपेक्ष सरकार की स्थापना की। 1923 में तुर्की को गणतंत्र घोषित किया गया।
अतातुर्क के निधन के बाद 1938 में अर्थव्यवस्था और विकास बेपटरी हो गया। इसके बाद सेना ने कई बार धर्मनिरपेक्षता के लिए खतरा समझी जाने वाली कई सरकारों का तख्ता पलट किया। 1960 में सेना ने डेमोकेट्रिक पार्टी का तख्ता पलट किया। 1974 में साइप्रस द्विप पर कब्जे के बाद इस द्विप को बांटना पड़ा। 1980 में तीसरा तख्ता पलट किया गया। उस समय सेना के चीफ आफ जनरल स्टाफ केनान एवरेन थे।
अमेरिका और तुर्की के संबंधों में हमेशा से तनाव रहा है। राष्ट्रपति एर्दोगन के पश्चिमी नेताओं से अच्छे संबंध न होने के कारण इस तरह की स्थिति बनी। दूसरी तरफ, अमेरिका से भी उसके संबंध अच्छे नहीं हैं लेकिन इस संकट में अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा तुर्की के साथ हैं और संयम और शांति बरतने की अपील की है। तुर्की के प्रधानमंत्री बिनअली यलदिरिम ने कहा कि तख्तापलट की कोशिश की गई, साजिश रचनेवालों को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।
उधर, राष्ट्रपति को सुरक्षित इस्तांबुल भेज दिया गया है। हालांकि अब स्थिति सामान्य हो गई, लेकिन असली जंग अब शुरू होगी। सरकार की तरफ से तीन हजार से अधिक लोगों की गिरफ्तारी की गई है। सेना के विद्रोहियों के खिलाफ कठोर कदम उठाए जाएंगे। सरकार के लिए असल संघर्ष अब शुरू होगा, जिससे बाहर निकलना सरकार के लिए आसान नहीं होगा। लेकिन लोकतंत्र का रास्ता सबसे अधिक बेहतर रहेगा।
सरकार हो या सेना, सभी को लोकतांत्रिक व्यवस्था का सम्मान करना चाहिए। सरकार और सेना जैसी संस्थाओं को संवैधानिक मर्यादाआंे के अतिक्रमण से बचना होगा, तभी लोकतंत्र जिंदा रहेगा। यह सेना, सरकार और लोकतंत्र तीनों के हित में है। (आईएएनएस/आईपीएन)
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)