भारत और भारतीयता ने क्या खोया है पिछले १00 -२00 सालों में?
अध्यात्म कि सीढ़ियां व्यापार का मार्ग बन गयीं, राजनीति की सफलता सहयोग और सेवा के लिए नहीं बल्कि धन और बाहुबल के लिए हो गयी, पत्रकारिता नहीं बची सत्य का दर्पण बल्कि वो बाजारों की अस्मिता का खेल हो गयी, कवि की कविता जीवन का कटु सत्य तो नहीं बनी बल्कि बाजार की आंधी उन्हें भी अँधा कर गयी। सरकारी दफ्तर नियमों के लगाव और ज़ंज़ीरों में बंधी अफसरसाही ने व्यवहार कुछ ऐसा किया जैसे कोई परेशानी पैदा करने की प्रतियोगिता का सम्मेलन हो। कहाँ से कहाँ आ गए हम ? और अभी भी आज के पेपर सवाल कर रहें हैं कि हमारे डिप्लोमेट ( देवयानी जी ) के साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया गया? हम आज अपनी बेटी को घर ला के भी हार गए…. क्यों? क्योंकि हमारी अस्मिता कहीं अपने देश, अपने घर पर आज भी रोज लुट रही है, कोई देश कोई राष्ट्र तब तक अपनी स्थिति को मजबूत नहीं बनाता जब तक वो अंदर से मजबूत न हो। आज दुनिया के समक्ष हम कर क्या पाते हैं? इतना बड़ा देश और इसकी राजनयिक या डिप्लोमेटिक भूमिका वीसा जारी करने के अलावा शायद ही कभी कभार दिखती है। हमारे खबरी चैनल और हमारे बहुतेरे नागरिक दुनिया के बावत कोई विचार नहीं रखते, हम दुनिया के बावत दूसरे देशों के बावत कोई सोच नहीं रखते , भारत अपने दर पर ही शुरू होकर दम तोड़ देता हैं।
एक जमाना था जब हम दुनिया के बारे और उनके गतिविधियों के बावत बात करते थे, कोई सोच थी हमारी, तब हमारी पहचान भी थी, आज सोच बंद है तो पहचान भी। पिछले इतने दिनों से दक्षिणी सूडान में इतना भयंकर युद्ध हो रहा है, जहाँ भारत के सैनिक भी हैं UN फ़ोर्स के साथ हैं, कुछ आहत भी हुए हैं पर क्या हमने कोई कमेंट किया? हमारा अपना वर्चस्व विश्व की स्थिति में बिलकुल नहीं है ये एक कारण है कि दूसरे देश हमें केवल एक मार्केट कि तरह देखते हैं। हम भी कोई सहयोग दुनिआ कि दशा और दिशा के तरफ देते क्या हैं?
भारत का दम और भारत का पराक्रम तो कवि मंचों से गूंजता है पर देवयानी जी जैसे मामले हमारी अपनी अस्मिता पर सवाल खड़े करते हैं, खैर हम आदी हो चुके हैं अपनी हीनता के गुण गाने के, मुझे आज यह कहने में कोई परहेज नहीं, हम तो विवेकानद जी जैसे महान संतो कि बात भी उनके ११ सितम्बर के अमरीका भाषण से करते हैं, फिर न तो उनका इतिहास याद रहता न ही भविष्य। राष्ट्रीय अस्मिता और राष्ट्र जागरण के बात करने वाले व्यक्ति के जीवन के सम्बन्ध में हमारी बात की शुरुआत और अंत उनके द्वारा दिए गए विदेशी कार्यकमों से होता है, इससे बड़ा दुर्भाग्य और अपमान क्या हो सकता है।
राष्ट्र कि शक्ति केवल राष्ट्र कि चेतना की चेतना पर निर्भर करती है, हमारी चेतना जब सजग होती है तब वो समस्त के प्रति चिंतन और समस्त के प्रति अपनी जागृति रखती है हमारी मुख्या समस्या अमरी तन्द्रा है, अपनी स्थिति को स्वीकार कर लेने का मनस है, जैसा है उनमें जी लेने की तैयारी है। आइये निकले इस तन्द्रा से , इस स्थिति से
जाग सको तो जागो फिर से
मन तुम बनकर भारत का
चले दीर्घ कि दीक्षा फिर से
बजे नाद फिर अनहद का
विवेक जी के ब्लॉग से